अयोध्या: अनिमंत्रितों से प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में न आने की अपील का क्या अर्थ है?
प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में वहीँ लोग आए जिन्हे बुलाया है ,आम जनता ना आये ?
राम मंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय की अपील सुनकर बरबस ‘अज्ञेय’ याद आते हैं, जिनका कहना था कि ‘जो निर्माता रहे/ इतिहास में वह/ बंदर कहलाएंगे’. ट्रस्ट द्वारा राम मंदिर के लिए संघर्षरत रहे कारसेवकों व राम सेवकों का ‘बंदर कहलाने’ की नियति से साक्षात्कार क्यों कराया जा रहा है?
BY-कृष्ण प्रताप सिंह
जो पुल बनाएंगे/ वे अनिवार्यत:/ पीछे रह जाएंगे/ सेनाएं हो जाएंगी पार/ मारे जाएंगे रावण/ जयी होंगे राम/ जो निर्माता रहे/ इतिहास में वह/ बंदर कहलाएंगे.
हिंदी के अपने वक्त के सबसे चर्चित कवि व कथाकार स्मृतिशेष सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की यह कविता (जो इस विडंबना की ओर ध्यान आकर्षित करती है कि सामाजिक जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में किसी उद्देश्य को लेकर किए जा रहे संघर्ष सफल हो जाते हैं तो उनमें निर्णायक भूमिका निभाने वालों की बेकद्री हो जाती है और उसका श्रेय लेने व जश्न मनाने में ऐसे लोग आगे आ जाते हैं, जिन्होंने उंगली तक कटाए बिना शहीदों में अपना नाम लिखा लिया होता है.)
अगले वर्ष 22 जनवरी को दोपहर 12:20 बजे अयोध्या में ‘वहीं’ निर्मित भव्य राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के समारोह में अनिमंत्रित व अनाहूत लोगों से, जो निस्संदेह आम लोग हैं, न आने की श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सचिव चंपत राय की अपील के बाद कई लोगों को बरबस और बारंबार याद आ रही है.
इस कारण और कि उन्होंने उन कारसेवकों, रामसेवकों और रामभक्तों को भी अपनी अपील का अपवाद नहीं बनाया है, वे और उनके संगठन जिनके त्याग, समर्पण और बलिदान से राम मंदिर निर्माण के अपने स्वप्न को साकार हुआ बताते आए हैं.
गौरतलब है कि राम मंदिर के लिए उग्र आंदोलन (जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार कई मौकों पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से भी बड़ा बता चुका है) के दौर में उसकी संचालक विश्व हिंदू परिषद आम लोगों के समर्थन के लिए प्रायः बेचैन रहा करती थी और उसे अपना उद्देश्य पाने में तभी सफलता मिली, जब वह किसी तरह उन्हें समझा ले गई कि यह उनकी अस्मिता से जुड़ा हुआ मामला है. तब तक वह युवाओं के एक हिस्से को कारसेवक और बाद में रामसेवक बनाकर राम मंदिर निर्माण के लिए जी-जान लगाने को तैयार करने में भी सफल हो चुकी थी.
लेकिन आज चंपत राय कह रहे हैं कि अगर अनिमंत्रित लोग प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर अयोध्या चले आए तो व्यवस्था में बहुत-सी मुश्किलें पेश आ सकती हैं.
शायद अब उन्हें वह वक्त याद नहीं, जब ‘हिंदू विरोधी’ सरकारों पर दबाव बनाने, दूसरे शब्दों में कहें तो घुटनों के बल लाने के लिए, विश्व हिंदू परिषद राम भक्तों से दसों दिशाओं से अयोध्या कूच का आह्वान करती और कई बार उनकी व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने में सफल भी हो जाती थी. बेशक कारसेवकों और रामसेवकों के बड़ी संख्या में अयोध्या पहुंच जाने के कारण.
यह और बात है कि तब विहिप के आंदोलन के विरोधी कहा करते थे कि उन कारसेवकों व रामसेवकों में ज्यादातर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के स्वयंसेवक ही हैं.
साफ है कि आज चंपत राय या श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के लोग उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अयोध्या की सड़कों की चौड़ाई और दूसरी जन सुविधाएं बढ़ाने के बावजूद प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भारी भीड़ को लेकर जिन अंदेशों से डरे हुए हैं, उन्होंने उन्हें 1989-90 या 1992 में भी महसूस किया होता तो न कारसेवकों को मुलायम सरकार की पुलिस की गोलियों के सामने करते, न ही उनसे बाबरी मस्जिद का ध्वंस करवाते.
तब राम के नाम पर देश के संविधान और लोकतांत्रिक ढांचे को मुंह चिढ़ाने वालों में उनका नाम नहीं लिखा जाता. लेकिन इस बात में भी पर्याप्त संदेह हैं कि तब आज राम मंदिर ट्रस्ट बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर बना रहा होता.
ऐसे में अपनी अपील के समर्थन में चंपत राय कुछ भी कहें, उसका एक अर्थ यह भी निकाला ही जाएगा कि वे आम कारसेवकों, रामसेवकों और रामभक्तों से कहना चाहते हैं कि अब तुम्हारा काम खत्म हो चुका है और प्राण प्रतिष्ठा समारोह को तो हम तुम्हारे बगैर भी अपने वीवीआईपी अतिथियों के साथ निपटा लेंगे. उसमें किसी ‘हिंदू विरोधी’ सरकार के साथ संघर्ष या टकराव नहीं है, जिसमें तुम्हारी शक्ति की जरूरत महसूस हो.
रही बात तुम्हारी आस्था की, जिसके नाम पर राम मंदिर के समूचे आंदोलन को धार प्रदान की गई थी तो अब तो तुम उसे दूर-दूर से भी तुष्ट कर सकते हो- अपने अपने-अपने घरों के पास बने मंदिरों में पूजा-पाठ करके, टीवी पर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का प्रसारण देख करके या फिर अपने घरों पर दीपावली मनाकर, भजन कीर्तन या श्रीराम जय राम जय जय राम का पाठ करके भी.
हां, समारोह में हुतात्मा कारसेवकों के जिन पचास परिवारों को निमंत्रित किया गया है, उन्हें भी दूर-दूर से देख ही सकते हो. यह सोचते हुए कि अब वे दिन बीत गए हैं, जब हिंदुओं में रोष व क्षोभ के बहाने ‘हिंदू विरोधी’ सरकारों को नाकों चने चबवाने और आस्था के मामले निपटाने में अदालतों को अक्षम बताने के लिए तमाम सरकारी प्रतिबंधों को धता बताकर आस्था के नाम पर तुम्हारा अयोध्या पहुंचना और हड़बोंग मचाना जरूरी हुआ करता था. अब वहां सब कुछ भव्यता व दिव्यता के हवाले कर दिया गया है और उन्हीं महानुभावों की उपस्थिति अभीष्ट है जो उसमें कुछ ‘योगदान’ कर सकते हों.
यहां एक और तथ्य काबिल-ए-गौर है. यह कि भाजपा और विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर निर्माण का अपना समूचा आंदोलन अपनी राजनीतिक सुविधा के लिहाज से ही चलाती रही हैं. सवाल है कि तब प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भी, भाजपा के सत्तासीन होने के चलते, उनकी यह राजनीतिक सुविधा कुछ गुल खिलाएगी या नहीं?
गौर कीजिए, यह भी राजनीतिक सुविधा के तहत है कि जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले अपनी पुरानी कट्टरपंथी छवि से पीछा छुड़ाने और विकास का महानायक बनने के लिए मतदाताओं से अयोध्या के बाहर-बाहर से ही वोट मांगकर वापस चले गए थे और सत्ता में आने पर कानून बनाकर राम मंदिर निर्माण सुनिश्चित करने की अपनी पार्टी के मंदिरवादी समर्थकों की मांग के समक्ष बगलें झांकने लग जाते थे, उससे जुड़े विवाद के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निपटारे के बाद से भूमि पूजन और प्राण प्रतिष्ठा समारोह तक में समर्पित होकर दंडवत प्रणाम करते नजर आते हैं. तिस पर उनकी दूरन्देशी कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और मंदिर के निर्माण दोनों का दोहरा श्रेय लूट ले रहे हैं.
इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त भाजपा की राजनीतिक अस्पृश्यता के खात्मे के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का बैनर बनाने और अटल को उसका प्रधानमंत्री बनाने की राजनीतिक सुविधा के लिए भी राम मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाला ही गया था.
ऐसे में सवाल मौजूं है कि क्या भाजपा व विहिप के सर्वाधिक प्रतिनिधित्व वाले राम मंदिर ट्रस्ट द्वारा जानबूझकर उनकी इस राजनीतिक सुविधा को आगे किया जा रहा है? लगता तो ऐसा ही है.
अन्यथा यह ट्रस्ट (जिसमें फिलहाल एक ही जाति, वर्ण व संगठन का वर्चस्व है और जो अपने गठन के वक्त से ही हिंदुओं के बहुलवाद और अयोध्या के संत-महंतों का समुचित प्रतिनिधित्व न करने, राम मंदिर आंदोलन में दलित व पिछड़ी जातियों के ‘योगदान’ को नकारने, अपनी भूमिका का अतिक्रमण करने और भ्रष्टाचार बरतने वगैरह के अंदरूनी व बाहरी आरोपों के निशाने पर रहा है) द्वारा पहले से ही पूछे जा रहे इस सवाल को और बड़ा क्यों किया जाता कि उसके द्वारा हिंदू श्रद्धालुओं से एकत्र किए गए धन से अदालती आदेश की बिना पर निर्मित कराया जा रहा मंदिर किनका और किनके लिए है? विश्व हिंदू परिषद का, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का, सारे हिंदुओं का या महज उसके प्रभुत्वशाली व कुलीन महानुभावों का?
सीधे पूछें तो सवाल यों बनता है कि इस मंदिर पर पहला हक किनका है? क्या उन धर्माधीशों, आचार्यों, सत्ताधीशों, नेताओं, वीवीआईपी महानुभावों, उद्योगपतियों, खिलाड़ियों, अभिनेताओं और कलाकारों आदि का ही, जिन्हें ट्रस्ट अपनी पसंद पर आधारित चयन के रास्ते बुला रहा है, न कि भक्ति व आस्था के आधार पर.
तिस पर वह चाहता है कि आम रामभक्त व आस्थावान बाद में अयोध्या आकर त्रेता की वापसी का चाक्चिक्य देखकर ही खुश हों. निर्बल के बल, समदर्शी और पतित पावन कहलाने वाले राम के दरबार में किसी भी आधार पर उसके इस भेदभाव भरे सलूक का क्या औचित्य है?
ट्रस्ट ने हिंदुओं के जिस रामानंदी संप्रदाय की पूजा पद्धति को इस मंदिर की पूजा पद्धति बनाया है, उसके आद्याचार्य स्वामी रामानंद तो, जिन्होंने उत्तर भारत में राम भक्ति का भरपूर उन्नयन किया, राम की भक्ति के मामले में जाति व वर्ण कौन कहे, धर्म के आधार पर भेदभाव के भी विरुद्ध थे. तभी तो जुलाहा होने के बावजूद संत कबीर उनके शिष्य थे.
बहरहाल, अज्ञेय के ही शब्दों में पूछें तो समझना मुश्किल है कि ट्रस्ट द्वारा राम मंदिर के लिए संघर्षरत रहे कारसेवकों व राम सेवकों का ‘बंदर कहलाने’ की नियति से साक्षात्कार क्यों कराया जा रहा है?
यहां यह भी याद किया जाना जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए-नए सत्ता में आए तो सर्वत्र व्याप्त वीवीआईपी कल्चर पर बरसने और उसे समाप्त करने की कसम खाने का शायद ही कोई मौका हाथ से जाने देते थे, लेकिन अब उन्हीं की सरकार द्वारा गठित श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट उनकी नाक के नीचे उनके राजनीतिक आराध्य राम के मंदिर में उनकी प्राण प्रतिष्ठा के समारोह में अपने वीवीआईपीज़ की प्रतिष्ठा में कुछ भी नहीं उठा रहा, आम लोगों के साथ प्रोटोकॉलधारियों से भी माफ़ी मांग रहा है!
क्या यह धरती का अपनी धुरी पर पूरे तीन सौ साठ अंश घूम जाना नहीं है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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