आख़िर कब तक गृहणियां पारिवार या शादी से जुड़े मसलों को लेकर आत्महत्या से जूझती रहेंगी?
BY-सोनिया यादव | 13 Dec 2023
एनसीआरबी की हालिया जारी रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल 2022 में 25,309 गृहणियों ने आत्महत्या के जरिए अपना जीवन समाप्त कर लिया। ये संख्या पिछले 5 वर्षों में सबसे अधिक है।
गृहणी यानी हाउसवाइफ़ को आजकल भले ही ‘होम मेकर’ का फैंसी नाम मिल गया हो,लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति आज भी जस की तस ही बनी हुई है।
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राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया जारी रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल 2022 में 25,309 गृहणियों ने आत्महत्या के जरिए अपना जीवन समाप्त कर लिया। ये संख्या पिछले 5 वर्षों में सबसे अधिक है और कुल आत्महत्याओं का 14.8 प्रतिशत है।
साल 2021 में ये आंकड़ा करीब 23,178 था, जबकि 2020 में ये संख्या 22,372 थी, ये इस साल हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं का 14.6 प्रतिशत था।
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बता दें कि ये स्थिति केवल पिछले सालों की नहीं है। 1997 में जब से एनसीआरबी ने पेशे के आधार पर आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित करने शुरू किए हैं तब से हर साल 20 हज़ार से ज़्यादा गृहणियों की आत्महत्या का आंकड़ा सामने आ रहा है।
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अब तक साल 2009 में ये आंकड़ा सबसे अधिक 25,092 तक पहुंच गया था, जिसका रिकॉर्ड बीते साल के आंकड़े ने तोड़ दिया है। रिपोर्ट में इन आत्महत्याओं के लिए “पारिवारिक समस्याओं” या “शादी से जुड़े मसलों” को ज़िम्मेदार बताया गया है। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि आख़िर क्या वजहें हैं जो सालों से इसी कारण हज़ारों गृहणियां अपनी जान ले लेती हैं?
क्या है इन हत्याओं के पीछे की असली वजह?
एनसीआरबी के पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर गौर करें, तो आत्महत्या को लेकर समाज की सबसे संवेदनशील कटेगरी- 2022 तक 5 सालों में दैनिक वेतन भोगी सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, इसके बाद गृहिणियों, स्व-रोज़गार करने वाले और बेरोजगार व्यक्ति, छात्र और किसानों का नंबर है। 2018 से 2022 के बीच हर साल आत्महत्या से जान देने वाली गृहिणियों की कुल संख्या लगातार किसानों की तुलना में दोगुने से अधिक रही। ये आंकड़े अपने आप में चिंताजनक हैं।
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एनसीआरबी में भले ही हाउसवाइफ्स की आत्महत्या से होनेवाली मौत को एक पारिवारिक और निजी समस्या के तौर पर देखा जाता हो, लेकिन यह एक गंभीर सामाजिक समस्या है जिसके पीछे पितृसत्ता, बेरोज़गारी, जाति, गरीबी, संसाधनों तक पहुंच, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता में कमी जैसी वजहें शामिल हैं। सालों से एनसीआरबी की रिपोर्ट्स में आत्महत्या से हुई महिलाओं की मौत में अधिकतर मामले दहेज से संबंधित या बच्चे न होने की समस्या से जुड़े रहे हैं।
ये विडंबना ही है कि एक ओर जहां भारतीय समाज महिलाओं के घर संभालने और नौकरी से दूर रहने को महिमामंडित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर घर में रह रही औरतों की मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक जरूरतों को पूरी तरह नजरअंदाज़ कर दिया जाता है।
इसी साल मार्च के महीने में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) की तरफ से किए गए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक, 2016 से 2021 के बीच महिलाओं के खिलाफ लगभग हर तीन में से एक अपराध उसके पति या उसके रिश्तेदार की ‘क्रूरता’ से जुड़ा था। इसके निष्कर्ष बताते हैं कि पति और उनके रिश्तेदारों की तरफ से क्रूरता देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का सबसे आम रूप है।
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ये आंकड़ें असल स्थिति की महज़ एक मामूली झलक
महिला अधिकार कार्यकर्ता अमृता जोहरी न्यूज़क्लिक को बताती हैं कि ये आंकड़े घरों में महिलाओं की असल स्थिति की महज़ एक मामूली हिस्से को लोगों के सामने रखते हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में अपराध तो कभी रिपोर्ट ही नहीं होते हैं। इसके पीछे जाति, संस्कृति, पितृसत्ता, पुलिस और समाज का डर आदि कई कारण हैं, जो पीड़ित महिला या उसके घरवालों को पुलिस थानों तक पहुंचने ही नहीं देते।
अमृता के मुताबिक आज भी परिवारों में पितृसत्ता का बोलबाला है और यही कारण है कि घरेलू हिंसा कम नहीं हो रही। घरों में बेटे-बेटी का फर्क का ही आगे चलकर बहु की प्रताड़ना का कारण बनता है। इसके बाद मानसिक स्वास्थ्य को न तो महत्वपूर्ण समझा जाता है और न ही इसके लिए चिकित्सा करवाई जाती है, और ये अवसाद ही फिर आगे चलकर एक गृहणी को आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर कर देता है। इसलिए जरूरी है समय पर समस्या की पहचान हो, मामले रिपोर्ट हों और परिवार, समाज ऐसी गृहणियों के लिए सकारात्मक माहौल बनाए।
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ध्यान रहे कि साल 2021 के एक सरकारी सर्वे में 30 प्रतिशत महिलाओं ने बताया था कि उनके साथ पतियों ने घरेलू हिंसा की है। रोज़ की ये तकलीफ़ें शादियों को दमनकारी बनाती हैं और घरों में महिलाओं का दम घुटता है। यहां समझनेवाली एक और बात है कि घर में रह रही महिला के लिए अक्सर कमाई का कोई जरिया नहीं होता।
वे अपने जीवनसाथी पर आर्थिक रूप से निर्भर करती हैं। इसलिए उनका अपनी बुनियादी जरूरतों जैसे मनोरंजन, शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के लिए कोई भी खुद निर्णय लेना कठिन है। साथ ही, शिक्षा और जागरूकता की कमी में उन्हें उनके अधिकारों का एहसास होना और अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले पाना मुश्किल है।
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बचपन से त्याग और ममता के पाठ की सोशल कंडीशनिंग
पितृसत्ता के समाज में महिलाओं को बहुत सहनशील होने की शिक्षा दी जाती है, जयादातर लड़कियों की कम उम्र या अपरिवक्वता में ही शादी कर दी जाती है। वो पत्नी और बहू बन जाती हैं और पूरा दिन घर पर खाना बनाते, सफाई करते और घर के काम करके बिताती हैं। उन पर सभी तरह की पाबंदियां लगी होती हैं, उन्हें बहुत कम आजादी होती है और अपने लिए उन्हें कभी-कभी ही पैसे मिल पाते हैं। ऐसे में उनकी शिक्षा और सपने कोई मायने नहीं रखते और उनकी महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे ख़त्म होने लगती है और उन पर निराशा छा जाती है। वो अंदर ही अंदर घुटने लगती हैं और जब सहने की उनकी सीमा पार हो जाती है तो, वो मज़बूरन आत्महत्या जैसे कदम उठा लेती हैं।
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में मौजूदा मिथक पीड़ितों को खुलकर सामने आने से रोकते हैं। इसके अलावा बचपन से त्याग और ममता के पाठ की सोशल कंडीशनिंग के बीच, उनका खुद के बारे में सिर्फ सोचना भी उन्हें स्वार्थी बना देता है। कई महिलाएं उम्र के उस पड़ाव पर होती हैं, जो मेनोपॉज़ से पहले के लक्षणों का सामना करती हैं जिससे अवसाद और उदासी आती है। ये सुनने में शायद उतना गंभीर न लगे लेकिन इसकी वास्तविकता और असर बहुत गंभीर हो सकते हैं। ऐसे में उनके साथ ज्यादा संवेदनशील होने की भी जरूरत है।
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थाने से लेकर अदालत का संघर्ष
गौरतलब है कि महिलाओं से जुड़े अपराध मामले में देखें, तो साल 2021 की तुलना में सजा दर भी 3 फीसदी कम होकर साल 2022 में 54.2 फीसदी हो गई। वैश्विक महामारी वाले वर्ष यानी कोविड के दौरान 2020 में यह बढ़कर 59 फीसदी हो गई थी। सजा दर कम होने के बावजूद लंबित मामलों की दर भी कम हुई है। साल 2021 के 91 फीसदी से घटकर साल 2022 में करीब 89 फीसदी मामले न्यायालयों में लंबित हैं।
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जाहिर है महिलाओं के लिए संघर्ष थाने से लेकर अदालत का संघर्ष आसान नहीं है, सालों साल मामले लटके रह जाते हैं। और रही बात आत्महत्या की, तो इसे हमारे देश में बहुत तवज्जों नहीं दी जाती। शहरों में ये फिर भी सुर्खियों में कभी कभार दिख जाए, लेकिन ग्रामीण भारत में अभी भी इसे लेकर जागरूकता की कमी है। यहां किसी औरत की हत्या या आत्महत्या के बाद अटॉप्सी की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती, इसे लोग आकस्मिक मृत्यु बताकर दबा देते हैं।
ऐसे में सरकारी प्रयासों से कितना क्या बदलेगा ये कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि ज्यादातर वादे केवल चुनावी जुमले ही साबित होते हैं। यहां महिलाओं को इसे रोकने के लिए अपनी आवाज़ स्वयं बनना होगा। यदि आपको आत्महत्या के विचार आ रहे हैं या आपकी जानकारी में किसी और के साथ ऐसा होता है, तो आप अपने राज्य की आसरा वेबसाइट के ज़रिए सहयोग ले सकते हैं। इसके अलावा भी आप तमाम सरकारी और गैर सरकारी हेल्पलाइन से संपर्क कर सकते हैं।
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