हरियाणा बीजेपी के इस कद्दावर नेता की लुटिया डुबो दी!
======अजय झा======
चौधरी बिरेन्द्र सिंह का किस्सा बीजेपी के अन्य दिग्गजों के लिए, खास कर उनके लिए जो दूसरी पार्टियों से बीजेपी में शामिल होते हैं एक चेतावनी है कि बीजेपी में कुछ ज्यादा की चाहत रखना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है.
कुछ ज्यादा पाने की चाहत कभी किसी व्यक्ति के लिए कितनी महंगी पड़ सकती है इसका जीता जागता उदाहरण हैं हरियाणा (Haryana) के एक समय के कद्दावर नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह (Chaudhary Birender Singh). जाटों के मसीहा माने जाने वाले सर छोटू राम के परनाती, बीरेन्द्र सिंह खानदानी कांग्रेसी थे. पिता चौधरी नेकी राम भी कांग्रेस के बड़े नेता और सांसद रहे थे. बीरेन्द्र सिंह कभी हरियाणा में विधायक और मंत्री, कभी लोकसभा और कभी राज्यसभा के सदस्य रहें. पर उनकी चाहत थी मुख्यमंत्री बनने की, एक सपना जो कभी पूरा नहीं हो सका, क्योंकि उनकी राह में एक और जाट नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा (Bhupinder Singh Hooda) रोड़ा बन गए. बीरेन्द्र सिंह के मुकाबले हुड्डा की पहुंच सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के दरबार में बहुत ज्यादा थी.
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दरअसल एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती हैं, हुड्डा ने उनकी अनदेखी करनी शुरू कर दी, जिससे विचलित हो कर 2014 में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बीरेन्द्र सिंह कांग्रेस पार्टी छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए. हिसार की एक बड़ी रैली में उन्होंने बीजेपी में शामिल होने का ऐलान किया. मंच पर बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी मौजूद थे. बीरेन्द्र सिंह ने वहां अपना रोना रोया कि कैसे कांग्रेस पार्टी में उनके साथ दुर्व्यवहार होता रहा है. बीजेपी को हरियाणा में एक बड़े जाट नेता की जरूरत थी. ओमप्रकाश धनकड़ और कैप्टन अभिमन्यु जैसे जाट नेता थे, पर उनका कद हुड्डा के बराबर का नहीं था. लिहाजा बीजेपी ने उनका खुले दिल से स्वागत किया, मंच से अमित शाह ने उनके मान और सम्मान का पूरा ख्याल रखने का वादा किया और बीजेपी पहली बार हरियाणा में अपने दम पर बहुमत हासिल करके सरकार बनाने में सफल रही.
बीजेपी में खानदानी राजनीति नहीं चलती
बीरेन्द्र सिंह उन दिनों कांग्रेस पार्टी की तरफ से राज्यसभा के सांसद होते थे. उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और फिर बीजेपी के टिकट पर राज्यसभा में चुन कर आये. शाह को अपना वादा याद था और चौधरी बीरेन्द्र सिंह को केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया. बीजेपी के टिकट पर उनकी पत्नी प्रेमलता 2014 के चुनाव में उचाना कलां क्षेत्र से विधायक चुनी गईं. यहां तक तो ठीक था, पर बीरेन्द्र सिंह की कुछ ज्यादा की चाहत बढ़ती गई. बहुत कोशिश की कि उनकी पत्नी को हरियाणा में मंत्री पद मिले, पर असफल रहे. फिर भी सब ठीक ठाक चलता रहा. पर फिर 2019 के लोकसभा चुनाव का समय आया. बीरेन्द्र सिंह 73 वर्ष के हो चुके थे और खानदान की राजनीतिक विरासत अपने पुत्र बीरेन्द्र सिंह को सौंपना चाहते थे. बीरेन्द्र सिंह IAS थे, इस्तीफा दे कर बीजेपी में शामिल हो गए. बीरेन्द्र सिंह ने बेटे को लोकसभा का टिकट दिलाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. बीजेपी ने उनकी बात मान ली, पर एक शर्त पर कि यह बीजेपी है, कांग्रेस पार्टी नहीं जहां खानदान की राजनीति चलती हो. शर्त थी कि बीरेन्द्र सिंह को मंत्री पद और संसद से इस्तीफा देना होगा, जिसके लिए वह तैयार हो गए. उन्होने मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और बीरेन्द्र सिंह को लोकसभा के हिसार क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया गया.
बृजेन्द्र सिंह ने उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला को हराया था
बृजेंद्र सिंह ने तत्कालीन सांसद और वर्तमान में हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला को हराया. स्वयं राज्यसभा के सांसद, पत्नी हरियाणा में विधायक और पुत्र लोकसभा में सांसद, ऐसा बीजेपी में तो पहले कभी दिखा नहीं था. पर बीरेन्द्र सिंह की कुछ ज्यादा की चाहत ख़त्म नहीं हुई थी. उन्होंने लाख कोशिश कि बृजेन्द्र सिंह को केंद्र में मंत्री पद मिल जाए, पर असफल रहे. कुछ ही महीनों के बाद हरियाणा विधानसभा चुनाव का समय आ गया. बीजेपी ने मन बना लिया था कि उनकी पत्नी प्रेमलता का टिकट काटा जाएगा, क्योंकि एक ही परिवार को बढ़ावा देना पार्टी की नीति के विरुद्ध था. पर बीरेन्द्र सिंह कहां मानने वाले थे. और शायद यहीं उनसे चूक हो गयी जिसका खामियाजा अब उनके सांसद पुत्र बृजेन्द्र सिंह को झेलना पड़ रहा है. बीरेन्द्र सिंह की जिद के आगे बीजेपी झुक गयी, प्रेमलता को दोबारा उचाना कलां से टिकट मिल गया. पर टिकट मिलना एक बात होती है और चुनाव जीतना उससे कहीं ज्यादा कठिन. अपने गढ़ में बीरेन्द्र सिंह को जनता ने नकार दिया. आधिकारिक तौर पर चुनाव में प्रेमलता हारी थीं, पर यह हार चौधरी बीरेन्द्र सिंह की थी. अचानक उनका राजनीति में कद छोटा हो गया. बीजेपी तीन महीनों तक इंतज़ार करती रहीं और फिर उन्हें याद दिलाना पड़ा कि बृजेन्द्र सिंह को टिकट देते समय उन्होंने राज्यसभा से ही इस्तीफा देना का वादा किया था. मजबूरीवश जनवरी 2020 में उन्हें राज्यसभा से भी इस्तीफा देना पड़ा, हालांकि उनका कार्यकाल 2022 तक का था.
बेटे को नहीं बनाया गया मंत्री
कहां एक ही परिवार से दो सांसद और एक विधायक होते थे, पर कुछ ज्यादा की चाहत ने चौधरी बीरेन्द्र सिंह की लुटिया डुबो दी. अब वह राजनीति में सेमी-रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं. 75 वर्ष के हो चुके हैं. किसी और पार्टी में जा कर अब अपनी किरकिरी नहीं करना चाहते और पुत्र बृजेन्द्र सिंह का भविष्य भी ख़राब नहीं करना चाहते. पिछले कुछ समय से जबकि मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार की कवायद शुरू हो गयी थी, चौधरी बीरेन्द्र सिंह की अब वह हैसियत नहीं थी कि वह बीजेपी पर अपने पुत्र को मंत्री बनाने का दबाव डाल पाते. वैसे भी अबतक उन्हें कांग्रेस और बीजेपी के बीच का फर्क समझ में आ चुका था, इसलिए बीरेन्द्र सिंह को चुपचाप बैठना पड़ा, इस उम्मीद के साथ कि शायद इस बार बृजेन्द्र सिंह के मंत्री बनने की बारी आ जाए. हरियाणा से एक नए मंत्री को लाने की बात चल रही थी, पर वह नाम बृजेन्द्र सिंह का ना हो कर सिरसा लोकसभा क्षेत्र से सांसद सुनीता दुग्गल का था. यह अलग बात है कि जिन 12 मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया उसमें हरियाणा के रतनलाल कटारिया भी शामिल थे. पर हरियाणा से सुनीता दुग्गल या किसी और को फिलहाल मंत्री नहीं बनाया गया है.
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चौधरी बीरेन्द्र सिंह का किस्सा अन्य नेताओं के लिए चेतावनी
संभव है कि जब कभी भी मोदी मंत्रिमंडल में एक बार फिर से फेरबदल हो तो बृजेन्द्र सिंह का नाम आ जाए. पर यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या बीजेपी हरियाणा के जाट समाज को लुभाने का प्रयास करेगी, और क्या बृजेन्द्र सिंह को मंत्री बनाने से हरियाणा के जाट, जिन्हें बीजेपी विरोधी माना जाता है, खुश हो जायेंगे? पर इसके लिए अभी कम से कम दो साल तक इंतज़ार करना होगा. चौधरी बीरेन्द्र सिंह का किस्सा बीजेपी के अन्य तथाकथित दिग्गजों के लिए, खास कर उनके लिए जो दूसरी पार्टियों से बीजेपी में शामिल होते हैं, एक चेतावनी है कि बीजेपी में कुछ ज्यादा की चाहत रखना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है, खासकर मोदी के ज़माने में क्योंकि नरेन्द्र मोदी पर दबाव डालने के प्रयास का प्रतिकूल परिणाम होता है.
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