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हिंसा और आंतकवाद मानसिक विकृति और दिवालियापन

हिंसा और आंतकवाद मानसिक विकृति और दिवालियापन।
(हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं)

 

संजीव ठाकुर, स्तंभकार, चिंतक, लेखक, रायपुर छत्तीसगढ़,

By- संजीव ठाकुर, स्तंभकार, चिंतक, लेखक, रायपुर छत्तीसगढ़,

 

 

मानसिक विकृति के शिकार कुछ बंदूकधारियों द्वारा निरिह लोगों की हत्या कर अपना मकसद साध लेना ही आतंकवाद की श्रेणी में नहीं आता है,बल्कि शक्ति संपन्न राष्ट्रों द्वारा अपनी विस्तार वादी सामंती अवधारणा को पूरा करने के लिए छोटे देशों पर हमला करना भी आतंकवाद ही है l

 

इसराइल-हमास, रूस-यूक्रेन युद्ध इसका ताजा उदाहरण है, अमेरिका की दादागिरी, चीन का पागलपन, उत्तर कोरिया की सनक इन सबके विभस्त उदाहरण है जो अपनी व्यवसायिक ,सामरिक और मानसिक सनक को पूरा करने के लिए किसी भी देश को नेस्तनाबूद कर नागरिकों पर कहर ढाकर उन्हें मौत के घाट उतार देते हैंl यह सब अंतर्राष्ट्रीय सामूहिक बलात आतंकवाद ही हैंl भारत एक सशक्त और बलशाली देश होने के बावजूद शांति की नीति को अपनाए हुए है और वैश्विक शांति का संदेश भी देने का प्रयास कर रहा है ऐसे देशों को साधुवाद देना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महाबली राष्ट्रों की विस्तार वादी तथा सामंती गतिविधियों की सार्वजनिक निंदा भी की जानी चाहिएl

 

आतंकवाद एक मानसिक विकृति की विचारधारा है, जिसके द्वारा हिंसक कार्यों और गतिविधियों से जनमानस अशांति और भय की स्थापना करके अपने लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करना होता है। जिससे किसी भी क्षेत्र में आधिपत्य का अधिकार प्राप्त करने के लिए हिंसा और आतंक का सहारा लेकर जनमानस में अशांति का वातावरण निर्मित करने अपने मंसूबे पूरे कर आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक विध्वंस का तांडव मचाना होता है।

 

 

कुछ व्यक्तियों के समूह द्वारा संचालित मानव विरोधी गतिविधियां ही हैं जो कि समाज के विरुद्ध लूट, अपहरण, बम विस्फोट,हत्या जैसे जघन्य अपराधों को जन्म देती है। आतंकवाद मूलतः धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवेश लिए हुए होता है। भारत में आतंकवाद धार्मिक और राजनीतिक ज्यादा परिलक्षित हुआ है। भारत में कश्मीर, लद्दाख, असम मैं विभिन्न अलगाववादी समूह द्वारा हिंसक अपराधिक कृत्य कर लोगों को भयभीत तथा पलायन करने पर मजबूर करने का कृत्य राजनीतिक आतंकवाद ही है।

 

अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा ,जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठन धार्मिक कट्टरता की भावना से अपराध को अंजाम देते हैं। देश में नक्सलवाद ने छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड ,बिहार और पश्चिम बंगाल में अपना मौत का परचम फेहरा के रखा है। नक्सलवाद मूलतः सामाजिक क्रांतिकारी समूह द्वारा सरकार के विरोध में आमजन तथा आदिवासियों के मध्य अपनी समानांतर सरकार चलाने हेतु हिंसक घटनाएं की हैं।

 

यह आतंकवादी ग्रुप हिंसा के द्वारा अलग अलग तरीके से आतंकवाद फैलाने का प्रयास करते हैं ,यह ज्यादातर भीड़भाड़ वाले इलाकों में जैसे रेलवे स्टेशन बस स्टैंड रेल रेल पटरियों वायुयानो का अपहरण निर्दोष लोगों को बंदी बनाना बैंक में डकैतियां कर समाज में अराजकता तथा वैमनस्यता फैलाने का काम करते हैं।

 

भारत में नक्सलवाद तो मूल रूप से पश्चिम बंगाल के नक्सल वाली क्षेत्र से पनपा है, जो पूरे भारत में धीरे-धीरे फैल कर हिंसक रूप अपनाए हुए हैं। आतंकवाद केवल भारत में न होकर उसका साम्राज्य वैश्विक स्तर पर भी दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से फैला हुआ है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद ने अनेक घटनाओं को जन्म देकर विश्व शांति सद्भावना की मूल कल्पना को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया है।

 

दुनिया के प्रत्येक देश में आतंकवाद किसी न किसी रूप में आज मौजूद है। आतंकवाद कहीं रंगभेद, कहीं भाषा विभेद, कहीं राजनीतिक विचारधाराओं में विरोध और कहीं रंगभेद के कारण ,नस्ली समस्या आतंकवाद का कारण बनी है। यह समस्याएं हथियारों से सुलझाने के प्रयास में अत्यंत हिंसक बन गई हैं।

 

आतंकवाद को वृहद रूप देने में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ने भी बड़ा साथ दिया है, आतंकवादियों, नक्सलवादियों और नस्ल वादियों के लिए रसायनिक, नाभिकीय, जैविक मानव बम जैसे आधुनिक हथियार उपलब्ध होने से यह आतंकवादी गतिविधियां और भी खतरनाक हो गई है।

 

इसके अलावा मीडिया में इंटरनेट उपलब्धता से यह सारी सरकारी गतिविधियों की जानकारी प्राप्त हो जाती है इससे आतंकवादी और ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। विश्व में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर 11 सितंबर 2001 आतंकवादी हमला मानव इतिहास की सबसे क्रूर तम हमला माना जाता है।

 

पाकिस्तान के पेशावर जिले में आर्मी स्कूल में 150 मासूम बच्चों की निर्मम हत्या भी एक क्रूर आतंकवादी घटना हैl भारत में 1993 में मार्च में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट इसी तरह दिसंबर 2001 में संसद भवन पर हमलावाराणसी बम विस्फोट, अहमदाबाद में बम विस्फोट, 2008 में मुंबई ताज होटल पर हमला,2016 में पठानकोट एयरबेस हमला, 2017 में अमरनाथ तीर्थयात्रियों हमला, 2019 में पुलवामा हमला आतंकवादी घटनाएं हैं जिससे मानवीय संवेदनाएं, शांति स्थापना की मूल धारणा की धज्जियां उड़ जाती हैl

 

भारत में तो नक्सलवाद भी आतंकवाद का एक वृहद रूप ले चुका हैl आतंकवाद का सबसे भयानक रूप यह है की कोई भी देश यह नहीं जानता कि आतंकवाद का अगला निशाना कौन सा देश और कौन सी इमारत, रेलवे स्टेशन, वायुयान और कौन सा धार्मिक स्थल होगाl वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ असुरक्षा की भावना पूरी तरह व्याप्त हो चुकी हैl

 

आतंकवाद का सबसे विस्तृत और भयानक रूप अफगानिस्तान में सरकार का तख्तापलट का ही हैl वहां तालिबानी आतंकवादियों द्वारा सरकार को गिरा कर अफगानिस्तान देश पर जाकर वहां शासन स्थापित कर लिया था, और पूरी दुनिया तमाशबीन बनी रही। रूस यूक्रेन युद्ध मैं भी लाखों लोगों की आक्रमण कर हिंसक हत्या तानाशाही तथा मानसिक आतंकवाद का ही एक भयानक रूप है।

 

पूरे विश्व में आतंकवाद के खिलाफ भारत सहित अनेक कानून बनाए गए एवं उन पर अमल भी किया जा रहा है। पर आतंकवाद को समूल नष्ट करने के लिए आतंकवादी विचारधारा को ही समूल रूप से नष्ट करना होगा, क्योंकि आतंकवाद कोई तात्कालिक कारणों से पैदा नहीं होता,यह एक घिनौनी, हिंसक आतंक पैदा करने वाली विचारधारा है।

 

अशांति की इस विचारधारा में जन समुदाय में रोश तथा खौफ पैदा कर दिया है और यह मानवता के लिए अभिशाप की तरह व्याप्त हो गया है। जिससे विश्वव्यापी वैश्विक शांति की अवधारणा को नष्ट कर दिया है।

 

वैसे तो पूरे विश्व में आतंकवाद के खिलाफ प्रयास किए जा रहे हैं पर हर देश के हर नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि इस विचारधारा और इनकी गतिविधियों पर नजर रख इसे समूल नष्ट करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
– ललित गर्ग-

नये बन रहे समाज एवं पारिवारिक माहौल में अब महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी हिंसा के शिकार हो रहे हैं, इसका ताजा उदाहरण है पुणे में रहने वाले एक संभ्रांत परिवार की महिला के घूंसे ने शनिवार को पुरुष की जान ले लेने का मामला।

मामला घरेलू विवाद का था, लेकिन हिंसा के चरम पर पहुंचा और एक पत्नी के द्वारा पति की जान ले ली गयी। महिला के घूंसे ने परिवार एवं समाज में पनप रही नयी तरह की हिंसा को उजागर किया है। इस घटना ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। अब घरेलू हिंसा में पुरुष भी महिलाओं के शिकार होने लगे हैं।

 

लेकिन विडम्बना यह है कि पुरुषों के लिये महिलाओं की तरह घरेलू हिंसा के खिलाफ कोई कानून नहीं हैं। घरेलू हिंसा कानून की धारा 2(अ) के तहत परिवार के किसी पुरुष सदस्य, विशेष रूप से पति को कोई संरक्षण नहीं है। मद्रास उच्च न्यायालय यह मान चुका है कि पति के पास पत्नी के खिलाफ शिकायत करने के लिए घरेलू हिंसा जैसा कोई कानून नहीं है।

 

निश्चित ही घर की चार दिवारी में महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी हिंसा, उत्पीड़न एवं उपेक्षा के शिकार होते हैं। बढ़ती इन घटनाओं के मामले निश्चित तौर पर अदालत के समक्ष फैसले के लिए आएंगे। क्या न्याय की चौखट पर पुरुषों को समुचित न्याय मिल पायेगा? क्योंकि अभी तक ऐसे कानूनों में महिलाओं का ही पक्ष उजागर होता रहा है।

 

जब पुरुष पर होने वाले अत्याचार के लिये कानून में संरक्षण की जगह नहीं है, तो हिंसा के इन सभी स्तरों के पार होने पर उचित न्याय के लिये भारतीय दंड विधान में उचित कानूनी प्रावधानों एवं पुरुष संरक्षण की अपेक्षा महसूस की जायेगी। इसलिये अब ऐसे पूरे मामले पर घरेलू हिंसा के प्रकारों पर गंभीर चर्चा आवश्यक हो गई है।

 

भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ है जिससे इस बात का पता लग सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है लेकिन कुछ गैर सरकारी संस्थान इस दिशा में जरूर काम कर रहे हैं।

 

‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन‘ और ‘माई नेशन‘ नाम की गैर सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में नब्बे फीसद से ज्यादा पति तीन साल के गृहस्थ जीवन में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। इस रिपोर्ट में यह भी बात सामने आयी है पुरुषों ने जब इस तरह की शिकायतें पुलिस में या फिर किसी अन्य प्लेटफॉर्म पर करनी चाही तो लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया और शिकायत करने वाले पुरुषों को हंसी का पात्र बना दिया गया।

 

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के बीते साल सामने आए आंकड़े कहते हैं कि 18 से 49 साल की उम्र की 10 फीसदी महिलाएं कभी-न-कभी अपने पति पर हाथ उठाती हैं, वो भी तब जब उनके पति ने उन पर कोई हिंसा नहीं की। इन अत्याचारों एवं हिंसा को लेकर भादंवि में आपराधिक मामलों में कार्रवाई संभव है, इसके अलावा हिंदू मैरिज एक्ट से मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन इससे पुरुषों को बहुत अधिक कानूनी संरक्षण नहीं मिल पाता है।

 

वर्तमान दौर में काफी मामलों में परिवारों का बिखरना घरेलू हिंसा का परिणाम माना जाता है। घर की आर्थिक जरूरतें, स्वच्छंद जीवनशैली एवं भौतिकतावादी सोच के कारण पति-पत्नी के बीच तनाव अनेक शक्ल में उभरने लगा है जो हिंसा तक पहुंच जाता है। संभव है कि पुणे की घटना भी ऐसे ही किसी छोटे मामले का क्रूर एवं हिंसक निष्पत्ति हो।

 

छोटे मामले तो हर घर की कहानी बनने लगे हैं, लेकिन ऐसे मामले तब ही प्रकाश में आते हैं, जब कोई बड़ी घटना-दुर्घटना होती है। ऐसे में संयम, समझ, विवेक, समझौता और सीमाओं की समाज में चर्चा और आवश्यक हो चली है, आकांक्षा-महत्वाकांक्षा अनंत हो सकती हैं, किंतु उन पर नियंत्रण ही शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

 

दुर्भाग्य से यह समाज में गौण हो चला है और उसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं, जिस पर गहन चिंतन-मनन आवश्यक है। यह हिंसा का दौर परिवार की अवधारणा को न केवल बदल रहा है, बल्कि परिवाररूपी संस्था के अस्तित्व को ही नष्ट करने पर तुला है।

 

हरियाणा में हिसार के रहने वाले एक शख्स का वजन शादी के बाद कथित तौर पर पत्नी के अत्याचार की वजह से 21 किलो घट गया। इसी के आधार पर उसे हाईकोर्ट से तलाक की मंजूरी मिल गई।

 

ऐसे मामले बढ़े हैं। बहुत से लोगों के लिए ये सोचना भी अविश्वसनीय है कि पुरुषों के साथ हिंसा होती है। वजह ये है कि पुरुषों को हमेशा से मजबूत और ताकतवर माना जाता रहा। साल 2019 में ‘इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन’ की रिसर्च के अनुसार हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्रों में 21-49 वर्ष की उम्र के एक हजार विवाहित पुरुषों में से 52.4 फीसद ने जेंडर आधारित हिंसा का अनुभव किया।

 

इन आंकड़ों को देख लगता है कि जब संविधान लिंग, जाति और धर्म के आधार पर किसी तरह का फर्क स्वीकार नहीं करता, तो क्यों घरेलू हिंसा से सुरक्षा अधिनियम पुरुष को सुरक्षा नहीं देता? जबकि विकसित देशों में जेंडरलेस कानून वहां के पुरुषों को न केवल महिलाओं की तरह घरेलू हिंसा से प्रोटेक्शन देता है, बल्कि इस बात को भी स्वीकार करता है कि पुरुष भी प्रताड़ित होते हैं।

 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, देश में पुरुषों की आत्महत्या की दर महिलाओं की तुलना में दो गुने से भी ज्यादा है। इसके पीछे तमाम कारणों में पुरुषों का घरेलू हिंसा का शिकार होना भी बताया जाता है, जिसकी शिकायत वो किसी फोरम पर कर भी नहीं पाते हैं।

 

साल 2020 में लॉकडाउन के दौरान सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन की ओर से टेलीफोनिक सर्वे किया गया। इस दौरान इंदौर की पौरुष संस्था और राष्ट्रीय पुरुष आयोग समन्वय समिति दिल्ली को भी पुरुष हेल्पलाइन पर कई शिकायतें मिली।

 

इसमें पाया गया कि लॉकडाउन के दिनों में पत्नियों द्वारा अपने पतियों को प्रताड़ित करने के मामलों में 36 फीसदी की बढ़ोतरी हुई क्योंकि कई पुरुष काम छोड़कर घर पर बैठ गए, या फिर ऑफिस बंद होने से वर्क फ्रॉम होम करने लगे। ऐसे में वे पत्नियों के रवैये से डिप्रेशन में रहने लगे।

 

इन हालातों में दुुनिया में अब महिला दिवस की भांति पुरुष दिवस प्रभावी रूप में बनाये जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। अब पुरुष भी अपने शोषण एवं उत्पीड़ित होने की बात उठा रहे हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुषों पर अधिक उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय की घटनाएं पनपने की भी बात की जा रही है।

 

समाज रूपी गाड़ी को सही से चलाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि महिलाएं पुरुषों का विरोधी होने के बजाय सहयोगी बने। कुछ वर्ष पूर्व भारत में सक्रिय अखिल भारतीय पुरुष एशोसिएशन ने भारत सरकार से एक खास मांग की कि महिला विकास मंत्रालय की भांति पुरुष विकास मंत्रालय का भी गठन किया जाये।

 

इसी तरह यूपी में भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसदों ने यह मांग उठाई थी कि राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय पुरुष आयोग जैसी भी एक संवैधानिक संस्था बननी चाहिए। इन सांसदों ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा था। पत्र लिखने वाले एक सांसद हरिनारायण राजभर ने उस वक्त यह दावा किया था कि पत्नी प्रताड़ित कई पुरुष जेलों में बंद हैं,

 

लेकिन कानून के एकतरफा रुख और समाज में हंसी के डर से वे खुद के ऊपर होने वाले घरेलू अत्याचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहे हैं। प्रश्न है कि आखिर पुरुष इस तरह की अपेक्षाएं क्यों महसूस कर रहे हैं? लगता है पुरुष अब अपने ऊपर आघातों एवं उपेक्षाओं से निजात चाहता है, तरह-तरह के कानूनों ने उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाया है।

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