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बंगाल के चुनाव परिणाम ने भाजपा को ‘एक देश, एक संस्कृति’ की सीमा बता दी है

बंगाल के चुनाव परिणाम ने भाजपा को ‘एक देश, एक संस्कृति’ की सीमा बता दी है

BY सिद्धार्थ भाटिया
बंगालियों को अपनी संस्कृति पर आसाधारण ढंग से गर्व है, यहां तक कि इससे श्रेष्ठताबोध से ग्रसित भी कहा जा सकता है. दूसरों को भी अपनी क्षेत्रीय संस्कृतियों पर गर्व होता है, लेकिन बंगाली, गैर-बंगाली माहौल में इसका प्रदर्शन करने से नहीं चूकते हैं.

मसलन, अन्य भाषा-भाषियों के बीच वे बंगाली में बात करते हैं या हर चर्चा में वे स्थानीय महापुरुषों का जिक्र ले आते हैं. दूसरों को इसमें एक तंगनजरी दिख सकती है, लेकिन बंगालियों के लिए ऐसा करना सबसे सामान्य बात है.

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वे मातृभूमि से बाहर रहनेवालों को प्रोबाशी कहकर पुकारते हैं और उन्हें उतना खरा नहीं माना जाता है और उन्हें दूसरी संस्कृतियों को अपनाने और अपनी संस्कृति के गाढ़े रंग को हल्का कर देने के कारण थोड़ी-सी हीन दृष्टि से देखा जाता है.

ऐसे अद्वितीयता की संस्कृति में भारतीय जनता पार्टी द्वारा हिंदुत्व के एजेंडा को आगे बढ़ाकर और एक बंगाली होने के मायने को समझने की कोशिश किए बगैर, बंगाल फतह करने की कोशिश करना अगर मूर्खतापूर्ण नहीं था, तो बेहद महत्वाकांक्षी जरूर था.

सबके लिए एक ही नाप के कुर्ते की भाजपा की रणनीति ‘बंगालीपन’ के सार को पूरी तरह से समझ नहीं पाई, जो हिंदुओं के वर्चस्व वाले एक देश के हिंदुत्व से काफी अलग है.

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बिल्कुल बुनियादी स्तर पर बात करें, तो बंगाली राम की उस तरह से पूजा नहीं करते हैं, जिस तरह से भाजपा कहती है- वे जय श्री राम नहीं बोलते हैं. वे शाकाहारी नहीं हैं और मनुस्मृति के सिद्धांतों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
और वे निश्चित तौर पर हिंदी नहीं बोलते हैं और न ही एक बंगाली द्वारा इस भाषा को बोलने की कोशिश करने को लेकर बनाए गए अनगिनत चुटकुलों की ही उन्हें कोई परवाह है. दरअसल हिंदी पट्टी से आने वाले लोगों के प्रति वहां एक स्तर के तिरस्कार का भाव है.

बंगाली, खासतौर पर कलकत्ता वाले अपने कॉस्मोपॉलिटन और अपने उपनिवेशी संबंध को लेकर गर्व महसूस करते हैं- मुंबई के उलट, जहां सड़कों को नया नाम दिया गया है, कोलकाता में अंग्रेजों द्वारा दिए गए सड़कों के नाम अभी भी वहां देखे जा सकते हैं और जब कोई नया नाम दिया जाता है, यह किसी अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक या राजनीतिक व्यक्ति पर होता है. (मसलन, कोलकाता में शेक्सपियर सरणी या हो ची मिन्ह स्ट्रीट)

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एक भाजपा सरकार इनकी ओर संदेह की दृष्टि से देखती. यहां बीफ सहज रूप से उपलब्ध है और पार्क स्ट्रीट पर बार की कोई कमी नहीं है और अंग्रेजों के जमाने के क्लबों ने गर्व के साथ पुरानी औपनिवेशिक परंपराओं को बनाए रखा है.

आत्मविश्वास से भरी हुई नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी पूरी तैयारी के साथ राज्य में आई थी- पैसे, बाहुबल और केंद्रीय एजेंसियों और राष्ट्रीय मीडिया की शक्ति. जल्दी ही तृणमूल कांग्रेस से विधायकों के बाहर निकलने का सिलसिला शुरू हो गया और मीडिया ने इसे एकतरफा लड़ाई घोषित करने और ममता बनर्जी की हार की भविष्यवाणी करने में देरी नहीं की.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने अनगिनत रैलियां कीं और अमित शाह ने ऐलान कर दिया कि भाजपा 200 से ज्यादा सीटें जीतने जा रही है.

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मोदी ने दाढ़ी बढ़ाकर अपना हुलिया रबींद्रनाथ टैगोर जैसा बना लिया, लेकिन अपने मानवतावाद और राष्ट्रवाद के विरोध के लिए पहचान रखने वाले महान कवि के विपरीत मोदी अपने संदेश को बदलने में कामयाब नहीं हुए और सस्ते तरीके से नाम लेकर पुकारने के निचले स्तर तक गिर गये, जब उन्होंने बनर्जी को दीदी..ओ दीदी.. कहकर संबोधित किया.

निस्संदेह इसने महिला वोटरों को नाराज और एकजुट करने का काम किया- बनर्जी का प्रशासन भ्रष्टाचार से भरा हो सकता है, लेकिन निजी स्तर पर लोग उनसे प्रेम करते हैं और उनकी साधारण जीवनशैनी की लोग काफी तारीफ करते हैं. इस बात को भूल जाइए कि अपनी अकड़ में रहने वाला भद्रलोक उनके बारे में क्या सोचता है.

लेकिन सबसे बढ़कर मोदी और शाह को ‘बोहिरगर्तो’ (बाहरी) के तौर पर देखा गया, जो बंगाल की अपनी खास तहजीब को न समझते हैं, न उसकी कद्र करते हैं. उनकी मुस्लिम विरोधी धुव्रीकरण की रणनीति एक ऐसे राज्य में कामयाब नहीं हुई जहां लंबे समय से कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ है.
न ही मोदी के पास किसी भी मोर्चे पर दिखाने के लिए कोई सफलता थी- अर्थव्यवस्था से लेकर महामारी प्रबंधन तक. उनके पास स्थानीय लोगों की जरूरत के हिसाब से देने लायक क्या था- खोखले नारों से परे ‘अशोल परिवर्तन’ आखिर क्या था?

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मोदी-शाह जोड़ी को दूसरी जगहों पर भी मुंह की खानी पड़ी है. केरल में तो यह कभी भी मुकाबले में नहीं थी, महाराष्ट्र में, 2014 में भी यह शिवसेना की मदद से ही सरकार बनाने में कामयाब हो सकी, जो खुद भी सत्ता में आने के लिए बेकरार थी. यह गठबंधन 2019 में टूट गया.

लेकिन राजनीतिक रणनीतियों और समझौतों के परे, महाराष्ट्र के बड़े हिस्से में सांस्कृतिक तौर पर भाजपा से लोग नफरत करते हैं और इसे हमेशा से ‘भट्ट जी और सेठ जी’ (ब्राह्मण एवं बनिया) की पार्टी कहा जाता रहा है. राज्य में ब्राह्मणों को गहरे संदेश के साथ देखा जाता है, जहां इतिहास इस बात का सबूत देता है कि उन्होंने दगाबाजी के सहारे शासन किया.

गांधी की हत्या के बाद बंबई और दूसरे शहरों के ब्राह्मण इलाकों को क्रोधित भीड़ ने अपना निशाना बनाया. राजनीतिक तौर पर परिदृश्य पर ब्राह्मण विरोधी मराठों का दबदबा रहा है, हालांकि वे उनसे कम जातिवादी नहीं हैं.मुंबई में मराठी भाषी प्रभावशाली गुजरातियों और जैनियों द्वारा उनके स्वामित्व और दबदबे वाले भवनों में शाकाहारवाद थोपने का विरोध करते हैं. हालांकि, 2014 में मोदी ने मराठी मानूस के भी एक बड़े तबके को प्रभावित किया, लेकिन हकीकत में उनके बारे में लोगों को जानकारी नहीं थी और अर्थव्यवस्था और नौकरियों पर उनकी बातों को लोगों ने सहज स्वीकार कर लिया था. लेकिन 5 साल बाद वह आकर्षण समाप्त हो गया.

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लेकिन, फिर भी भाजपा अपने हिंदुत्व के जरिये पूरे भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के अपने एकसूत्रीय एजेंडा को पूरा करने में एकनिष्ठ तरीके से लगी हुई है. और इसमें सिर्फ मुसलमानों को ही पूरी तरह से हाशिये पर धकेलना शामिल नहीं है, बल्कि इसमें अपनी विचारधारा के अनुसार नए कानून और सामाजिक संरचना थोपना भी शामिल है.

भाजपा और इसकी पितृसंस्था आरएसएस को वास्तव में इस बात का यकीन है कि 80 फीसदी से ज्यादा हिंदू आबादी वाले भारत को हिंदू राष्ट्र में बदला जा सकता है, भले ही भारत के भीतर संस्कृतियों और परंपराओं में काफी विविधता है, जिस पर स्थानीय लोग गर्व करते हैं.

कई हिंदू राजनीतिक हिंदुत्व में कोई रुचि नहीं रखते हैं- अगर ऐसा होता तो भाजपा को 2019 में मिले 37 फीसदी मतों से कहीं ज्यादा मत मिले होते. ज्यादातर हिंदू सेकुलर हैं और अनिवार्य तौर पर धर्म के आधार पर वोटिंग नहीं करते हैं.

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मोदी की सफलता इस बात में रही है कि उन्होंने उन सभी लोगों को जोड़ा जिन्हें लगा था कि वे विकास और सक्षम प्रशासन को लेकर प्रतिबद्ध हैं. अब जबकि अर्थव्यवस्था की हालत पस्त है और विकराल रूप धारण कर चुकी महामारी का कुप्रबंधन किया गया है, उनमें से कई लोगों का छिटकना तय है.

मोदी-शाह की जोड़ी या योगी आदित्यनाथ जैसे दूसरों लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वे कोई दूसरा रास्ता नहीं जानते हैं. मोदी ने अस्पतालों में मची चीख-पुकार को नजरअंदाज किया और अपना सारा ध्यान सिर्फ बंगाल चुनावों पर लगाए रखा और अब वे 20,000 करोड़ के अनुमानित खर्च से सेंट्रल विस्टा को नष्ट करने की व्यर्थ दिखावटी परियोजना पर काम कर रहे हैं. यह शुद्ध अक्खड़पन और कोविड-19 के शिकारों की चीत्कारों के प्रति ठंडी उदासीनता है.

किसी न किसी बिंदु पर यह सब बंद होगा. चुनाव कई कारणों से जीते या हारे जाते हैं. लेकिन एक बहरा प्रशासन जो किसी राज्य की संस्कृति को समझने या कद्र करने के लिए समय निकाले बगैर उसमें जबरदस्ती घुस जाता है, और शासन करने के अपने धर्म की उपेक्षा करता है, उसका आज न कल कमजोर पड़ जाना तय है.

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कई सालों के दौरान मोदी-शाह की जोड़ी ने जो चुनाव जीतने की मशीन होने की छवि बनाई थी, वह अतीत में मिली कई हारों के कारण पहले ही कमजोर पड़ रही थी, मगर अब इसमें जो चोट लगी है, वह दुरुस्त किए जाने के लायक नहीं है.

ममता बनर्जी के सामने वे नौसिखिये जैसे बनकर रह गए. वे एक ऐसे राज्य और उनके लोगों के बीच लड़खड़ाकर गिर गए जो किसी हिंदीभाषी के मुंह से यह सुनना पसंद नहीं करते हैं कि उनके राज्य को वे कैसे बदलने की योजना रखते हैं.

बंगालियों ने जवाब दिया है कि उनकी समस्याएं हैं मगर वे अपनी समस्याएं खुद सुलझाएंगे. मोदी, शाह को इससे एक सही सबक मिलना चाहिए.

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