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भूखा मरता भारत , 75 फीसदी जनता भूख से बेहाल

ऐ मुल्क तेरी गरीबी पर रोना आया, 7 दशक के बाद भी 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की नौबत
भूखा मरता भारत , 75 फीसदी जनता भूख से बेहाल

     संयम श्रीवास्तव
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि देश में सतत गरीबी हटाने की योजनाएं चल रही हैं पर गरीबी कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही है. अब इसके लिए किसको दोष दिया जाए?भारत सरकार ने नवंबर महीने तक देश के लगभग 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन देने का ऐलान किया हुआ है. 2020 में कोरोना की पहली लहर के समय में ही यह ऐलान हो गया था. यानि पिछले साल से ही सरकार देश के गरीबों को मुफ्त में भोजन उपलब्ध करा रही है. हालांकि कितने गरीबों तक यह सुविधा पहुंच रही है यह अलग शोध का विषय है क्योंकि अभी भी भुखमरी की खबरें आ रही हैं. पिछले महीने अलीगढ़ में एक परिवार भूख से मृत्यु के करीब पहुंच गया था. फिलहाल सरकार ने गरीबों के लिए इतनी बड़ी योजना लेकर आई है तो उसका स्वागत होना चाहिए. पर यह भी पता लगाना चाहिए कि देश की आजादी के 73 साल बाद भी ऐसी नौबत क्यों आई की सरकार को देश के 80 करोड़ लोगों के लिए 2 वक्त की रोटी का जुगाड़ करना पड़ रहा है. क्या सात दशक में भी देश की सरकारें यहां की जनता को इतना आत्मनिर्भर नहीं बना पाईं की वह खुद अपने बलबूते पर अपना पेट पाल सकें.
यह सही है कि कोरोना काल में देश ही नहीं विदेशों में भी कम आय वालों का बहुत बुरा हाल हुआ है. पर देश की 80 करोड़ जनता का मतलब होता है देश की 75 फीसदी जनता भूख से बेहाल है. यह भी सही है कि भारत प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में अपने पड़ोसियों पाकिस्तान और नेपाल आदि देशों से पहले से ही बहुत पीछे रहा है. पर उदारीकरण के बाद इसमें बहुत बदलाव आया था. ग्लोबल मल्टीडाइमेंसनल पावर्टी इंडेक्स 2019 के अनुसार 2006 से 2016 के बीच पावर्टी एलिवेशन की गति इतनी तेज रही है कि 27 करोड़ 10 लाख के करीब लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाया गया. हालांकि भारत में 2011 के बाद गरीबी का पता लगाने वाला कोई प्रॉपर असेसमेंट नहीं हुआ है पर सरकार 80 करोड़ लोगों के लिए 2 वक्त की रोटी की व्यवस्था करके खुद स्वीकार कर रही है कि देश भुखमरी की जंजाल में है.
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(पिछले महीने अलीगढ़ में एक परिवार भूख से मृत्यु के करीब पहुंच गया था.)
भूखी है देश की जनता
बीते दिनों संसद में एक कमाल देखने को मिला, जहां देश के कृषि और किसान कल्याण राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला भारतीय परम्पराओं पर एक कहानी सुना रहे थे. उन्होंने कहा, ‘हमारे गांवों में जब कोई फीमेल डॉग मां बनती है तो बच्चों के जन्म के बाद उसे शीरा खिलाया जाता है. यह हमारी भारतीय परम्परा है. तो बताइए जिस देश में ऐसा होता हो, वहां हम किसी बाहरी के कहने पर कैसे मान लें कि हमारे बच्चे भूखे हैं.’ दरअसल ये कहानी नहीं थी, ये जवाब था आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह के उस सवाल का जो उन्होंने राज्यसभा में पूछा था.
संजय सिंह ने राज्यसभा में सवाल उठाया था, ‘जब भारत दुनिया में फूड प्रोडक्शन में टॉप के 10 देशों में आता है, फिर भी देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में कैसे पिछड़ता जा रहा है. हम अपने ही लोगों को भोजन क्यों नहीं दे पा रहे हैं?’ संजय सिंह का सवाल जायज़ था, क्योंकि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 में भारत का स्कोर 27.2 है. इतना कम स्कोर होने का मतलब होता है कि देश की स्थिति गंभीर है. दुनिया भर के 107 देशों में जब सर्वेक्षण हुए तो भारत इसमें 94वें नंबर पर था. सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि इस सर्वेक्षण में पाकिस्तान (88), नेपाल (73) और बांग्लादेश (75) भी हमसे ऊपर है. चीन जिससे हम मुकाबला करने को हमेशा तैयार रहते हैं, वह दुनिया के सबसे संपन्न देशों में पहले नंबर पर है.
हाल ही में आई यूनाइटेड नेशंस की ‘UN SDG Ranking’ में भी भारत, भूटान, नेपाल और श्रीलंका जैसे अपने पड़ोसी देशों से पीछे हो गया है. दरअसल यूनाइटेड नेशंस के 193 देशों ने साल 2015 से 2030 एजेंडा के तहत 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स तय किए थे, इसी के हिसाब से सभी देशों की रैंकिंग तय होती है. पिछले साल भारत की रैंकिंग 115 थी जो इस साल गिरकर 117 पर पहुंच गई है. भारत की रैंकिंग इसलिए गिरी क्योंकी भारत का प्रदर्शन 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में खराब रहा था. इसमें से मुख्य थे, भुखमरी, खाद्य सुरक्षा, लैंगिक समानता और देश में औद्योगीकरण को बढ़ावा देने में नाकामी.
सरकार का सर्वे खुद स्वीकार करता है कुपोषण की बात
कृषि राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने कहा था ‘कुछ बाहरी लोग’ इन बाहरी लोगों से उनका मतलब था, यूएन और तमाम विदेशी रिपोर्ट्स जिसमें दावा किया गया है कि भारत भुखमरी का शिकार है. लेकिन शायद कृषि राज्यमंत्री महोदय अपनी ही सरकार का रिपोर्ट पढ़ना भूल गए. पिछले साल हुए ‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ की रिपोर्ट बताती है कि देश में कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. महिलाएं एनीमिया (यानि खून की कमी) की शिकायत से जूझ रही हैं. इस एनीमिया की वजह से बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं. 22 राज्यों में किए गए इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कुपोषण की वजह से 13 राज्यों के 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की लंबाई सामान्य से कम है.
वहीं 12 राज्यों में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में उनकी लंबाई के हिसाब से वजन कम है. बीबीसी में छपे एक लेख के अनुसार, उम्र की तुलना में कम लंबाई वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा मेघालय में है उसके बाद दूसरे नंबर पर बिहार है और तीसरे नंबर पर गुजरात. यानि जिन प्रदेशों को हम देश के सबसे विकसित प्रदेशों में गिनते हैं जैसे कि गुजरात, वहां भी बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं.
2015 के बाद भूख से अब तक 100 लोगों की मौत?
पिछले साल ही ‘हंगर-वॉच’ की एक रिपोर्ट आई थी. देश के 11 राज्यों में सर्वेक्षण के बाद ‘राइड टू फूड’ कैंपेन ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें दावा किया गया कि 2015 के बाद से अब तक यानि (2020) तक भूख से कम से कम 100 लोगों की मौत हुई है. वहीं इसी सर्वे में दावा किया गया था कि कोरोना महामारी की वजह से देश में लगे लॉकडाउन के समय में कई परिवारों को कई रात भूखे रह कर गुजारनी पड़ी थी. ऐसे लोगों की संख्या लगभग 27 फीसदी थी. वहीं इसी सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि इस दौरान लगभग 71 फीसदी लोगों के भोजन में पौष्टिकता की भी कमी देखी गई थी. यहां तक की 45 फीसदी लोगों को अपने खाने के इंतजाम के लिए कर्ज तक लेना पड़ा. कर्ज लेने वाले लोगों में दलितों की संख्या सामान्य जातियों से 23 फीसदी अधिक थी.
कोरोना महामारी ने बढ़ाई गरीबी
कोरोना महामारी ने दुनिया भर में तबाही मचाई. साल 2021 में अगर बिजली और कृषि सेक्टर को छोड़ दिया जाए तो लगभग देश का हर सेक्टर कोरोना से प्रभावित हुआ. इन तमाम सेक्टरों पर पड़े प्रभाव से लाखों लोग बेरोजगार हो गए. CMIE के आंकड़े बताते हैं कि देश में फिलहाल बेरोजगारी दर 11 फीसदी से ज्यादा है. PEW की एक रिपोर्ट कहती है कि महामारी के दौरान दुनिया भर में जो लोग गरीबी के स्तर पर पहुंच गए, इनमें 60 फीसदी लोग भारते के हैं. इसी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इस दौरान देश के मिडिल क्लास लोगों में आने वालों की संख्या में 3.2 करोड़ की गिरावट दर्ज की गई है. वहीं गरीबों की संख्या में 7.5 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है. सोचने वाली बात ये है कि ऐसा तब हुआ जबकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में किसी गरीब परिवार को मिडिल क्लास में आने में लगभग 7 पीढ़ियों का समय लग जाता है.
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