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मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जनसंख्या की नहीं, चुनाव की चिंता

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जनसंख्या की नहीं, चुनाव की चिंता

 

BY कृष्ण प्रताप सिंह

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हमारे देश में ज्यादातर निर्वाचित सरकारें, वे प्रदेशों की हों या केंद्र की, किस तरह चार साल कुंभकर्णी नींद सोतीं, पकड़ी जाने पर अपने जनादेश की मनमानी व्याख्याओं के रास्ते नये उद्वेलन पैदा करतीं, पांचवें साल हडबड़ाकर जागतीं और जनता को दिखाने लायक बनाने के फेर में अपने मुंहों का नाना प्रकार से रंग-रोगन करती हैं. इन दिनों किसी को इसे देखना हो तो उसे उत्तर प्रदेश आना चाहिए.

महामारी के विकट संकट की घड़ी में अकेला छोड़े रखकर नागरिकों के हक हनन, दमन और उपेक्षा के बीच चार साल गुजार देने वाली इस प्रदेश की भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार को अब कुछ ही महीनों बाद मतदाताओं का सामना करना है, तो वह उनकी भावनाओं को सहलाने व दुर्भावनाओं को भुनाने का ऐसा कोई कदम उठा नहीं रख रही, जिससे वे मतदान केंद्र तक जाते-जाते उद्वेलनों के प्रवाह में इतनी दूर बह जायें कि न यह पूछ पायें कि हूजूर, ये कदम इतने ही जरूरी थे तो चार साल पहले ही क्यों नहीं उठा लिए , न यह याद रख पाएं कि पिछले चार सालों में उन पर कैसी बुरी बीती.

इसकी कम से कम दो मिसालें अभी एकदम ताजा हैं. पहली: गत 29 जून को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों राजधानी लखनऊ के ऐशबाग में डॉ. भीमराव आंबेडकर के महत्वाकांक्षी स्मारक व सांस्कृतिक केंद्र का शिलान्यास कराना, जिसमें डॉ. आंबेडकर की 25 फीट ऊंची प्रतिमा, 750 लोगों की क्षमता वाला सभागार, पुस्तकालय, अनुसंधान केंद्र, चित्र गैलरी, संग्रहालय, बहुउद्देश्यीय सम्मेलन केंद्र, कैफेटेरिया, छात्रावास और अन्य सुविधाएं होंगी.

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दूसरी : राज्य विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण कानून का मसौदा बनाना, उस पर जनता की राय मांगना और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा नई जनसंख्या नीति जारी कर ‘हम दो, हमारे दो’ पर जोर देना.

मसौदे में प्रस्तावित कानून लागू हुआ, तो सरकारी योजनाओं, सुविधाओं, प्रोत्साहनों एवं छूटों के लाभ केवल दो बच्चों वाले परिवारों को मिलेंगे. दो से ज्यादा बच्चों के माता-पिता इनके लाभ से तो वंचित होंगे ही, सरकारी नौकरियां भी नहीं पाएंगे, न स्थानीय निकायों के चुनाव ही लड़ सकेंगे.

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मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह कहते हुए प्रस्तावित कानून और नीति को जरूरी बताया है कि बढ़ती हुई आबादी प्रदेश के विकास में बड़ी बाधा बनी हुई है. लेकिन उन्होंने इससे जुड़े कई असुविधाजनक सवालों का जवाब देना गवारा नहीं किया है. मसलन, क्या यह बाधा अभी अचानक आ खड़ी हुई है? अगर नहीं तो इसे लेकर तब उपयुक्त कदम क्यों नहीं उठाए गए, जब उनकी सरकार के पास उसे आगे बढ़ाने का समय था?

जनसंख्या नियंत्रण नीति और कानून की याद अब क्यों आई है, जब फिलहाल प्रदेश सरकार के पास इतना वक्त ही नहीं बचा है कि वह उसे मंजिल तक पहुंचा सके? ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होता कि वह विधानसभा चुनाव तक इसका इरादा टाल देती और नई सरकार को इस बाबत फैसला करने देती?

फिर, जब तक दो से ज्यादा बच्चों की माताओं व पिताओं के संसद व विधानमंडलों के चुनाव लड़ने का रास्ता खुला हुआ है, उन्हें स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने से रोकने से क्या हासिल होगा? प्रस्तावित कानून बना तो किस तिथि से लागू होगा? अगर बनने की तिथि से तो उसका असर लंबे समय की मांग करेगा और पूर्व की किसी तिथि से तो उसका निर्धारण कैसे किया जाएगा?

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क्या डॉ. भीमराव आंबेडकर के स्मारक व सांस्कृतिक केंद्र के शिलान्यास की ही तरह, जिसका निर्माण नई सरकार के कार्यकाल में ही संभव है, जनसंख्या नियंत्रण नीति व कानून के विचार को आगे करने का उद्देश्य भी इस सरकार के खराब कोरोना प्रबंधन, कानून-व्यवस्था व सामाजिक सौहार्द जैसे मोर्चों पर नाकामी, आंतरिक असंतोष से पैदा हुए संकट और दूसरी ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाकर चुनावी लाभ उठाना भर नहीं है?

विरोधी दल अकारण तो नहीं कह रहे कि बढ़ती अलोकप्रियता के कारण उसके पास विधानसभा चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग, सांप्रादायिक ध्रुवीकरण और गुंडई पर उतरने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है?

प्रदेश सरकार या मुख्यमंत्री जनसंख्या के नियंत्रण को लेकर तनिक भी गंभीर हैं तो उनकी ओर से इन सवालों के जवाब आने ही चाहिए. क्योंकि इसके बगैर उनकी जनसंख्या-चिंता सवालों के घेरे से बाहर नहीं ही निकलने वाली. इस कारण और कि उनकी समर्थक व संरक्षक जमातों के निकट जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा, मुद्दे से ज्यादा अल्पसंख्यक विरोधी माहौल बनाने का हथियार बना रहा है.

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उनका दोरंगापन देखिए: एक ओर भाजपा के पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत कहते रहे हैं कि मुसलमानों की तेज जनसंख्या वृद्धि का मुकाबला करने के लिए हिंदुओं को जनसंख्या नियंत्रण का विचार ही त्याग देना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहिए और दूसरी ओर उनके स्वयसंवकों ने यह नैरेटिव भी गढ़ रखा है कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी के कारण संसाधन इतने कम पड़ जा रहे हैं कि बहुसंख्यक समुदायों तक विकास के लाभ नहीं पहुंच पा रहे.

यह वैसे ही है, जैसे दलितों, आदिवासियों एवं अन्य पिछड़ी जातियों पर आरक्षण के जरिये योग्य व प्रतिभाशाली सवर्णों की नौकरियां ‘लूट लेने’ की तोहमत लगा दी जाती है.

दुर्भाग्य से, जानकारों के मुताबिक राज्य विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण कानून का मसौदा भी इस तरह के सामाजिक पूर्वाग्रहों और भ्रांत आर्थिक अवधारणाओं से ही प्रभावित लगता है. फिर भी योगी सरकार चार साल पहले इस मसौदे व नीति के साथ सामने आती तो उसे इसका श्रेय दिया जा सकता था कि जैसे भी संभव हुआ, उसने इस मामले पर राजनीतिक पार्टियों व सरकारों की 1975 से चली आ रही चुप्पी तोड़ने का साहस प्रदर्शित किया. इसलिए कि 1975 में देश पर थोपे गए आपातकाल के दौरान व्यापक तौर पर हुई जबरिया नसबंदी ने जनसंख्या नियंत्रण जैसे जरूरी काम को इतना कलंकित कर दिया कि सरकारों व राजनीतिक दलों ने उस पर मुंह खोलना ही बंद कर डाला.

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लेकिन अब वह इस मसले को चुनाव वर्ष में जिस तरह मंजिल की परवाह किए बिना चुनावी लाभ से जोड़कर आगे बढ़ा रही है, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता.

सच्चाई यह है कि 1975 के अंजाम से डरी सरकारों के जनसंख्या नियंत्रण की ओर से आंखें मूंद लेने के बावजूद देश के दंपति 1975 में ही नहीं अटके पड़े हैं. उनमें जागरूकता आई है और वे खुद अपने बच्चों की संख्या सीमित रखने लगे हैं. जिन दंपतियों के ज्यादा बच्चे हैं, उनकी संख्या वृद्धि का संबंध भी उनके धर्म व संप्रदाय से कम गरीबी, अशिक्षा और परिवार नियोजन के उपायों की गैर-जानकारी से ज्यादा है.

उनके हालात बदले बिना उनकी समस्या का कानूनी इलाज कोढ़ में खाज ही सिद्ध होना है- क्षुद्र राजनीतिक उद्देश्यों के रहते तो और भी. तिस पर बहुसंख्यकों को रिझाने की नीयत ठीक से फूल-फल गई तो यह कानून एक तरह से कल्याणकारी योजनाएं बंद करने का तरीका भी हो सकता है, जिसकी जद में सभी वर्गों व संप्रदायों के गरीब व वंचित लोग आएंगे.

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दूसरे पहलू से देखें, तो हमारे देश-प्रदेश व समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो प्रायः हर सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक समस्या के कानूनी समाधान को उतावले रहा करते हैं. अगर चुनावी लाभ के लिए योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी अपने को उन्हीं की पांत में शामिल कर लिया है तो उसे यह समझना क्योंकर गवारा होने वाला कि कानून हर समस्या का हल नहीं हुआ करता.

जनसंख्या वृद्धि की समस्या भी उन्हीं में से एक है, जिसके समाधान का रास्ता व्यावहारिक उपायों से गुजरकर संसाधनों की कॉरपोरेट लूट रोककर उनकी वृद्धि व सदुपयोग करने तक जाता है- हां, चोरी, रिसाव और भ्रष्टाचार रोकने तक भी.

फिर, जनसंख्या का नियंत्रण हमेशा वरदान भी नहीं हुआ करता. इसकी सबसे बड़ी मिसाल चीन है, जहां कड़ाई से जनसंख्या नियंत्रण के चलते सामाजिक समीकरण बुरी तरह गड़बड़ा गया है. उसे ‘आदर्श’ मानने से पहले समझना जरूरी है कि भारत एक परिवार आधारित जैविक व स्पंदित समाज है, जिसे पश्चिमी देशों या चीन जैसे खांचे में फिट करना लगभग असंभव है.

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लेकिन क्या कीजिएगा, अभी तो यह समझने की अधीरता ही सारी समझों पर भारी है कि इससे कितनी समस्याओं से ध्यान हटेगा और भाजपा को कितना चुनावी लाभ होगा?

जाहिर हैं कि इस नीति व कानून के पीछे जनसंख्या की कम चुनावी लाभ की चिंता ज्यादा है, जिसमें लिप्त महानुभावों को विश्वास है कि कोई अपना हो या पराया और उनकी इस लिप्तता का समर्थन करे या विरोध, उसे लोगों की चेतना पर हावी कराकर उनकी चुनावी मदद ही करेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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