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लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर


लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूरहरिंदर और पप्पू ने बिना किसी सुरक्षा या बीमा के अपनी जान जोख़िम में डालकर, दिल्ली में दूसरी कोविड लहर के दौरान निगमबोध श्मशान-घाट पर बिना रुके काम किया. मेहनताना बढ़ने का इंतज़ार उन्हें आज भी है

The workers of the crematorium are burning themselves with the dead bodiesHarinder and Pappu worked non-stop at the Nigambodh crematorium during the second Covid wave in Delhi, risking their lives, without any protection or insurance. They are still waiting for the increase in wages

लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर बाएं : दिल्ली में यमुना के तट पर स्थित निगमबोध घाट पर चिता के लिए बना ई गई नई जगहें ; दाएं : सीएनजी भट्टियों की चिमनियों से उठता धुआं इस बरस 4 मई को जब हरिंदर सिंह ने अपने सहकर्मी पप्पू को उस रोज़ के आख़िरी दो शवहं को दाह-संस्कार के लिए तैयार करने को कहा, तो उन्हें हरगिज़ उम्मीद न थी कि उनका यह कहना उनके सहयोगियों को चौंका देगा. उन्होंने अपनी बात कहने के लिए जिन शब्दों को चुना था वे ज़रा असामान्य थे. हरिंदर ने कहा: “दो लौंडे लेटे हुए हैं”. हरिंदर का शव को लौंडा कहना उन्हें चौंका गया. पर ता’अज्जुब का शिकार हुए उनके साथियों को जल्द ही अहसास हो गया कि हरिंदर गंभीर हैं. और वह मासूमियत में ऐसा कह रहे हैं. उनकी मासूमियत पर वह फ़ौरन ठहाके लगाने लगे. नई दिल्ली के सबसे व्यस्त रहने वाले श्मशान घाट, निगम बोध घाट पर उनकी जानलेवा नौकरी के बीच यह राहत का एक दुर्लभ पल था. मगर हरिंदर को लगा कि उन्हें ख़ुद को स्पष्ट करने की ज़रूरत है. उन्होंने गहरी सांस ली – वह ख़ुशक़िस्मत थे कि कोविड महामारी के दौरान जहन्नमनुमा माहौल में सांस ले पा रहे थे – और कहा, “आप उन्हें बॉडी कहते हैं. हम उन्हें लौंडे [लड़के] कहते हैं.” ऐसा कहकर उन्होंने मरने वालों को उनकी पूरी इज़्ज़त बक्श दी.

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लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर

बाएं : चिता के लिए तैयार किया जा रहा एक शव ; दाएं : कोविड -19 से मरने वाले व्यक्ति के शव पर गंगाजल छिड़का जा रहा है

ये मज़दूर श्मशान घाट की भट्टियों के एकदम पास बने एक छोटे से कमरे में खाना खा रहे थे. पप्पू ने मुझसे कहा, “जिस इंसान को भी यहां लाया जा रहा है, वह या तो किसी का बेटा है या बेटी है. बिल्कुल मेरे बच्चों की तरह. उन्हें भट्टी में डालना दुखद है. लेकिन, हमें उनकी आत्मा की शांति के लिए ऐसा करना होता है, है न?” यमुना किनारे, दिल्ली के कश्मीरी गेट के नज़्दीक इस श्मशान में दाख़िल होते ही दीवार पर बनी एक तस्वीर पर नज़र गड़ जाती है. इस तस्वीर में लिखा है: मुझे यहां तक पहुंचाने वाले, तुम्हारा धन्यवाद, आगे हम अकेले ही चले जाएंगे. लेकिन, इस साल जब अप्रैल-मई में कोविड-19 ने देश की राजधानी को मौत के पंजों में जकड़ लिया, तब ये मरने वाले अकेले नहीं रहे होंगे – उनको दूसरी दुनिया के सफ़र पर कोई न कोई साथी ज़रूर मिल गया होगा. वहां रोज़ाना 200 से अधिक शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा था. यह संख्या सीएनजी भट्टियों और खुली चिता को मिलाकर थी.

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लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर

महामारी से पहले, श्मशान की ये सीएनजी भट्टियां एक महीने में केवल 100 शवों का ही अंतिम संस्कार करती थीं. उस दिन, 4 मई को निगम बोध घाट पर सीएनजी भट्टियों में 35 शवों का दाह संस्कार किया गया था. अप्रैल के पहले हफ़्ते के बाद जब दूसरी कोविड लहर दिल्ली पर शिकंजा कस रही थी, तब ये संख्या रोज़ाना औसतन 45-50 से थोड़ी ही कम थी.लाशों के जलने और प्रदूषित यमुना की ज़हरीली दुर्गंध हवा में सराबोर थी. दो-दो मास्क लगाने के बावजूद ये मेरी नाक में घुसकर दम कर रही थी. नदी के क़रीब ही लगभग 25 चिताएं जल रही थीं. नदी के तट पर जाने वाले एक संकरे रस्ते के दोनों किनारों पर और भी लाशें थीं – पांच चिताएं दाईं, और तीन बाईं ओर. इन सब जलती चिताओं के अलावा और भी शव अपनी-अपनी बारी के इंतज़ार में थे. वहीं परिसर के अंदर, एकदम आख़िरी छोर पर एक ख़ाली मैदान को नए सिरे से 20 से अधिक चिताओं के लिए तैयार किया जा रहा है. इसी मैदान के दरम्यान एक नया पेड़ है. जलती चिताओं की गर्मी से झुलस चुके इसके पत्ते, उस भयानक और ख़ौफ़नाक काफ़्कास्क (लेखक काफ़्का के फ़िक्शन की दुनिया) दलदल को इतिहास में दर्ज कर रहे हैं, जहां देश को धक्का दे दिया गया है. किसी अंधेरी गुफ़ानुमा शक़्ल की बिल्डिंग में ट्यूबलाइट की टिमटिमाती और हल्की रौशनी मौजूद है. सीएनजी भट्टियाँ इसी बिल्डिंग के अंदर हैं, जहां हरिंदर और उनके साथी मज़दूर काम करते हैं. इस बिल्डिंग का हॉल बहुत कम इस्तेमाल में आता है. क़तार में लगकर अंदर आने के बावजूद आगंतुक खड़े ही रहते हैं, कुर्सी पर बैठते नहीं. वह इधर-उधर घूमते, रोते, शोक मनाते, और मृतक की आत्मा के लिए प्रार्थना करते रहते हैं. पप्पू कहते हैं, यहां मौजूद छह भट्टियों में से, “तीन पिछले साल लगाई गई थीं, जब कोरोना संक्रमित शवों का अम्बार लगना शुरू हो गया था.” कोविड-19 के यहां पैर जमाने के बाद, सीएनजी भट्टियों में केवल उन शवों का अंतिम संस्कार किया गया, जो कोविड संक्रमित थे. इंतज़ार ख़त्म होता है. जब शवों के दाह संस्कार की बारी आती है, तब उनके साथ आने वाले या अस्पताल या फिर श्मशान के कर्मचारी शव को भट्टी में लाते हैं. कुछ बॉडी – जो दूसरों से ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हैं – सफ़ेद कपड़े में ढकी होती हैं. कुछ अन्य, सफ़ेद प्लास्टिक की बोरियों में पैक नज़र आती हैं. उनको ऐम्ब्युलेंस से उतारा जाता है, कुछ को स्ट्रेचर हासिल होती है. कुछ को लोग अपनी बाज़ुओं का सहारा देते हैं. तब श्मशान के मज़दूर लाश को पहियों वाले एक प्लैटफ़ॉर्म पर रख देते हैं. ये प्लैटफ़ॉर्म भट्टी में जाने वाली रेल पर रखा हुआ है. अब काम जल्दी करना होता है. एक बार जब लाश भट्टी के अंदर दाखिल हो जाए, तो ये मज़दूर प्लैटफ़ॉर्म को तुरंत बाहर खींचते ही, भट्टी का दरवाज़ा बंद करके उसे बोल्ट कर देते हैं. पुरनम आंखों से परिवार अपने अज़ीज़ों को भट्टी में ग़ायब होते देखते जाते हैं और चिमनी से धुआं निकलता जाता है.पप्पू ने मुझसे कहा, “दिन के पहले शरीर को पूरी तरह से जलने में दो घंटे लगते हैं, क्योंकि भट्ठी को गर्म होने में समय लगता है. उसके बाद हर शव को एक-डेढ़ घंटे का समय लगता है.” हर भट्टी एक दिन में 7-9 शवों का अंतिम संस्कार कर सकती है. निगमबोध घाट पर चार मज़दूर मिलकर भट्टियों का संचालन कर रहे हैं. वह सब उत्तर प्रदेश की एक अनुसूचित जाति, कोरी समुदाय से संबंध रखते हैं. मूल रूप से यूपी के बलिया ज़िले के रहने वाले 55 वर्षीय हरिंदर सबसे बुज़ुर्ग हैं. वह साल 2004 से यहां काम करते आ रहे है. उत्तर प्रदेश के कांशीराम नगर ज़िले के सोरों ब्लॉक के 39 वर्षीय पप्पू ने 2011 में संस्था ज्वाइन की थी. 37 साल के राजू मोहन भी सोरों के रहने वाले हैं. वहीं, 28 वर्षीय राकेश भी इस नौकरी में राजू मोहन की तरह नए हैं और उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले में स्थित परसपुर इलाक़े के बहुवन मदार माझा गांव के रहवासी हैं. अप्रैल और मई में, सुबह 9 बजते ही ये मज़दूर काम पर लग जाते और मध्य-रात्रि के बाद तक लगे रहते. उनको रोज़ाना 15-17 घंटे उन भट्टियों की गर्मी में झुलसना पड़ता. अगर वे कोरोना वायरस से किसी तरह महफ़ूज़ भी रह जाते, तो 840 डिग्री सेल्सियस में दहकते हुए भट्टी की आग उन्हें निगल लेती. इस मशक़्क़त भरे काम में ये एक रोज़ की भी छुट्टी नहीं ले पाते. पप्पू कहते हैं “इस हाल में हम कैसे छुट्टी लें, जब हमारे पास चाय या पानी पीने का भी वक़्त नहीं है. इधर हमने एक या दो घंटे की छुट्टी ली, उधर हाहाकार मच जाएगा.” बावजूद इसके, कोई भी कामगार स्थाई रूप से कार्यरत नहीं है. निगमबोध घाट नगरपालिका का श्मशान है, जिसका प्रबंधन बड़ी पंचायत वैश्य बीस अग्रवाल (जो ‘संस्था’ के रूप में जानी जाती है) नामक एक चैरिटेबल संगठन करती है. संस्था हरिंदर को हर महीने 16,000 रुपए देती है. जिसका मतलब हुआ कि एक दिन के मात्र 533 रुपए. अगर वह बूढ़ा मज़दूर रोज़ाना आठ शवों का अंतिम संस्कार करे, तो हर शव के उसे 66 रुपए हासिल होते हैं. पप्पू को महीने के 12,000, राजू मोहन और राकेश दोनों को आठ-आठ हज़ार रुपए मिलते हैं. इस तरह एक शव के संस्कार करने का पप्पू को 50, राजू और राकेश को 33-33 रुपए मिलते हैं. हरिंदर बताते हैं, “संस्था ने तनख़्वाह बढ़ाने का वादा तो किया है, मगर कितना बढ़ाएंगे ये नहीं बताया.” लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर बाएं: हरिंदर सिंह; दाएं: राजू मोहन, हरिंदर, राकेश, और पप्पू भट्टी के पास के कमरे में रात का खाना खाते हुए हंसी का एक पल साझा करते हैं हालांकि, संस्था एक शव के दाह संस्कार का 1,500 रुपए लेती है (महामारी से पहले ये 1,000 रुपए था), लेकिन कामगारों की वेतन बढ़ाने का दूर-दूर तक नहीं सोच रही है. संस्था के महासचिव सुमन गुप्ता ने मुझसे कहा, “अगर हमने उनकी तनख़्वाह बढ़ा दी, तो हमें उनको साल भर बढ़ी हुई रक़म देनी पड़ेगी.” उन्होंने आगे कहा कि वह इन मज़दूरों को ‘इन्सेंटिव्ज़’ देते हैं. तनख़्वाह के अलावा जब वह श्रमिकों को अनुदान देने की बात कर रहे थे, उनका मतलब उस कमरे से नहीं हो सकता था जहां ये कामगार बैठकर खाना खा रहे थे, और जो इतना गर्म था कि भाप से नहाने की जगह जैसा लग रहा था. लोग अपने पसीने में नहा रहे थे, और उनके बदन के पसीने को सूखकर भाप बनने में देर नहीं लग रही थी. पप्पू ने तब कोल्ड-ड्रिंक की एक बड़ी बोतल मंगवाई. इस कोल्ड ड्रिंक का दाम उस शव के मोल, 50 रुपए से अधिक था जिसका पप्पू ने उस दिन अंतिम संस्कार किया था. गुप्ता ने बताया कि अप्रैल में, निगम बोध की सीएनजी भट्टियों में 543 शवों का अंतिम संस्कार किया गया था और संस्था का सीएनजी बिल 3,26,960 रुपए था. पप्पू कहते हैं कि एक शव को जलाने के लिए करीब 14 किलो गैस की ज़रूरत होती है. “पहले शरीर को हमारे रसोई घर में इस्तेमाल होने वाले दो घरेलू सिलेंडरों जितनी गैस की ज़रूरत होती है. इसके बाद, सिर्फ़ एक से डेढ़ सिलेंडर की जरूरत होती है.”भट्टी में जलने की प्रक्रिया को और तेज़ करने के लिए, ये मज़दूर जलती भट्ठी का दरवाज़ा खोलते हैं और लाश को एक लंबी छड़ी की मदद से मशीन में अंदर तक धकेलते और उसे हिलाते-डुलाते हैं. हरिंदर ने कहा, “अगर हम ऐसा नहीं करते हैं, तो बॉडी को पूरी तरह से जलने में कम से कम 2-3 घंटे लगेंगे. हमें इसे जल्दी ख़त्म करना होता है, ताकि हम सीएनजी बचा सकें. वरना संस्था को आर्थिक नुक़्सान होगा.” लागत बचाने के उनके तमाम प्रयासों के बावजूद, श्मशान घाट के कर्मचारियों का वेतन दो साल से बढ़ा नहीं है. अपनी कम तनख़्वाह पर पप्पू ने अफ़सोस जताते हुए कहा, “हम अपनी जान जोख़िम में डालकर, कोविड वाली लाशों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं. हमसे कहा गया है: ‘संस्था दान पर चलती है, तो क्या ही किया जा सकता है’?” और, वाक़ई, उनके लिए कुछ भी नहीं किया गया था. लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर लाशों के साथ ख़ुद भी जल रहे हैं श्मशान घाट के मज़दूर पप्पू ने 2011 से निगमबोध घाट में काम किया है . सीएनजी भट्टी के अंदर चिता के लिए बांस को टुकड़ों में काटना उनके कई कामों में से एक काम है उनको कोविड टीके के दोनों डोज़ भी नहीं लगे हैं. पप्पू और हरिंदर को वैक्सीन की पहली ख़ुराक साल की शुरुआत में लगी थी, जब फ्रंटलाइन वर्कर्स को टीका लगाया जा रहा था. पप्पू ने कहा “मैं दूसरे टीके के लिए नहीं जा सका, क्योंकि मेरे पास समय नहीं था. मैं श्मशान में व्यस्त था. जब मुझे कॉल आई, तो मैंने टीकाकरण केंद्र के व्यक्ति को कहा कि आप मेरे हिस्से का टीका किसी और ज़रूरतमंद को दे दें.” सुबह को पप्पू एक और काम करते हैं. उन्होंने देखा पिछले रोज़ आए परिजनों ने भट्टी के पास कूड़ेदान में और उसके नीचे निजी सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किट रख छोड़े हैं. सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें बाहर छोड़ने का नियम था, मगर कई लोगों ने उन्हें वहीं फेंक रखा था. पप्पू ने लाठी की मदद से इन किट को बाहर निकाला और बड़े कूड़ेदान में रखा. विडंबना ऐसी कि पप्पू ने ख़ुद कोई पीपीई नहीं पहन रखी थी, और उस समय वह ग्लव्स भी नहीं लगा सके थे. पप्पू कहते हैं, भट्टियों के पास बर्दाश्त से बाहर गर्मी में पीपीई पहनना असंभव है. “इसके अलावा, पीपीई में आग लगने की संभावना अधिक होती है, ख़ासतौर पर तब, जब अंदर जल रहे शव का पेट फटता है और आग की लपटें दरवाज़े से निकलने को बेताब हो जाती हैं.” वह मुझे समझाते हैं. हरिंदर आगे कहते हैं, “पीपीई को उतारने में समय लगेगा और इतना वक़्त काफ़ी होगा हमें मौत के मुंह में झोंक देने के लिए. हरिंदर ने फिर मुझे बताया: “किट पहनने से मेरा दम घुटता है और मेरी सांस फूल जाती है. मरना है क्या मुझको?” कोरोना से युद्ध में कई दिनों से पहने हुए मास्क उनका इकलौता कवच थे, क्योंकि वह रोज़ नया ख़रीद नहीं सकते थे. पप्पू ने कहा, “हम वायरस से संक्रमित होने से चिंतित हैं, मगर हमारे सामने ऐसा संकट है कि जिसे नज़रअंदाज करना गवारा नहीं कर सकते. लोग पहले ही दुखी हैं, हम उन्हें और दुखी नहीं कर सकते.”जोखिम भरी दास्तान यहीं ख़त्म नहीं होती. एक बार एक शव का संस्कार करते समय, पप्पू का बायां हाथ आग की लपटों से झुलस गया और अपना निशान छोड़ गया. पप्पू ने कहा, “मैंने इसे महसूस किया, दर्द भी हुआ, लेकिन अब क्या सकते हैं. जब मैं हरिंदर से मिला, उससे एक घंटे पहले हरिंदर को भी चोट लग गई थी. उन्होंने मुझे बताया, “जब मैं दरवाज़ा बंद कर रहा था, तो यह मेरे घुटने पर लगा.”राजू मोहन मुझे बताते हैं, “भट्ठी के दरवाज़े का हैंडल टूट गया था. हमने इसे बांस की छड़ी से किसी तरह ठीक किया है.” हरिंदर कहते हैं, “हमने अपने सुपरवाइज़र से कहा कि दरवाज़े की मरम्मत करवा दें. उन्होंने हमसे कहा, ‘हम लॉकडाउन में इसे कैसे ठीक करवा सकते हैं?’ और हम जानते हैं कि कुछ नहीं किया जाएगा.” इन कामगारों के लिए फ़र्स्ट एड बॉक्स (प्राथमिक उपचार बॉक्स) तक मुहैया नहीं है. इनके अलावा, श्रमिकों को अब नए ख़तरों का भी सामना करना था. जैसे कि घी और पानी के कारण फिसल जाना, जो परिवार के सदस्यों द्वारा शव को भट्टी में भेजने से पहले शव पर डाले जाने से फ़र्श पर फैल जाता है. दिल्ली नगर निगम के एक अधिकारी अमर सिंह ने कहा, “लाशों पर घी और पानी डालने की अनुमति नहीं है. यह स्वास्थ्य की दृष्टि से घातक और जोख़िम भरा है, लेकिन लोग प्रतिबंधों को तोड़ देते हैं.” अमर सिंह निगमबोध घाट के संचालन की निगरानी के लिए, महामारी के दौरान नियुक्त सात एमसीडी पर्यवेक्षकों में एक हैं. सिंह ने कहा, रात 8 बजे से पहले आ गए लाशों का उसी दिन अंतिम संस्कार किया जाता है. बाद में आने वालों को अगली सुबह तक इंतज़ार करना पड़ता है, ऐसे में कोई देखभाल के लिए उनके क़रीब भी नहीं आ सकता. ऐसी हालत में एम्बुलेंस का ख़र्च बढ़ गया, क्योंकि उनको रात भर वहीं ठहरना होता था. “इस समस्या का एक तात्कालिक हल ये हो सकता है कि भट्टी को चौबीसों घंटे चलाना होगा.” लेकिन क्या यह संभव था? इस सवाल के जवाब में सिंह ने कहते हैं, “क्यों नहीं? जब आप तंदूर में चिकन भूनते हैं, तो तंदूर ज्यों का त्यों बरक़रार रहता है. यहां की भट्टियां 24 घंटे चलने की ताक़त रखती हैं. लेकिन, संस्था इसकी इजाज़त नहीं देगी.” पप्पू अमर सिंह से सहमत नहीं हैं. उन्होंने इस बात को वहीं अस्वीकार दिया और कहा, “मशीन को भी, एक इंसान की ही तरह, कुछ आराम करने की ज़रूरत होती है.”

The workers of the crematorium are burning themselves with the dead bodies

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हालांकि, अमर सिंह और पप्पू दोनों इस बात पर एकमत थे कि श्मशान में श्रमिकों की भारी कमी है. सिंह ने कहा, “अगर उनमें से किसी के एक भी साथ कुछ हो गया, तो पहले से ही घुट-घुट कर चलने वाला संचालन ध्वस्त ही हो जाएगा.” उन्होंने आगे कहा कि श्रमिकों का कोई बीमा भी नहीं हुआ है. पप्पू एक बार फिर ज़रा अलग सोचते हुए कहते हैं, “अगर हरिंदर और मेरे जैसे कुछ और कार्यकर्ता होते, तो यहां चीज़ें आसान हो जातीं, और हमें कुछ आराम हासिल हो पाता.”क्या होगा अगर इन चार कामगारों में से किसी एक को कुछ हो गया? मैंने यही सवाल किया संस्था के महासचिव सुमन गुप्ता से. उनका जवाब था, “तब बाक़ी तीन काम करेंगे. नहीं तो हम बाहर से मज़दूरों को ले आएंगे. उन्हें दिए गए ‘भत्तों’ को गिनवाते हुए उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं है कि हम उन्हें खाना नहीं देते हैं. देते हैं. हम उन्हें खाना, दवाइयां, और सैनिटाईज़र भी देते हैं.” जब हरिंदर और उनके साथी ने छोटे कमरे में रात का खाना खाया, पास की ही भट्टी में आग एक शव को अपने आग़ोश में ले रही थी. उन्होंने अपने गिलास में कुछ व्हिस्की भी डाली थी. हरिंदर ने कहते हैं, “हमें [शराब] पीना ही पीना है. इसके बिना, हमारा ज़िंदा रहना असंभव है.” कोविड महामारी से पहले वह दिन में तीन पेग व्हिस्की (एक पेग में 60 मिलीलीटर शराब होती है) से काम चला लेते थे, लेकिन अब दिनभर नशे में रहना होता है, ताकि वह अपना काम कर सकें. पप्पू ने कहा, “हमें एक चौथाई [180 मिलीलीटर] सुबह, उतना ही दोपहर में, शाम को, और रात के खाने के बाद फिर एक चौथाई पीना होता है. कभी-कभी, हम वापस घर जाने के बाद भी पीते हैं.” हरिंदर कहने लगते हैं, “अच्छी बात यह है कि संस्था हमें [शराब पीने से] नहीं रोकती. बल्कि, वह हमें हर दिन शराब उपलब्ध कराती है.” शराब का काम सिर्फ़ इतना है कि ये समाज के आख़िरी पायदान पर खड़े इन ‘लास्टलाइन’ मेहनतकशों को एक मरे हुए इंसान को जलाने के दर्द और कड़ी मेहनत से ज़रा सुकून में लेकर जाती है. हरिंदर ने कहा, “वह तो मर चुके हैं, लेकिन हम भी मर जाते हैं, क्योंकि यहां काम करना बेहद थका देने वाला और पीड़ादायक होता है.” पप्पू बताते हैं, “जब मैं एक पेग पी लेता हूं और शव को देखता हूं, तो मैं फिर सोबर हो जाता हूं. और जब कभी-कभी धूल और धुआं हमारे गले में फंस जाता है, तो शराब उसे गले के नीचे उतार देती है.” राहत का वह लम्हा गुज़र चुका था. पप्पू को हरिंदर के उन “दो लेटे हुए लौंडों” की अंतिम क्रिया करवाने जाना था. आंसुओं से भरी उनकी आंखें, ज़बान पर आए अल्फ़ाज़ से पहले ही उनका दर्द बयान कर रही थी; वह कहते हैं, “हम भी रोते हैं. हमें भी आंसू आते हैं. लेकिन हमें अपने दिलों को थामे रहना होता है और इसकी हिफ़ाज़त करनी होती है.”

(लेखक अमीर मलिक स्वतंत्र पत्रकार है )https://ruralindiaonline.org/

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