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हरियाणा सरकार को खोरी गांव के एक लाख निवासियों को क्यों बेदखल नहीं करना चाहिए

हरियाणा सरकार को खोरी गांव के एक लाख निवासियों को क्यों बेदखल नहीं करना चाहिए
BY मंजू मेनन | इशिता चटर्जी

7 जून 2021 को, सर्वोच्च न्यायालय ने फरीदाबाद नगर निगम के अंतर्गत आने वाले दिल्ली-हरियाणा सीमा के खोरी गांव बस्ती को खाली करवाने के फरवरी और अप्रैल 2020 के अपने आदेशों को दोहराया. बस्ती खाली करवाने का यह आदेश वर्ष 2010 से अदालत में चल रही सुनवाई पर आधारित है.
सर्वोच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह बस्ती अरावली वन भूमि पर अतिक्रमण है और इसलिए उन्हें यह आदेश देना सही लगा कि नगर निगम इसे खाली करवाने की कार्यवाही करे, और यदि ज़रूरत पड़े तो नगर निगम ताकत का इस्तेमाल भी कर सकता है.
लगभग 6,500 घरों को तुड़वाने का काम मानसून शुरू होने से एकदम पहले किए जाने के आदेश हैं और अभी भी चारों ओर महामारी फैली हुई है, जहां ज़्यादातर लोगों को टीके भी नहीं लगे हैं.
खोरी गांव के निवासी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूर हैं. वे कई ऐसी सेवाएं देते हैं, जिससे शहर को चलाए रखने में मदद मिलती है. यहां के शुरुआती निवासी खदानों में मज़दूरी किया करते थे जो खदान के ठेकेदारों के हाथों कर्ज़ के दुष्चक्र में फंस गए.
पिछले वर्षों में शहरी गरीब लोग, जिन्हें शहरी विकास परियोजनाओं के चलते दिल्ली की बस्तियों से विस्थापित किया गया, वे भी यहीं आकर बस गए. काफी बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो पड़ोसी राज्यों से काम की तलाश में पलायन करके यहां आए हैं.
हालांकि खोरी गांव की ज़मीन आधिकारिक रूप से सरकारी ज़मीन है, लेकिन संदिग्ध भू-माफिया ने यहां के निवासियों को इस ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़े पॉवर ऑफ अटर्नी पर बेचे हुए हैं.
लोगों ने अपनी ज़िंदगी भर की कमाई लगाकर यहां अपने घर बनाए हैं. पिछले वर्षों में अपनी छोटी कमाई से पैसे बचा-बचाकर उन्होंने पानी और बिजली प्राप्त की है. विस्थापित होने वालों में से 5,000 से अधिक गर्भवती महिलाएं और दूध पिला रही महिलाएं हैं और 20,000 से भी ज़्यादा अल्पायु बच्चे हैं.
खोरी गांव और वन भूमि
खोरी गांव में पहले मकान तब बने जब अरावली में खदान का काम हुआ करता था. 1990 के दशक और 2009 के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने यहां खनन पर प्रतिबंध लगा दिया और कई आदेशों की शृंखला से अरावली को कानूनी सुरक्षा की एक अतिरिक्त परत प्रदान की.
इन आदेशों के कारण, पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम, 1900 (पीएलपीए) के अंतर्गत आने वाली ज़मीनों को वन भूमि माना जाएगा, चाहे उस पर किसी का भी स्वामित्व हो. इस ज़मीन पर भारतीय वन अधिनियम के प्रावधान लागू होते हैं और वन संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति लिए बिना इन ज़मीनों पर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता.
लेकिन, ज़मीनी स्तर पर स्थिति काफी अलग है. यह तो स्पष्ट हो ही चुका है कि राज्य सरकार पीएलपीए के अंतर्गत ज़मीन की सुरक्षा करने में विफल रही है.
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के लंबे समय से चले आ रहे एक मामले में हरियाणा वन विभाग द्वारा जमा की गई जून 2020 की रिपोर्ट में पीएलपीए भूमि पर निर्माण नियमों का उल्लंघन करती हुई कई इमारतों की पहचान की गई. अकेले फरीदाबाद में ही ऐसे 123 अवैध निर्माण हैं.
हालांकि वन विभाग का दावा है कि उसने इस सूची में शामिल निर्माण कार्यों को समय-समय पर नोटिस दिए हैं, लेकिन कुल मिलाकर वन विभाग वन अतिक्रमण के मुद्दे को सफलता से संभालने में असमर्थ रहा है. इसका मुख्य कारण है कि यह उल्लंघन गांवों की पंचायती भूमि पर हुए हैं और इनमें से कई क्षेत्रों का निजीकरण कर लिया गया है और अब इसमें कई लोगों का स्वामित्व है. और संभव है कि उल्लंघन इन कई अधिकारधारकों में से किसी एक ने किया हो.
पीएलपीए बाध्यताओं के साथ सरकारी ज़मीन का प्रबंधन करना भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है. हालांकि फरीदाबाद नगर निगम की विकास योजनाओं के अनुसार पीएलपीए क्षेत्रों में भूमि-उपयोग पर काफी प्रतिबंध हैं, लेकिन इसके बावजूद कई व्यापारिक इकाइयां जैसे कि रिज़ॉर्ट, होटल और पर्यटन सुविधाएं खोरी गांव के आस-पड़ोस में हैं.
यह भवन भी वन विभाग की एनजीटी में जमा की गई रिपोर्ट की सूची में शामिल हैं. लेकिन उन्हें तोड़ने के आदेशों का कोई खतरा नज़र नहीं आता.
पीएलपीए और हरियाणा सरकार
उच्च न्यायालयों के आदेशों ने हरियाणा सरकार के पीएलपीए ज़मीनों पर खदानों और ज़मीन की बिक्री के माध्यम से पैसे कमाने के प्रयासों पर रोक लगा दी है. वे पीएलपीए और उसकी पर्यावरणीय अनिवार्यताओं को पूरी तरह से खारिज करवाना चाहते हैं.
पीएलपीए के साथ उनकी समस्याएं अपनी चरम सीमा पर पहुंच गईं जब 2018 का कांत एन्क्लेव फैसला आया, जिसमें खोरी गांव के नज़दीक एक विशाल संपत्ति को तोड़ने के आदेश दिए गए क्योंकि उस परियोजना को दी गई मंज़ूरियों को वन नियमों के विरुद्ध पाया गया.
इस मामले में अदालत ने उन लोगों को मुआवज़ा दिए जाने के आदेश दिए, जिनकी संपत्ति इस परियोजना में गई थी. इस फैसले के बाद खट्टर सरकार ने पीएलपीए में संशोधन करने का प्रयास किया, जिससे कि इन क्षेत्रों को अचल संपत्ति विकास के लिए खोल जा सके. इस संशोधन पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी.
लेकिन खोरी गांव के मामले में सरकार ने दावा किया है कि यह घनी आबादी वाली 120 एकड़ पर बसी बस्ती की ज़मीन राज्य में वन संरक्षण के लिए बेहद महत्व रखती है. लेफ्टिनेंट कर्नल सर्वदमन सिंह ओबेरॉय, जिन्होंने वन संरक्षण पर कई केस फाइल किए हैं, का कहना है कि इस वन भूमि को पुनः प्राप्त करने की मानवीय कीमत अरावली की अब तक की सबसे अधिक कीमत होगी.
उनके अनुमान दर्शाते हैं कि इसके कारण प्रति एकड़ 600 लोगों का विस्थापन होगा और गरीब लोग अपने प्राथमिक निवास से हाथ धो बैठेंगे.
वे पूछते हैं, ‘अरावली वन क्षेत्रों में सौ से अधिक फार्म हाउस बने हुए हैं जो व्यापारिक या धार्मिक गतिविधियां चलाते हैं, जैसे कि मेवला महाराजपुर, अंखिर और अनंगपुर गांवों में. इन गांवों में वन भूमि को पुनः प्राप्त करने की मानवीय कीमत बहुत कम होगी. निश्चित रूप से राज्य में वन भूमि को पुनः प्राप्त करने में किसी प्रकार की प्राथमिकता तो तय की जानी चाहिए न?’
आवास अधिकार और पर्यावरण
विशाल शहरों, जहां ज़मीन की कीमतें उस शहर में रहने वाले अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर रखी जाती हैं, में बस्तियों को उजाड़ा नहीं जाना चाहिए. महामारी के दौरान निवासियों को बेदखल करना और उन्हें बेघर करना मानवाधिकारों का उल्लंघन करना है.
बिना पुनर्वास के बेदखल किया जाना उनके उचित आवास के अधिकार का उल्लंघन करता है. भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता की अभिव्यक्ति के रूप में शहरी बेदखली को संबोधित करने के लिए कार्यकर्ताओं ने कानूनी विधियों और लोकतांत्रिक राजनीति में सुधार के लिए बहुत मेहनत के साथ काम किया है.
उनका प्रयास रहा है कि शहर के अधिकार शहरी ग्रामीणों को भी दिए जाएं. लेकिन यह संशोधन ऐसे मामलों पर लागू नहीं होते जहां अनौपचारिक बस्तियां पर्यावरणीय रूप से महत्वपूर्ण ज़मीनों पर खड़ी हों.
इन मामलों को आम तौर पर आवास अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक प्रतियोगिता के रूप में पेश किया जाता है, जहां पर्यावरण संरक्षण के सार्वजनिक हित को गरीबों के आवास अधिकारों से खतरा बताया जाता है.
लेकिन संरक्षणकर्ता यह साबित करते आए हैं कि पर्यावरणीय सुरक्षा को सामाजिक-आर्थिक न्याय के आधार पर ही प्राप्त किया जा सकता है. जैसे कि महामारी के दौरान बहुत दुखद तरीके से यह स्पष्ट हो गया है कि सार्वजनिक हित प्राप्त करने के लिए हमें सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय गैर बराबरी को संबोधित करने के क्रांतिकारी तरीके ढूंढने ज़रूरी हैं.
इन शहरों में मज़दूरों के लिए आवासीय संकट है. खोरी गांव इस संकट का एक लक्षण है. बहुत महत्वपूर्ण है कि इस संकट से निपटने के लिए एक संपूर्ण योजना तैयार की जाए, जो कि वन संरक्षण और सामाजिक आवास के उद्देश्यों पर केंद्रित हो. वास्तव में बड़े शहरों के संरक्षणकर्ता और आवसीय अधिकार कार्यकर्ता इन्हीं पहलुओं का समाधान होता देखना चाहेंगे.
अगर सरकार और अदालत खोरी गांव को वन संरक्षण के लिए उपलब्ध करवाना चाहते हैं, तो बस्ती के निवासियों को वैकल्पिक भूमि देना ही उचित होगा. लेकिन इस प्रकार की सहयोगात्मक प्रक्रिया को सफल होने के लिए राज्य सरकार को ज़बरदस्ती या दबाव का उपयोग करने से बचना होगा.
पिछले कुछ दिनों में आवाज़ उठाने वाले कई निवासियों और कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया है, क्षेत्र की बिजली और पानी काट दिए गए और निवासियों को अपने समान के साथ उस जगह को छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है. इलाके में धारा 144 लगा दी गई है.
महामारी के दौरान किसी पर भी ऐसा करना घोर अन्याय है. गरीबों के घर उजाड़ने में दिखाई गई तात्कालिता अन्यायपूर्ण है. जैसा कि खोरी गांव की एक युवा निवासी ने पूछा, ‘क्या आप कुछ दिनों या हफ्तों में ही यहां जंगल उगा लोगे?’
(मंजू  मेनन सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ सदस्य हैं. इशिता चटर्जी वास्तुविद और यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबॉर्न में पीएचडी छात्रा हैं, जो खोरी गांव का अध्ययन कर रही हैं.)
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