देश में किंगमेकरों की राजनीति का इतिहास बताता है कि आमतौर पर वह सुखांत नहीं होती क्योंकि न किंगमेकर अपनी स्थिति का लाभ उठाने में संयम बरत पाते हैं, न ही ‘किंग’ उनकी सारी मांगें पूरी कर पाते हैं.
BY—कृष्ण प्रताप सिंह
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यह बात तो खैर लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘चार सौ पार’ के नारे के बैकफायर कर जाने के चलते भाजपा के साधारण बहुमत से भी पहले ठिठककर ‘सिंगल लार्जेस्ट पार्टी’ भर बन पाने के साथ ही साफ हो गई थी कि किंगमेकरों (पढ़िए: बैसाखियों) की वह राजनीति, जिसे पिछले दस सालों के भाजपा के पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकारों के दौर में देशवासी भूल-से गए थे, फिर से अपने दम-खम के साथ वापस लौट आएगी.Will the outcome of the Modi government with the ‘kingmakers’ be different from previous examples?
इसके चलते कई लोग मोदी द्वारा वक्त की नजाकत देखकर ‘पुनर्जीवित’ किए गए एनडीए को ‘नायडू-नीतीश डेमोक्रेटिक अलायंस’ तक कहने लगे थे- एनडीए में तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) के मुखिया चंद्रबाबू नायडू (मुख्यमंत्री: आंध्र प्रदेश) और जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार (मुख्यमंत्री: बिहार) की किंगमेकिंग के मद्देनजर.
सत्ता के समर्थन मूल्य की अदायगी!
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चूंकि एनडीए सरकार में बदल जाने को अभिशप्त हो गई तीसरी बार आई मोदी सरकार इन्हीं दोनों की बैसाखियों पर खड़ी है और उसकी जान इन्हीं के पिंजरों में कैद है, इसलिए इस बाबत भी शायद ही किसी को संदेह था कि वह हर हाल में इनकी लप्पो-चप्पो में लगी रहेगी. फिर भी शायद ही कोई उम्मीद कर रहा हो कि वह अपने पहले ही बजट में इन दोनों द्वारा शासित राज्यों आंध्र प्रदेश व बिहार पर इतनी ‘नजर-ए-इनायत’ कर देगी कि विपक्ष को उसे संघीय ढांचे के विरुद्ध, तीन चौथाई देश को नजरअंदाज करने वाला, ‘सहयोगियों को खुश करो’ और ‘कुर्सी बचाओ’ बजट करार देने का मौका मिल जाएगा.
इतना ही नहीं, एक अखबार उसकी खबर देते हुए शीर्षक लगाएगा कि ‘सरकार ने सत्ता का समर्थन मूल्य चुकाया’ और कई हलकों में उसे उन राज्यों को दंड देने वाला भी बताया जाएगा, जहां भाजपा लोकसभा चुनाव हार गई.
अभी मामला नया- नया है और दोनों तरफ से ‘नया मुल्ला ज्यादा प्याज खाता है’ जैसी स्थिति है, इसलिए बहुत संभव है कि पटने और पटाने के इस खेल में ‘किंग’ को भी भरपूर मजा आ रहा हो और किंगमेकरों को भी. लेकिन यह विश्वास करने के कारण हैं कि जल्दी ही स्थिति बदल जाएगी और दोनों के लिए एक दूजे को सहजता से ढोना मुश्किल हो जाएगा.
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‘किंग’ के पास इससे बचने का एक ही उपाय था कि वे अपनी रीढ़ को ज्यादा नहीं तो थोड़ी-बहुत बचाए रखते और किंगमेकरों को अपने झुक सकने की सीमा को लेकर साफ संकेत देते. इतना साफ कि किंगमेकर समझ जाते कि उन्होंने उन्हें उससे ज्यादा झुकाना चाहा तो वे झुकने के बजाय सरकार का बलिदान कर देना बेहतर समझेंगे. बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से इनकार की खबर आई तो एक पल को लगा भी कि उनकी ओर से ऐसा जताने की कोशिश की जा रही है.
‘एन ओल्ड मैन इन हरी’
लेकिन बजट में किए गए ‘आत्मसमर्पण’ ने उनके झुकने की सीमा को जिस तरह अंतहीन कर दिया है, उससे आश्चर्य नहीं कि किंगमेकर जल्दी ही उन्हें केंचुआ बनाने पर उतारू हो जाएं. जिसके बाद उनकी बेदखली में उन एचडी देवगौड़ा जितनी चमक भी न रह जाए, जिन्होंने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी द्वारा उनको झुकाने की कोशिशों के बीच पदत्याग से पहले उन्हें ‘एन ओल्ड मैन इन हरी’ तक कह डाला था.
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वैसे भी देश में किंगमेकरों की राजनीति का इतिहास बताता है कि आमतौर पर वह सुखांत नहीं होती क्योंकि न किंगमेकर अपनी स्थिति का लाभ उठाने में संयम बरत पाते हैं, न किंग उनकी सारी मांगें पूरी कर पाते हैं. अनंतर, बेबस किंग उनकी बैसाखियों पर खड़े रहने के बजाय उनसे निजात के उपाय तलाशने लगते हैं और बात बिगड़ते देर नहीं लगती.
अतीत में झांककर देखें तो स्वतंत्र भारत के पहले किंगमेकर के. काम राज की उन इंदिरा गांधी से भी नहीं निभ पाई थी, जिन्हें प्रधानमंत्री बनाने की गोटें बिछाने में उन्होंने कुछ भी कमी नहीं रखी थी.
प्रसंगवश, कामराज के रूप में देश को पहला किंगमेकर 1964 में पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद मिला, जब कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में ‘नेहरू के बाद कौन?’ का जवाब देने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आई. (वैसे कई लोग स्वतंत्र भारत का पहला किंगमेकर महात्मा गांधी को बताते हैं, जिन्होंने पंडित नेहरू और वल्लभ भाई पटेल के मुकाबले में नेहरू के अंतरिम प्रधानमंत्रित्व का रास्ता हमवार किया तो एक तरह से अपना उत्तराधिकारी चुना था. लेकिन उस मामले की तासीर दूसरी थी.)
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कामराज 13 अप्रैल, 1954 को तत्कालीन मद्रास (अब तमिलनाडु) राज्य के मुख्यमंत्री बने थे और 1963 में 2 अक्टूबर को यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं में घर कर गए सत्ता लोभ को खत्म करना जरूरी है. तदुपरांत उन्होंने इन नेताओं को सरकारों से हटाकर पार्टी संगठन में लाकर आम लोगों से जोड़ने की योजना पेश की थी और खुद को भी उसका अपवाद नहीं बनाया था. यह योजना बाद में ‘कामराज योजना’ कहलाई और उसके तहत वे ही पार्टी के अध्यक्ष बने. इस योजना का एक प्रच्छन्न उद्देश्य चीन के हमले से निपटने में नाकाम होकर अपना आभामंडल गंवा बैठे नेहरू को अपने मंत्रिमंडल को नया करने का सुभीता प्रदान करना भी बताया जाता है.
वह पहला किंगमेकर
बहरहाल, नेहरू के निधन के वक्त अध्यक्ष के रूप में कामराज पार्टी में इतने प्रभावशाली थे कि खुद प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन उनकी मान्यता थी कि जिस नेता को ठीक से हिंदी व अंग्रेजी न आती हो, उसे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए. साथ ही, ऐसा कोई पद स्वीकार नहीं करना चाहिए, जिसके साथ वह पूरा न्याय न कर सके. कामराज को खुद भी न ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी. उनके समर्थकों ने उन पर अपने लिए इस कसौटी को शिथिल कर देने का भरपूर दबाव डाला, मगर वे टस से मस नहीं हुए.
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उस वक्त प्रधानमंत्री पद के लिए उनके अलावा गुलजारीलाल नंदा, जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के नाम आगे चल रहे थे. इनमें नंदा की दावेदारी गृहमंत्री के रूप में सबसे वरिष्ठ मंत्री और कार्यवाहक प्रधानमंत्री होने के कारण मजबूत थी, तो शास्त्री की इस कारण कि अपने अंतिम दिनों में नेहरू बहुत हद तक उन पर निर्भर रहने लगे थे. वित्त मंत्री मोरारजी देसाई कांग्रेस संसदीय दल में अपनी गहरी पैठ के चलते आश्वस्त थे, जबकि जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के नाम जरा दूसरी तरह से आगे बढ़ाए जा रहे थे. इनमें मोरारजी को छोड़कर कोई भी लॉबिंग नहीं कर रहा था.Modi government with the ‘kingmakers
बाद में, मुकाबला शास्त्री व मोरारजी के बीच ही रह गया तो किंगमेकर कामराज ने मोरारजी की राह रोकने के लिए चुनाव के बजाय आम सहमति का ब्रह्मास्त्र सामने कर दिया. उन्होंने संसदीय दल में उसके नेता यानी प्रधानमंत्री के चुनाव को पार्टी की एकता के लिए नुकसानदेह बताकर ‘महत्वाकांक्षी’ मोरारजी के बजाय ‘सीधे, सरल व ईमानदार गुदड़ी के लाल’ लालबहादुर शास्त्री के नाम पर आम सहमति बनवाने के प्रयास शुरू कर दिए और सफल रहे.
कई लोग कहते हैं कि उन्होंने नेहरू की इस बात का भी लिहाज रखा कि मोरारजी प्रधानमंत्री बन गए तो इंदिरा गांधी को कभी प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे.
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कामराज और इंदिरा की नहीं निभी
उनके और उनके किंग (लालबहादुर शास्त्री) के रिश्ते खराब होते, उससे पहले ही पाकिस्तान से युद्ध हुआ, जिसके सिलसिले में ताशकंद गए शास्त्री का 11 जनवरी, 1966 को वहीं निधन हो गया. लेकिन इतिहास गवाह है कि उसके बाद कामराज ने किंगमेकर के तौर पर अपना आखिरी फैसला कर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया तो जल्दी ही दोनों अलग-अलग ध्रुवांतों पर जा पहुंचे.
उसके बाद की उनकी व कांग्रेस की चुनावी शिकस्तों ने स्थितियों को ऐसा पलटा कि बात पार्टी के विभाजन तक जा पहुंची और 1969 के अंत में कामराज ने अलग पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) की स्थापना की. यह और बात है कि इंदिरा गांधी के दांव-पेंचों के आगे उनकी एक नहीं चली और उनको राष्ट्रीय राजनीति से किनारा कर अपने गृहराज्य तमिलनाडु की राह पकड़ लेनी पड़ी. 1971 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने वहां अपनी सीट तो जीत ली, लेकिन उनकी पार्टी के ज्यादातर नेताओं को जनता का विश्वास नहीं प्राप्त नहीं हुआ.
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किंग मेकिंग का कुफल
तिस पर उनके किंगमेकर होने का कुफल यह हुआ कि प्रतिबद्ध स्वतंत्रता सेनानी और गांधीवादी मूल्यों के अप्रतिम हिमायती की उनकी छवि दरकिनार हो गई. यह बात भी कि जलियांवाला बाग के नरसंहार से उद्वेलित होकर वे 15 साल की उम्र में ही स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े थे और 16 के होते-होते काग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए थे. अनंतर छह बार में वे कुल मिलाकर तीन हजार दिन जेल में रहे और नाना प्रकार की यातनाएं भी भोगी थीं.
संविधान सभा के सदस्य रहे कामराज उन स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल नहीं थे, जिन्होंने 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के बाद अपना काम समाप्त मान लिया. वे मानते थे कि नवस्वतंत्र देश के नवनिर्माण का कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण काम अभी बाकी है. वे मद्रास के मुख्यमंत्री बने तो हर गांव में प्राइमरी स्कूल, हर पंचायत में हाईस्कूल और 11वीं तक मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा की योजना के साथ सामने आए.
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आजकल सरकारी स्कूलों में मिड डे मील और निःशुल्क यूनिफार्म जैसी जिन योजनाओं का क्रेडिट लेते सरकारें अघाती नहीं हैं, उन्हें आरंभ करने का श्रेय भी कामराज को ही जाता है.
दूसरी पारी
बहरहाल, नीतीश को भले ही किंगमेकरी नई-नई मिली हो, नायडू की किंगमेकरी की यह दूसरी पारी है. पहली पारी में वे 1996 में पहले देवेगौड़ा, फिर इंद्रकुमार गुजराल को ‘किंग’ बना चुके हैं और दोनों का हश्र उन्हें अभी भी याद होगा. इससे पहले, 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी को बहुमत मिलने पर मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री चुनने में जयप्रकाश नारायण व आचार्य कृपलानी की भूमिका भी किंगमेकर की ही थी, जो न मोरारजी की सरकार को बिखरने से रोक पाई, न जनता पार्टी को भी.
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1979 में जनता पार्टी में भीषण कलह के बाद स्वास्थ्य मंत्री पद से बर्खास्त व पार्टी से निष्कासित राज नारायण, चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए हनुमान बने तो भी किंगमेकर ही थे. लेकिन चरण सिंह किंग बने तो उनकी सरकार लोकसभा का मुंह तक नहीं देख पाई और आगे चलकर हनुमान व राम की दुश्मनी ने भी नया इतिहास बनाया.
अब मोदी सरकार ने अपने बजट में नीतीश व नायडू के समक्ष ‘आत्मसमर्पण’ करके खुद के कभी भी ऐसे किसी अघटनीय के शिकार होने के अंदेशे बढ़ा दिए हैं. फिलहाल, वह ‘दुहू भांति उर दारुण दाहू’ की गति को प्राप्त होती दिखाई दे रही है और समझ नहीं पा रही कि धान कूटने और कांख ढकने का काम एक साथ कैसे करें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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