मतदाताओं से बड़ी संख्या में मतदान करने के आह्वान को ‘वोट जिहाद’ की संज्ञा दी गई है ताकि कांग्रेस पार्टी पर मुसलमानों के धार्मिक अतिवाद का समर्थन करने का आरोप लगाया जा सके
BY–मैथ्यू जॉन
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‘ज़े’अकूज़’ एक फ़्रेंच भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘मैं आरोप लगाता हूं’. इसका एक ऐतिहासिक संदर्भ भी है. अपने आक्रोश की नाटकीय अभिव्यक्ति के रूप में एमिल ज़ोला ने 1898 में फ्रांस के राष्ट्रपति को लिखे गए एक अखबार के लेख का शीर्षक दिया था, ज़े’अकूज़’. इस लेख में सरकार पर एक सेना अधिकारी अल्फ्रेड ड्रेफस को झूठे साक्ष्यों के आधार पर फंसाने और उसे बिना किसी गंभीर सबूत के जासूसी करने का दोषी ठहराया गया था क्योंकि वह एक यहूदी था.
इतिहास और गहरे अर्थ से भरा इस शब्द का उपयोग सबसे कमजोर लोगों के खिलाफ शक्तिशाली शक्तियों द्वारा की गई क्रूरता और अन्याय पर आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया जाता है. अन्यायपूर्ण रूप से सताए गए लोगों के बचाव में इस शब्द ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाई. ज़ोला को जेल की सजा सुनाई गई और उन्होंने इंग्लैंड भागकर अपनी जान बचाई. हालांकि, उनका यह हस्तक्षेप मुख्य रूप से ड्रेफस की मुक्ति के लिए जिम्मेदार भी साबित हुआ.
एक सामान्य व्यक्ति ड्रेफस पर अन्यायपूर्ण अभियोग और सजा पर इस तरह का अंतरराष्ट्रीय विरोध, आज हमारे लिए असामान्य और पागलपन की हद तक हास्यास्पद लगता है. आज के जमाने में अन्याय के प्रति संवेदनशीलता का सर्वव्यापी अभाव दर्शाता है कि हम एक समाज और मनुष्य के रूप में कितने गिर गए हैं. आज, फिलिस्तीनियों को नृशंसता, बर्बरता और नरसंहार का सामना करना पड़ रहा है, उन्हें दुनिया की केवल थोथी सहानुभूति मिलती है, लेकिन एक युद्ध अपराधी नेतन्याहू पर लगाम लगाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ विशेष नहीं होता है.
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अपने देश में भी हम बेफिक्र रहते हैं जब एक पूरे समुदाय पर अत्याचार और भेदभाव किया जाता है, तब भी जब बुद्धिजीवियों को निष्प्रभावी और निष्क्रिय कर दिया जाता है और उन्मादी भीड़ सत्ता की पूरक और सहयोगी बन जाती है. जब कोई भी जो इस सरकार पर सवाल उठाने की हिम्मत करता है, उसे लंबे समय तक, कभी-कभी अनिश्चितकाल के लिए जेल में बंद कर दिया जाता है. व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए न्यायिक प्रणाली की जटिलता और भी दुरूह हो गई है क्योंकि उस व्यक्ति की रक्षा का भार उन शक्तियों पर है जो केवल एक व्यक्ति के आदेशों का पालन करने के लिए तत्पर हैं और जो नफरत का प्रतीक है. महात्मा गांधी ने हमें प्रेम की ताकत सिखाई, लेकिन नरेंद्र मोदी ने दिखा दिया है कि नफरत कितनी प्रबल होती है.
Narendra Modi हिंदुत्व के सबसे प्रमुख अनुयायी हैं- जो हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों से सर्वथा भिन्न है; और संक्षेप में, एक अलगाववादी राष्ट्रवाद पर आधारित है जो स्पष्ट रूप से मुस्लिम और ईसाई विरोधी है. (मोदी की तरह ही सावरकर का धर्म के साथ जुड़ाव विशुद्ध रूप से लेन-देन का था और इसमें मुसलमानों के प्रति घृणा की भरमार थी). मोदी के सत्ता में आने से पहले तक अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और आरएसएस के पक्षधर विचारकों की राजनीति में हिंदुत्व की भूमिका नगण्य थी. लेकिन मोदी ने इसे अपनी राजनीति के केंद्र में कर दिया है.
हिंदुत्व और छद्म राष्ट्रवाद को राजनीति की मुख्य धारा में लाकर मोदी ने धर्मनिरपेक्षता, समानता और बंधुत्व के लिए हमारी पवित्र संवैधानिक प्रतिबद्धता को नकार दिया है.
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2019 के चुनाव में अपनी भारी जीत के बाद विजयी मोदी ने बिना किसी संकोच के देश को यह बात बताई: ‘आपने देखा है कि गत तीस वर्षों से – यद्यपि यह नाटक उससे भी बहुत पहले से चल रहा है – ‘धर्मनिरपेक्षता’ नाम का तमग़ा पहनना फैशन बन गया है… इस चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल का साहस नहीं हुआ कि वह देश को मूर्ख बनाने के लिए धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन ले. उन्हें बेनकाब कर दिया गया है. धर्मनिरपेक्षता को अतिरंजित ‘नाटक’ बताकर मोदी उस पर कटाक्ष कर रहे थे जो हमारी बहुसांस्कृतिक व्यवस्था का मूलभूत सिद्धांत है.
मोदी की तीखी भाषा विरोधाभासों से सराबोर रहती है. वह लोगों को भ्रमित करने के लिए चतुर शब्दों का उपयोग करते हैं. वह दार्शनिक हैं: ‘सभी के लिए न्याय लेकिन किसी का भी तुष्टिकरण नहीं. यह हमारी धर्मनिरपेक्षता है.’ वह धर्मनिरपेक्षता को कल्याणकारी योजनाओं के संकीर्ण चश्मे से देखते हैं, यह तर्क देते हुए कि सरकार की योजनाएं गैर-भेदभावपूर्ण हैं और जाति और समुदाय के आधार पर नहीं बनाई जाती हैं.
सच बात तो यह है कि उन्होंने इस संवैधानिक मजबूरी को जो उन्हें जनकल्याण की योजनाओं में किसी वर्ग विशेष के लिए भेदभाव की इजाज़त नहीं देती, को एक गुण के रूप में पेश किया है. वैसे यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इसी सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को लागू करके, जो मुसलमानों के खिलाफ स्पष्ट रूप से भेदभाव करता है, इस बात की पुष्टि कर दी है कि जब भी संभव हो सकेगा सरकार सांप्रदायिक भेदभाव करने से परहेज़ नहीं करेगी.
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अपने शासनकाल के दस साल बाद भी, Narendra Modi उसी नफरत भरे राग को तल्लीनता से बजा रहे हैं. चुनावों के दौरान दिए भाषणों में लोगों की भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए विशेष शब्दों का चयन उनका एक प्रमुख गुण है. मोदी के पिछले कुछ भाषणों में मुसलमानों को निशाना बनाना नस्लवादी घृणास्पद कथन के आदर्श उदाहरण हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री, तालिबान चरमपंथी की तरह नफरत उगलते हुए, मुसलमानों को- जिनके कई बच्चे होते हैं, घुसपैठिया बताकर निंदा करते हैं. उनका कहना है कि हिंदू विरोधी कांग्रेस अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के लिए निर्धारित आरक्षण को चुराकर मुसलमानों को आवंटित करेगी. मतदाताओं से बड़ी संख्या में मतदान करने के आह्वान को ‘वोट जिहाद’(‘Vote Jihad’) की संज्ञा दी गई है ताकि कांग्रेस पार्टी पर मुसलमानों के धार्मिक अतिवाद का समर्थन करने का आरोप लगाया जा सके.
यहां तक कि वह 2002 के गोधरा कांड (Godhra incident)के बाद गुजरात के भयंकर दंगों को भी याद करते हैं. यह विचित्र है कि जिस व्यक्ति पर गुजरात के मुख्यमंत्री होने के नाते सांप्रदायिक दंगों और उस भयानक नरसंहार को रोकने की ज़िम्मेदारी थी, उसे उस भयावह अवधि का दोबारा याद दिलाने का कोई मलाल नहीं है. वह यह सब केवल देश में ध्रुवीकरण करने और राजनीतिक लाभ लेने के लिए कर रहे हैं.
अब यह देखते हुए कि चुनाव उस तरह से नहीं चल रहा है जैसा वह चाहते थे, उनके अनुयायियों ने एक तथाकथित जनसंख्या के आंकड़ों को उद्धृत करते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि ‘हिंदू खतरे में है’.
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मोदी ने दिखाया है कि नफरत और क्रूरता एक दूसरे के पूरक हैं. गोधरा के बाद हुए भयंकर सांप्रयादिक दंगों को सही ठहराने के लिए उनकी निर्मम न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया की उपमा को कौन भूल सकता है? हालांकि, उनके प्रशंसक इस बात से इनकार करते हैं कि उन्होंने ऐसा कहा या किया था. उनके अनुसार, असाधारण परिस्थितियों में बहुत सारी ऐसी बातें कह दी जाती हैं जो सामान्यतः उचित नहीं होती.
मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत और निडर सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने हाल ही में मोदी के इस कथन की याद दिलाई जब फरवरी 2002 के भयंकर सांप्रदायिक दंगों से पीड़ित लोग नारकीय पीड़ा और त्रासदी से उबरने की कोशिश कर रहे थे, मोदी ने गुजरात के राहत शिविरों को ‘बच्चे पैदा करने वाले कारखाने’ के रूप में बताया था. वैसे भी इस सांप्रदायिक हिंसा में हुई मौतों का जिक्र करते हुए 2013 में गाड़ी के नीचे आने वाले पिल्लों जैसी उपमा के उपयोग को कौन भूल सकता है?
क्या यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि शोपेनहावर ने जोर देकर घोषणा की थी कि मनुष्य पृथ्वी के शैतान हैं? मोदी ने परपीड़न और अमानवीयता में नए मापदंड स्थापित किए हैं.
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मोदी के भारत में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है,(No place for Muslims in Modi’s India) जिनके लिए पिछले दस साल एक अंतहीन दुःस्वप्न जैसे रहे हैं. मोहम्मद अखलाक, जुनैद, पहलू खान आदि को निशाना बनाने वाले हमारे नैतिक रूप से अपंग समाज की क्रूरता मनुष्य के प्रति मनुष्य की अमानवीयता के सबसे भयावह उदाहरणों में हैं. और इस सबके पीछे कौन है, धार्मिक और सामाजिक कलह को उकसाने वाले मुख्य लोग कौन हैं? इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
बिली जोएल ने एक बार कहा था कि संगीत एक उपचार है, मानवता की एक विशेष अभिव्यक्ति है. लेकिन मोदी के भारत में, यह सांस्कृतिक गतिविधियां यानी संगीत, कविता, सिनेमा, यहां तक कि इतिहास लेखन भी, मानवतावाद को पेश करने से दूर, हिंदुत्व परियोजना के प्रसार के रूप में इस्तेमाल किए गए हैं.
बार्ड ऑफ एवन की पैरोडी करने के लिए संगीत नफरत का एक कारक बन गया है. कला को सत्ता वादियों ने बंधक बना लिया है. ‘केरला फाइल्स’ नफरत और सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए एक सिनेमाई प्रयोग है, जिसे मोदी और उनके वर्ग द्वारा सक्रिय रूप से प्रचारित किया गया था.
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कुणाल पुरोहित की अंतर्मन तक झकझोर देने वाली पुस्तक ‘एच-पॉप’ इस्लामोफोबिया फैलाने, अल्पसंख्यकों को बदनाम करने और सरकार के आलोचकों को नीचा दिखाने के लिए लोकप्रिय साहित्य की भूमिका की कहानी कहती है. मोदी नफरत से भरे आर्केस्ट्रा का संचालन कर रहे हैं, और यह चिंताजनक है कि उनके पास दर्शकों का एक विराट समूह है.
मोदी ने वह सब कुछ नष्ट कर दिया है जो कभी हमें प्रिय हुआ करता था.(Narendra Modi has destroyed everything that we once held dear.) कोई भी जिसके पास थोड़ी सी भी सामाजिक चेतना है, स्वीकार करेगा कि इस शासन ने बहुसंस्कृतिवाद, सहिष्णुता, समानता और बंधुत्व के साथ खिलवाड़ किया है. यह जानकर दुख होता है कि लोकतंत्र की रक्षा में हम लोग अक्षम हो गए हैं और कुछ चंद लोग हमारी स्वतंत्रता को अपनी इच्छा अनुसार सीमित करने में सक्षम हैं.
विशेष रूप से चिंताजनक बात यह है कि उन्होंने सरकारी कामकाज को सुचारू रूप से चलाने वाले कानूनों या नियमों को संशोधित किए बिना ऐसा किया है, लेकिन प्रशासनिक तंत्र बिना किसी प्रतिरोध के उनके आगे झुक गया है. देश को अपनी रीढ़हीन नौकरशाही और शिथिल न्यायपालिका के कारण अनगिनत नुकसान हुआ है!
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यहां एक व्यक्तिगत समस्या का उल्लेख करना संभवतः अनुचित न होगा. पिछले दस वर्षों से यह दमनकारी वातावरण जिसमें हम रहते हैं, आम लोगों को मानसिक यातनाएं भी देता है. मैं स्वयं दर्दनाक तनाव विकार (टीएसडी), जो अचानक प्रायः मुझे मानसिक तनाव और अवसाद से ग्रस लेता है, जूझ रहा हूं. एक अद्भुत परिवार, घनिष्ठ मित्रों और बहुत सारे संबंधियों के बीच एक आरामदायक जीवन शैली के बावजूद, मेरे जीवन को बेहद प्रभावित करने वाली उदासी असमय अचानक घेर लेती है. कुछ समय पहले स्थिति इतनी बिगड़ गई कि मुझे मनोचिकित्सक से परामर्श के लिए बाध्य किया गया. उसने मुझे आश्वस्त करने वाले शब्दों से विदा किया, ‘चिंता मत करिए, यह समय भी बीत जाएगा’, जिसके द्वारा उनका मतलब था कि यह सरकार भी अंततः चली जाएगी .
मैं भी इस बात पर विश्वास करना चाहूंगा कि यह काले घने बादल कभी तो छट जाएंगे और फिर तेज धूप खिलेगी लेकिन मेरा मन कहता है कि मोदी और उनके वर्ग द्वारा की गई हानि अब दीर्घकाल तक रहेगी. भले ही भाजपा यह चुनाव हार जाए, जिसकी अब एक संभावना लगती है, नफरत और कट्टरता का जहर हमारे सामाजिक रक्त प्रवाह से आसानी से निकलने वाला नहीं है. यह सच है कि हमारी अर्थव्यवस्था वापस प्रगति करने लगेगी, और कानून व्यवस्था को बनाए रखे वाली एजेंसियां एक बार फिर कानून का पालन करने लगेगी.
लेकिन मुझे सबसे ज्यादा डर इस बात का है कि सांप्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का पालन शायद ही पूरी तरह हो पाए कम से कम एक पीढ़ी तक. हमारे संविधान के निर्माताओं द्वारा परिकल्पित भारत अब मृगतृष्णा तो नहीं है. मोदी का बनाया हुआ यह नया भारत- जिसमें आरएसएस और उनके भगवा परिधानों में त्रिशूल लहराते हुए उग्र सैनिकों की उपस्थिति मुझे डराती है क्या हम इनसे भयमुक्त होकर फिर चैन पा सकेंगे.
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मेरा यह कथन शायद एक पागल की बकवास है. फिर भी मेरी इस आशंका की पुष्टि ऑडेन की निम्न पंक्तियों से होती है:
‘And even madmen manage to convey
Unwelcome truths in lonely gibberish.’
(‘और यहां तक कि पागल भी संदेश देने का यत्न करते हैं
अपने एकांत में बकवास करते हुए कुछ अनचाहा सत्य.’)
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(लेखक पूर्व सिविल सेवक हैं)
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