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राहुल गाँधी जब बोलते हैं, तो नरेंद्र मोदी व भाजपा हंसती नहीं बल्कि घबराती है,

अब कोई राहुल को मज़ाक नहीं मानता, जब वे बोलते हैं, तो भाजपा हंसती नहीं बल्कि घबराती है
हर दिन कुछ नई निराशाजनक सुर्खियां सामने आती हैं: रेल दुर्घटना, ढहता हुआ हवाई अड्डा, परीक्षा पत्र घोटाला. भाजपा अब केवल शासन के आधार पर वोट नहीं मांग सकती.
BY—वीर सांघवी
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अब जबकि हमारे पास शांत होने और पिछले भारतीय आम चुनाव को अपेक्षाकृत निष्पक्ष रूप से देखने का पर्याप्त समय है, हमें खुद से पूछना होगा कि : क्या सच में कुछ बदला है?
क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल दूसरे कार्यकाल की तरह ही होगा? क्या भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपेक्षित संख्या तक पहुंचने में विफलता ने उनके शासन करने की क्षमता को कम कर दिया है? या क्या यह हमेशा की तरह सरकार बनने जा रही है?
मुझे लगता है कि जवाब ज्यादातर राजनीतिक दलों द्वारा स्वीकार किए जाने से कहीं ज़्यादा जटिल हैं. यहां चुनाव परिणामों के कुछ निष्कर्ष दिए गए हैं जो पहले से ही स्पष्ट हैं.
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सपने का अंत
पीएम की ज्यादातर शक्ति किसी आधिकारिक अधिकारी से नहीं, बल्कि कई लोगों (और सबसे ज़्यादा मोदी खुद) के इस दृष्टिकोण से आई कि वे अब प्राकृतिक शक्ति हैं, भले ही वे (जैसा कि उन्होंने सुझाया) पूरी तरह से “बायोलॉजिकल” न हों.
सरकार, प्रशासन, न्यायपालिका और मीडिया में कई लोगों का मानना ​​था कि मोदी अपनी ज़िंदगी के बाकी समय में पीएम रहेंगे. इसलिए, प्रतिरोध व्यर्थ है. सभी को एक नए भारत की वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाना चाहिए, जिसे ठीक उसी तरह चलाना है जैसा भाजपा चाहती है.
आप मीडिया की सरकार की गोदी में बैठने की इच्छा को इस भरोसे के लिए जिम्मेदार ठहरा सकते हैं कि चूंकि, विपक्ष के पास कोई मौका नहीं है, इसलिए इस पर ध्यान देने का कोई मतलब नहीं है. भारत में सैद्धांतिक रूप से स्वतंत्र प्रेस है, लेकिन क्योंकि सरकार टीवी पर दिखाई जाने वाली चीजों को बहुत सख्ती से नियंत्रित करती है और प्रिंट में दिखाई जाने वाली किसी भी चीज़ को लेकर बहुत संवेदनशील है, इसलिए मीडिया मालिकों (और दुख की बात है कि बहुत से पत्रकारों) ने फैसला किया कि सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के मनोरंजन के लिए चालें चलना खबरों को निष्पक्ष रूप से रिपोर्ट करने से कहीं ज़्यादा सुरक्षित और आसान है.
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यह कोई पहली या हैरान कर देने वाली घटना नहीं है. 1976 तक इंदिरा गांधी की आपातकालीन सरकार ने पाया कि अब प्रेस को सेंसर करने की ज़रूरत नहीं है. मीडिया ने भी यही किया क्योंकि उन्हें लगा कि अब से चीज़ें इसी तरह होंगी. जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी ने यादगार ढंग से कहा था, प्रेस को झुकने के लिए कहा गया था, लेकिन उसने रेंगना चुना.
वो दौर 1977 में खत्म हुआ जब कांग्रेस चुनाव हार गई. इस बार, भाजपा चुनाव नहीं हारी है, लेकिन मोदी के हमेशा के लिए बने रहने की संभावना कम हो गई है. यह संभव है कि वे अगला चुनाव हार जाएं.
इस एहसास ने न केवल मीडिया को बल्कि आज्ञाकारी सिविल सेवकों और पुलिस अधिकारियों को भी प्रभावित किया है, जिन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन्हें एक दिन किसी और बॉस को जवाब देना पड़ सकता है. अवमानना ​​के कानून मुझे और कुछ कहने से रोकते हैं, लेकिन मुझे यकीन है कि न्यायपालिका में कुछ तत्व इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं.
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बेशक, मोदी अभी भी एक शक्तिशाली पीएम हैं, लेकिन वे एक बार और हमेशा के लिए प्रधानमंत्री नहीं हैं.
भाजपा का सोशल मीडिया पर नियंत्रण खोया
पिछले एक दर्जन या उससे अधिक वर्षों में भाजपा की लोकप्रियता का एक बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर इसकी महारत और जनमत को प्रभावित करने की इसकी क्षमता से आया है. कई कारकों के कारण परिणाम आने से पहले ही यह क्षमता खत्म होने लगी थी.
जब विरासत/मुख्यधारा का मीडिया खेल दिखाने वाले बंदरों में बदल गया, तो इंटरनेट ने वो भूमिका संभाली जो विरासती मीडिया को निभानी चाहिए थी. समाचार साइट्स, यूट्यूब चैनलों, फेसबुक और एक्स (ट्विटर) ने आधिकारिक कथन को सफलतापूर्वक चुनौती दी और उसी थीम पर जोर दिया — सम्राट के नए कपड़े सच में मौजूद नहीं थे.
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यह उम्मीद की जा रही थी कि जब यह तीसरी बार सत्ता में लौटेगी, तो भाजपा अपने लाभ के लिए महत्वपूर्ण ऑनलाइन कंटेंट को रेगुलेट करने के तरीके खोजेगी. यह अभी भी ऐसा करने की कोशिश कर सकती है, लेकिन, इन परिणामों के बाद, यह बहुत अधिक कठिन होगा.
एजेंसियां अभी भी मौजूद
विपक्ष के कुछ जश्न समय से पहले हैं. सरकार के पास अभी भी एजेंसियों पर पूरा नियंत्रण है और वह विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए उनका इस्तेमाल करना जारी रख सकती है. वह ऐसे कानूनों का इस्तेमाल कर सकती है जो न केवल आरोपी व्यक्तियों को तब तक दोषी मानते हैं जब तक कि वे निर्दोष साबित न हो जाएं, बल्कि निर्दोषियों को बिना किसी ठोस सबूत के लंबे समय तक जेल में रखने की अनुमति भी देते हैं.
केवल दो चीज़ें ही इस स्थिति को बदल सकती हैं. पहला, अगर सरकार यह तय करती है कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) पर निर्भरता अब प्रतिकूल होती जा रही है और कोई भी इस आधिकारिक कथन पर विश्वास नहीं करता है कि विपक्ष बदमाशों से भरा है जबकि भाजपा देवदूतों से भरी है.
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दूसरा यह है कि अगर न्यायपालिका व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बारे में उन सभी बातों को गंभीरता से लेना शुरू कर देती है जो नियमित रूप से मुख्य न्यायाधीश के भाषणों में शामिल होती हैं और यह नहीं मानती कि जेल नियम है और ज़मानत अपवाद है.
क्या ऐसा होगा? हमें इंतज़ार करना होगा और देखना होगा.
विपक्ष अब मजाक नहीं रहा
बीजेपी की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक राहुल गांधी को मज़ाक का पात्र बनाना था, एक अनाड़ी पप्पू जो प्रधानमंत्री की ओलंपियन हैसियत से बमुश्किल मेल खाता था.
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इस बात से इनकार करना मूर्खता होगी कि मोदी अभी भी राहुल गांधी से ज़्यादा लोकप्रिय हैं, लेकिन कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति अब राहुल को मज़ाक नहीं मानता. जैसा कि हम सभी ने बताया है, राहुल ने पिछले दशक में कई गलतियां की हैं, लेकिन कई अन्य राजनेताओं के विपरीत, उन्होंने अपनी गलतियों से सीखा है. अब उन्हें आखिरकार एक विश्वसनीय चुनौती के रूप में देखा जा रहा है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो उन मुद्दों (उदाहरण के लिए मणिपुर) के बारे में स्पष्ट रूप से बोलता है, जिनसे पीएम बचते रहे हैं. जब वे संसद में बोलते हैं, तो बीजेपी घबरा जाती है. वो (बीजेपी) अब हंसते नहीं हैं.
राहुल अभी भी विकल्प नहीं हैं, लेकिन वे दिन खत्म हो गए हैं जब उन्हें बर्खास्त किया जा सकता था.
सहयोगी पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत
जिन लोगों ने सोचा था कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू केंद्र में कुछ मंत्री पदों से संतुष्ट हो जाएंगे, उन्होंने उनकी मंशा को गलत समझा. दोनों सीएम वास्तव में ऐसी चीजों की परवाह नहीं करते हैं. वे अपने राज्यों के लिए बहुत सारा पैसा चाहते हैं और वे इतना पैसा चाहते हैं कि इससे पड़ोसी राज्यों में नाराजगी पैदा हो सकती है और प्रधानमंत्री को बंधक बना दिया जा सकता है, जिन्हें ज़िंदा (सरकार में बने रहने के लिए) रहने के लिए पैसे देते रहना पड़ेगा. मोदी उनकी ज्यादातर मांगें मान लेंगे — या तो ऐसा होगा या फिर सरकार का अंत, लेकिन आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के लिए हर विशेष पैकेज के साथ, उनका नियंत्रण कम होता जाएगा.
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मोदी को नए फॉर्मूले की ज़रूरत
जब देश में चुनाव हुए, तो भाजपा के पास तीन मुद्दे थे. पहला था प्रधानमंत्री का अपना करिश्मा. दूसरा था पार्टी का शासन का रिकॉर्ड और तीसरा था हिंदुत्व.
अब इन तीनों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है.
मोदी अभी भी भारत में सबसे लोकप्रिय नेता हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता इतनी नहीं है कि वे अपनी पार्टी को संसदीय बहुमत दिला सकें. ग्रामीण संकट और शहरी बेरोजगारी के कारण भाजपा के शासन के रिकॉर्ड पर पहले से ही सवाल उठ रहे थे. लेकिन अब, हर दिन कुछ नई निराशाजनक सुर्खियां सामने आती हैं — ट्रेन दुर्घटना, हवाई अड्डे का ढहना, परीक्षा के पेपर का घोटाला आदि. यह स्पष्ट है कि भाजपा अब केवल शासन के आधार पर वोट मांगने के लिए देश भर में नहीं जा सकती.
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और अंत में, हिंदुत्व का क्या? यह निश्चित रूप से आस्थावानों को आकर्षित करता है, लेकिन यह भी एक संतृप्ति बिंदु पर पहुंच गया है. इन चुनाव परिणामों का अंतर्निहित संदेश है: हमें नौकरी दो, हमें उम्मीद दो; हमें केवल मंदिरों की बातें मत खिलाओ. केवल यह बताकर चुनाव जीतने की कोशिश मत कीजिए कि मुसलमान कितने बुरे हैं और वह हमारी भैंसों पर कैसे कब्जा कर लेंगे.
क्या स्थिति में सुधार संभव नहीं है?
नहीं, ऐसा नहीं है. भाजपा के पास किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में अधिक संभावनाएं हैं. वो आसानी से अपने काम को व्यवस्थित कर सकती है, लेकिन उससे पहले उसे यह पहचानना होगा कि उसने कहां गलती की और यह पता लगाना होगा कि उसने ऐसा कैसे होने दिया.
तभी सुधार शुरू हो सकता है.
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(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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