भारत में एक और बुलंद आवाज के खिलाफ बीजेपी के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने यूएपीए लगाया
यूएपीए जैसे क़ानून के तहत अरुंधति रॉय पर केस चलाने से निश्चित तौर पर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की छवि खराब होगी.
दिल्ली ((बीबीसी हिन्दी) उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मुकदमा चलाए जाने की अनुमति दे दी है. उनके साथ ही कश्मीर के डॉक्टर शेख शौकत हुसैन के ख़िलाफ़ भी इस कड़े क़ानून के तहत केस चलेगा.BJP’s Lieutenant Governor VK Saxena invoked UAPA against another loud voice in India Arundhati Roy
ये मामला 14 साल पुराना है और अरुंधति रॉय पर भारत की एकता और अखंडता के खिलाफ टिप्पणी करने का आरोप है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की मुखर आलोचक रहीं अरुंधति रॉय पर साल 2010 में दिल्ली में दर्ज कराई गई एक एफआईआर के तहत ये मुकदमा चलाया जाएगा.
पिछले साल अक्टूबर में टेलीविजन चैनल अलजजीरा को दिए गए इंटरव्यू में कश्मीर के पुलवामा हमले के संबंध में पीएम नरेंद्र मोदी से जुड़े सवाल पर रॉय ने कहा था कि “मैं हमेशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ रही हूं, जब वह साल 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब भी.”
वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि सत्ताधारी बीजेपी फासीवादी है और एक दिन ये देश उसके खिलाफ खड़ा होगा.
====अरुंधति रॉय पर यूएपीए के तहत केस चलने के मायने===
अरुंधति रॉय के साथ काम करने वाले या उनके पाठक रहे लोगों की उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के बारे में अलग-अलग राय है.
सलिल त्रिपाठी कहते हैं, “ख़ुद को कमजोर और असुरक्षित मानने वाली सरकार या समाज ही असहमति के स्वर को दबा सकते हैं.”
वहीं निखिल डे सवालिया लहजे में कहते हैं, “मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि उन पर मुकदमा चलाकर भारत क्या उदाहरण पेश कर रहा है. अगर वह ख़ुद को अभिव्यक्त कर रही हैं, तो आप उनकी अभिव्यक्ति को पसंद या नापसंद कर सकते हैं, लेकिन आप यूएपीए की गंभीर धाराओं के तहत मुकदमा कैसे चला सकते हैं. ये ऐसा कानून है जो आतंकी गतिविधियों से जुड़ा है. दुनियाभर में लोग इस पर हंसेंगे.”
उन्होंने कहा कि यूएपीए जैसे क़ानून के तहत अरुंधति रॉय पर केस चलाने से निश्चित तौर पर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की छवि खराब होगी.
वह कहते हैं कि ये पहली बार नहीं जब रॉय सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ खड़ी हों, उन्होंने पहले भी ऐसा किया है और तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और वंचित वर्गों के बारे में लिखा है.
उन्होंने कहा, “मैंने देखा है कि हर मामले के बाद वह पहले से कहीं अधिक मजबूती से सामने आती हैं.”
कुछ लेखकों ने 14 साल पुराने मामले में रॉय के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की मंजूरी देने के लिए उप राज्यपाल की आलोचना भी की.
कविता कृष्णन ने कहा कि मोदी सरकार की ओर से लेखकों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं पर यूएपीए के तहत आरोप लगाना अब उबाऊ हो रहा है.
वह कहती हैं, “मेरा मानना है कि ये एक तरह से उनके लिए उलटा पड़ सकता है क्योंकि दुनिया को पता चल जाएगा कि वो तानाशाह हैं जो हमारे समय के सबसे महान लेखकों में से एक पर राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों का आरोप लगा रहे हैं.”
“मुझे लगता है कि एक तरह से ये घटनाक्रम भारत के लोकतांत्रिक आंदोलन के लिए बहुत अच्छा है क्योंकि ये दुनिया के सामने उन्हें बेनकाब करेगा. मुझे इसमें जरा भी संदेह नहीं कि उपराज्यपाल सिर्फ़ सरकार के निर्देशों पर काम कर रहे हैं.”
===वैश्विक स्तर पर क्या असर होगा?===
घनश्याम शाह का मानना है कि अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने से निश्चित तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे लोकतांत्रिक मापदंडों में भारत की रैंकिंग ख़राब होगी.
शाह की तरह ही जाने-माने लेखक आकार पटेल ने कहा, “फ्रीडम हाउस, वैरायटी ऑफ़ डेमोक्रेसीज़, द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट सहित वैश्विक स्तर पर कई अन्य डेमोक्रेसी इंडिकेटर्स पर भारत की रैंकिंग गिरी है. मुझे लगता है कि ये (केस) एक विडंबना है. इससे दुनिया को यह संदेश जाएगा कि मोदी सरकार के लिए असहमति असहनीय है.”
वहीं, सलिल त्रिपाठी कहते हैं, “अगर उन पर मुकदमा चलाया जाता है, तो इससे भारत की वैश्विक छवि को नुकसान ही होगा. सभ्य, लोकतांत्रिक देशों में समाज अपने प्रतिष्ठित लेखकों और कलाकारों का सम्मान करता है, भले ही शक्तिशाली और प्रभावशाली अभिजात वर्ग उनके विचारों को नापसंद करता हो. केवल तानाशाही शासन में ही लेखकों को सताया जाता है. कुछ न हो तो भी ये केस इस दृष्टिकोण को मजबूत करेगा कि संसदीय बहुमत खोने के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं बदली. वह चुनावी नतीजों से ग़लत सबक ले रही है.”
=====अरुंधति रॉय और उनसे जुड़े विवाद====
अरुंधति नर्मदा बचाओ आंदोलन सहित देश के कुछ अन्य आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ी थीं. नर्मदा बचाओ आंदोलन मेधा पाटकर की अगुवाई में कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के गुटों ने किया था, जो गुजरात में सरदार सरोवर बांध परियोजना की वजह से विस्थापित आदिवासियों के अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे थे.
इस आंदोलन में रॉय की भागीदारी को गुजरात के कई राजनेताओं ने गुजरात विरोधी रुख के तौर पर देखा.
अरुंधति रॉय के लेख ‘द एंड ऑफ़ इमैजिनेशन’ ने राजनीतिक लेखक के तौर पर उनकी शुरुआत का संकेत दिया. द न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने एक आलेख में सिद्धार्थ देब ने रॉय के इस आलेख का ज़िक्र करते हुए लिखा, “रॉय ने परमाणु परीक्षणों के समर्थकों पर सैन्य ताकत के प्रदर्शन में आनंद लेने का आरोप लगाया. उन्होंने (समर्थकों) उस अंधराष्ट्रवाद को गले लगाया जिसके बल पर आजादी के बाद दूसरी बार बीजेपी सत्ता में आई.”
रॉय का ये आलेख आउटलुक और फ्रंटलाइन जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एक साथ छपा और उन्होंने राजनीतिक लेखक के रूप में आगाज़ किया.
वह गुजरात में साल 2002 में हुए सांप्रदायिक दंगों के समय से ही नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ मुखर रही हैं. बाद में उन्होंने ओडिशा में बॉक्साइट खनन की योजनाओं पर भी अपनी राय रखी.
रॉय ने भारत में नक्सल आंदोलन पर भी काफी कुछ लिखा है. वह अक्सर कहती रही हैं कि एक आदिवासी जिसे कुछ भी नहीं मिलता, वह सशस्त्र संघर्षों में शामिल होने के अलावा और क्या करेगा.
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