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फादर, उन्हें माफ़ कर देना…

फादर, उन्हें माफ़ कर देना…

फादर, उन्हें माफ़ कर देना…

BY मदन बी. लोकुरफादर स्टेन स्वामी की हिरासत, ख़ारिज होती ज़मानत, बुनियादी ज़रूरतों के लिए अदालत में अर्ज़ियां लगाना और अंत में अपनों से दूर एक अनजान शहर में उनका गुज़र जाना यह एहसास दिलाता है कि उनके ख़िलाफ़ कोई आरोप तय किए बिना और उन पर कोई मुक़दमा चलाए बगैर उन्हें सज़ा-ए-मौत मुक़र्रर कर दी गई.मेरे दर्द को वो अपनी उंगलियों से छेड़ रहा हैमेरी ज़िंदगी को अपने लफ्ज़ों में बता रहा हैअपने गीत से वो आहिस्ता-आहिस्ता मुझे क़त्ल कर रहा हैअपने गीत से वो आहिस्ता-आहिस्ता मुझे क़त्ल कर रहा हैमेरी पूरी ज़िंदगी अपने लफ़्ज़ों में बयां कर रहा हैअपने गीत से वो आहिस्ता-आहिस्ता मुझे क़त्ल कर रहा है1970 के दशक के एक मशहूर गाने के ये बोल फादर स्टेन स्वामी के जीवन के आखिरी साल और उनके साथ किए गए बर्ताव की एक तरह से पूरी दास्तान बयान कर देते हैं.

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फादर, उन्हें माफ़ कर देना…

1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में कुछ घटनाएं हुईं, जिसके बाद राजद्रोह सहित भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत एक एफआईआर दायर की गई. जांच के बाद गैरकानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) की धाराएं भी इसमें नत्थी कर दी गईं. 15 नवंबर, 2018 के बाद कुछ आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ एक आरोपपत्र दायर किया गया और एक दूसरा पूरक आरोपपत्र 21 फरवरी, 2019 को कुछ और आरोपियों के खिलाफ दायर किया गया.

इस मामले की जांच कर रही महाराष्ट्र पुलिस ने 28 अगस्त, 2018 को रांची में स्टेन स्वामी के दफ्तर और घर की तलाशी ली. साफ है कि उन्हें फंसानेवाली कोई कोई सामग्री इस तलाशी में नहीं मिली और शायद यही कारण है कि नवंबर, 2018 और फरवरी, 2019 में उनके खिलाफ कोई चार्जशीट दायर नहीं की गई.

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लेकिन शायद स्टेन स्वामी के खिलाफ तिनके जैसा ही सही दस्तावेजी सबूत निकालने के लिए 12 जून, 2019 को उनके घर और दफ्तर की फिर से तलाशी ली गई. और ऐसा लगता है कि इस बार भी उन्हें फंसाने लायक उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगा. इसके बाद 24 जून, 2020 तक सब कुछ शांत रहा, जिस दिन जांच को महाराष्ट्र पुलिस से राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआई को सौंप दिया गया.

स्टेन स्वामी के मुताबिक, 25 जुलाई से 7 अगस्त, 2020 तक एनआईए ने उनसे करीब 15 घंटे पूछताछ की. 30 सितंबर, 2020 को उन्हें एक समन भेजा गया, जिसमें उन्हें 5 अक्टूबर को मुंबई के एनआईए ऑफिस में हाजिर होने के लिए कहा गया, जिससे उन्होंने अपनी उम्र (83 वर्ष) का हवाला देते हुए कम समय दिए जाने और कोविड महामारी के हालातों के चलते इनकार कर दिया.

मगर, इससे एनआईए को कोई फर्क नहीं पड़ा और इसने 8 अक्टूबर, 2020 को रांची जाकर भीमा-कोरेगांव मामले में संबंध होने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया और मुंबई के तलोजा जेल में बंद कर दिया. उनके खिलाफ अगले दिन एक आरोपपत्र दायर किया गया जिसमें उनके खिलाफ यूएपीए के तहत आरोप दर्ज किए गए थे.

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डीके बसु (1996) में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तार किए जाने वाले हर व्यक्ति की मेडिकल जांच का निर्देश दिया था. इससे सुप्रीम कोर्ट का आशय ऊपरी-ऊपरी रस्म अदायगी न होकर ज्यादा तफसील के साथ जांच किया जाना शामिल था. गिरफ्तार करने वाले अधिकारी ने जरूर ही एक योग्य मेडिकल अधिकारी से स्टेन स्वामी की जांच करवाने के लिए कदम उठाए हांगे और इस क्रम में स्टेन स्वामी ने अपनी उम्र और पार्किंसन रोग से ग्रस्त होने की जानकारी दर्ज कराई होगी.

एके रॉय बनाम भारत संघ (1981) में सुप्रीम कोर्ट ने निवारक निरोध यानी बगैर मुकदमे और बगैर आरोपों के तय हुए किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने के सवाल पर विचार किया था. इसमें यह व्यवस्था दी गई थी कि निरोधात्मक हिरासत के तौर पर किसी व्यक्ति को सामान्य तौर पर ‘किसी ऐसी जगह पर रखा जाना चाहिए जो कि उसके सामान्य निवास स्थान के परिवेश के भीतर ही हो. सामान्य तौर पर दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति को मद्रास या कलकत्ता जैसे दूरस्थ जगह पर रखना अपने आप में एक दंडात्मक कार्रवाई है, जिसे निवारक निरोधों के मामले भी किसी भी तरह से प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए. इसके अलावा, किसी व्यक्ति के सामान्य निवास स्थल के अलावा किसी दूसरी जगह पर उसे हिरासत में रखना उसके मित्रों और संबंधियों के लिए उससे मिलना असंभव बना देता है’. ऐसा करने में नाकामी एक दंडात्मक किस्म की कार्रवाई होगी.’

इसमें कोई शक नहीं है कि निरोधात्मक हिरासत और किसी अपराध के लिए लंबित मुकदमे के लिए हिरासत में गुणात्मक अंतर है, लेकिन अगर हिरासत में रखे गए व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के सवाल पर व्यापक संदर्भ में, संवेदनशील और मानवीय तरीके से विचार किया जाए, तो दोनों में ठोस अंतर बहुत ज्यादा नहीं है. इसलिए जेल सुधार की एक शर्त यह होनी चाहिए कि एक विचाराधीन कैदी को उसके निवास के पास के जेल में रखा जाए, ताकि बंदी व्यक्ति की धीरे-धीरे मौत की ओर न बढ़े.

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हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने गौतम नवलखा बनाम एनआईए (2021) वाले मामले में जेल में बंद रखने की जगह नजरबंदी को प्रोत्साहित किया. सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताए गए कारणों में से एक कारण जेलों का ठसाठस भरा होना था, जो हम जानते हैं एक शाश्वत समस्या है और वैश्विक महामारी ने कुछ जेलों में जीवन स्थितियों को और त्रासदीपूर्ण बना दिया है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में व्यवस्था दी कि, ‘उचित मामलों में कोर्ट नजरबंदी का आदेश देने के लिए स्वतंत्र होंगे. जहां तक इसे लागू करने (सीआरपीसी की धारा 167) का सवाल है, तो सर्वसमावेशी हुए बगैर हम उम्र, सेहत और आरोपी की पिछली जिंदगी, उस पर लगे अपराध के आरोप की प्रकृति, दूसरे किस्म की हिरासत की आवश्यकता और नजरबंदी की शर्तों को लागू करवाने की क्षमता जैसी कसौटी की ओर इशारा कर सकते हैं.’

तलोजा जेल के अप्रैल, 2020 में भीड़ से भरे होने की जानकारी है और जैसा कि बंबई उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा, इसमें सिर्फ तीन आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संवेदना और मानवता की कमी का प्रदर्शन करते हुए स्टेन स्वामी को रांची से मुंबई लाया गया और एक विचाराधीन कैदी की तरह अपने परिवेश और अपने निवास के सामान्य स्थल से दूर लाकर हिरासत में रखा गया और इस तरह से उनकी धीमे-धीमे हत्या कर दी गई.

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बगैर स्ट्रॉ और सिपर के दो महीनेदिलचस्प यह है कि एनआईए ने उनकी हिरासत नहीं मांगी, बल्कि सीधे कोर्ट से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने का आग्रह किया. इसका कारण काफी स्पष्ट है- पूछताछ के लिए उनकी जरूरत नहीं थी और उनके खिलाफ चार्जशीट पहले से तैयार थी और वास्तव में उसे अगले दायर भी कर दिया गया. ऐसे में उन्हें बंदी बनाने की जरूरत ही क्या थी, और यह काम मुंबई में किया जाना क्यों जरूरी था, रांची में क्यों नहीं? और उनकी उम्र, उनकी स्वास्थ्य स्थिति और दूसरी चिंताओं का क्या?

बंदी बनाये जाने के ठीक बाद अपनी स्वास्थ्य स्थिति (पार्किंसन और उम्र) के मद्देनजर स्टेन स्वामी ने स्वास्थ्य आधार पर अंतरिम जमानत की दरख्वास्त की. दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से उनके आवेदन को 22 अक्टूबर, 2020 को खारिज कर दिया गया. इसके ठीक बाद, चूंकि स्टेन स्वामी पार्किंसन से पीड़ित थे, इसलिए उन्हें पानी समेत दूसरे तरल पदार्थ के सेवन के लिए सिपर और स्ट्रॉ की जरूरत पड़ी. एक सिपर और स्ट्रॉ मुहैया कराने के लिए उन्होंने एक अर्जी लगाई. इस आवेदन पर बेहद असंवेदनशील प्रतिक्रिया दी गई.

सबसे पहले अभियोजन(प्रॉसिक्यूशन) ने जवाब दायर करने के लिए समय मांगा? क्या इसकी जरूरत थी? क्या स्टेन स्वामी को स्ट्रॉ और सिपर मुहैया नहीं कराया जा सकता था? उसके बाद, आश्चर्यजनक तरीके से माननीय जज महोदय ने प्रॉसिक्यूशन को जवाब दायर करने के लिए 20 दिन का वक्त दिया!

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यह हैरान कर देनेवाला था. साफ शब्दों में कहें, तो अगर जेल प्रणाली संवेदलशील और मानवीय होती, तो स्टेन स्वामी को एक स्ट्रॉ जैसी साधारण चीज के लिए ट्रायल कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की जरूरत ही नहीं पड़ती. आखिरकार एक बड़ा एहसान करते हुए स्टेन स्वामी को सिपर मुहैया कराने का आदेश दिया गया. क्या रहम दिखाया गया! यह जख्मों या दर्द को को उंगली से छेड़ने या कुरेदने का यह आदर्श उदाहरण है.

जमानत पर फैसला लेने में लगे चार महीने26 नवंबर, 2020 को स्टेन स्वामी ने अपने स्वास्थ्य समेत कई आधारों पर एक नियमित जमानत के लिए याचिका दायर की. लगता है कि इस मामले में एनआईए उनकी आगे पूछताछ करने की इच्छुक नहीं थी, लेकिन वह उन्हें कुछ कथित अपराधों के लिए दंडित करना चाहती थी- बगैर मुकदमे के ही सजा देना चाहती थी. और इसलिए एनआईए ने जमानत याचिका का जोरदार विरोध किया और आखिरकार लगभग चार महीने के बाद, जिस दौरान स्टेन स्वामी जाहिर तौर पर जेल में बंद थे, जज डीई कोठालिकर के ट्रायल कोर्ट ने 22 मार्च, 2021 को उनकी जमानत याचिका को खारिज कर दिया.

यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि एक जमानत याचिका पर फैसला लेने में इतने महीने क्यों लग गए? क्या इस प्रक्रिया को तेज करना संभव नहीं है, यह ध्यान में रखते हुए कि जमानत मांग रहा व्यक्ति न्यायिक हिरासत में है और उसके लगातार हिरासत में रहने की जिम्मेदारी न्यायपालिका की बनती है. क्या हर विचाराधीन कैदी को आहिस्ता-आहिस्ता मारा जाना जरूरी है?

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स्वास्थ्य के आधार पर अंतरिम जमानत के साथ-साथ नियमित जमानत याचिका के खारिज होने खिन्न होकर स्टेन स्वामी ने बॉम्बे हाईकोर्ट के सामने अपील दायर की. नियमित जमानत की उनकी अर्जी 4 मार्च, 2021 को सुनवाई के लिए आई और मेडिकल रिपोर्ट आदि हासिल करने के लिए चार बार स्थगित हुई.

यह सही है कि माननीय जज महोदय खुद डॉक्टर नहीं होते हैं, लेकिन मेडिकल रिपोर्टों को पढ़ते हुए यह लगता है कि स्टेन स्वामी साफतौर पर किसी नौजवान की तरह तंदुरुस्त नहीं थे, बल्कि कई ऐसी समस्याओं से घिरे हुए थे, जिसका 80 साल से ज्यादा उम्र के व्यक्तियों में पाया जाना स्वाभाविक है.

मेडिकल रिपोर्टों के रहते हुए भी माननीय न्यायधीशों ने स्टेन स्वामी से बात करने का फैसला किया और यह दर्ज किया: ‘हमने पाया कि उनको सुनने में काफी दिक्कत है और वे शारीरिक रूप से काफी कमजोर हैं. बहरहाल, हमने उनके पास बैठे व्यक्ति की मदद से उनसे बात की है. हालांकि, कोर्ट के साथ-साथ ही याचिकाकर्ता की तरफ से उपस्थित होने वाले सीनियर एडवोकेट ने याचिकाकर्ता से इस बाबत पूछा है कि क्या वे जेजे अस्पताल या होली फैमिली समेत उनकी पसंद के किसी अन्य अस्पताल में अपना इलाज करवाना चाहते हैं, मगर उन्होंने यह साफतौर पर कहा है कि वे किसी अस्पताल में अपना इलाज नहीं करवाना चाहते हैं और वे किसी अस्पताल में भर्ती कराए जाने से जेल में मर जाना ज्यादा पसंद करेंगे. उन्होंने कोर्ट को बताया है कि तलोजा अस्पताल लाए जाने के बाद उनका स्वास्थ्य पूरी तरह से बिगड़ गया है और जेल में काफी ‘लेन-देन चलता है.’ इसलिए उन्होंने अंतरिम जमानत दिए जाने का आग्रह किया है.’

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स्टेन स्वामी को उनका पूरा जीवन उनके शब्दों में बयान कर दिया गया जबकि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली धीरे-धीरे अपने गीत से उनका क़त्ल कर रही थी.

वीडियो कॉन्फ्रेंस सत्र के दौरान लाइव लॉ वेब पोर्टल का एक पत्रकार वहां मौजूद था और रिपोर्टों के मुताबिक स्टेन स्वामी ने हाई कोर्ट को यह बताया कि जब उन्हें तलोजा जेल लाया गया था तब उनके शरीर का बुनियादी कामकाजी हिस्सा काम कर रहा था. ‘लेकिन धीरे-धीरे मेरे शरीर के बुनियादी कामकाज करने की क्षमता में लगातार गिरावट आयी है. मैं खुद से चल सकता था, मैं खुद से नहा सकता था. मैं लिख भी सकता था. लेकिन धीरे-धीरे ये काम अब मुझसे नहीं हो पा रहे हैं. जहां तक खाने का सवाल है, मैं ढंग से खा पाने में समर्थ नहीं हूं. कल मुझे जेजे अस्पताल ले जाया गया. वहां मुझे अपनी जरूरतें बताने का मौका मिला. मेरे शरीर में आ रही गिरावट उनके द्वारा दी जा रही छोटी गोलियों की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ी है.’

कोर्ट: क्या तलोजा जेल में आपके साथ अच्छा व्यवहार किया जा रहा है? क्या आपको तजोला जेल के खिलाफ कोई शिकायत है? क्या आप जेजे अस्पताल में भर्ती होना चाहते हैं?

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स्टेन स्वामी : नहीं मैं ऐसा नहीं चाहता. मैं वहां तीन बार गया हूं. वहां वहां की व्यवस्था जानता हूं. मैं वहां भर्ती होना नहीं चाहता हूं. इसकी जगह मैं मर जाना पसंद करूंगा.

प्राप्त जानकारी के मुताबिक उन्होंने यह भी जोड़ा था कि वे अपने साथ रहना पसंद करेंगे. लेकिन अगले दिन उन्हें उनके अपने खर्चे पर जेजे अस्पताल जाने के लिए मना लिया गया.

क्या स्टेन स्वामी को अपनी मौत का पूर्वाभास हो गया था? क्या यूएपीए के प्रावधान भारत के संविधान के प्रावधानों, खासतौर पर अनुच्छेद 21 के प्रावधानों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हैं? क्या देश में सत्ता मैं बैठे लोगों के लिए ज्यादा संवेदनशील, मानवीय, दयालु और गरिमामय होना नहीं संभव है. या हर कोई सत्ता में बैठे लोगों के हाथों तिरस्कार और अपमान पाने के लिए अभिशप्त है?

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यह पूरा प्रकरण हमें इस एहसास से भर देता है कि स्टेन स्वामी के खिलाफ कोई आरोप तय किए बगैर और उन पर कोई मुकदमा चलाए बिना उन्हें एक तरह सजा-ए-मौत दे दी गई.

मेरे मन में यह सवाल आता है कि क्या उनकी आत्मा को शांति मिलेगी, हालांकि मैं इसकी उम्मीद करता हूं. मुझे लगता है कि सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है, ‘फादर, उन्हें माफ कर देना, क्योंकि वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं.’

(मदन बी. लोकुर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हैं.)

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