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बेरोजगारी की हालत आज जितनी खराब है, स्वतंत्र भारत में इससे पहले कभी नहीं थी

बेरोजगारी की हालत आज जितनी खराब है, स्वतंत्र भारत में इससे पहले कभी नहीं थी
The situation of unemployment is as bad as it is today, never before in independent India.
प्रभात पटनायक | 29 Jan 2024
Translated by राजेंद्र शर्मा
=====रोज़गार के बुनियादी अधिकार की मान्यता के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 3% से अधिक खर्च नहीं होगा। इसे भारत की आबादी के टॉप 1% हिस्से पर केवल 0.8% संपत्ति कर के माध्यम से जुटाया जा सकता है।======
बेरोजगारी की हालत आज जितनी खराब है, स्वतंत्र भारत में इससे पहले कभी नहीं थी। दो अलग-अलग तत्वों ने ये हालात बनाने में योग दिया है। एक तो यह कि महामारी से जुड़े लॉकडाउन के चलते उत्पाद में जो गिरावट आयी थी, उससे उत्पाद की बहाली के साथ, रोजगार में तुलनीय बहाली नहीं हुई है। वास्तव मेें, भले ही 2023-24 का सकल घरेलू उत्पाद 2019-20 से करीब 18 फीसद बढ़कर रहने का अनुमान है, सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार, पिछले पांच वर्ष में रोजगार में वृद्घि शून्य ही रही है। जीडीपी की रोजगार सघनता में यह गिरावट इसलिए हुई है कि उत्पाद की बहाली, छोटे तथा मंझले पैमाने के उद्योगों में, बड़े पैमाने के उद्योगों के मुकाबले कहीं कम दृश्यमान रही है और लघु तथा मंझले उद्योग, बड़े उद्योगों के मुकाबले कहीं ज्यादा रोजगार सघन होते हैं।
Unemployment situation is bad in India बहरहाल, एक अतिरिक्त कारक भी है। 2019 में भी रोजगार की स्थिति गंभीर हो चुकी थी। वास्तव में 2019 में बेरोजगारी की दर, 1973 में तेल की कीमतों में पहली बढ़ोतरी के बाद जो मुद्रास्फीति से जुड़ी मंदी आयी थी, उस दौर के बाद से सबसे ऊपर पहुंच चुकी थी। दूसरे कारक का महामारी से और उससे बहाली के मामले में विभिन्न क्षेत्रों के बीच असमानता से, कुछ लेना-देना ही नहीं है। इसके बजाए, इसका संबंध तो नवउदारवादी शासन से जुड़ी अंतर्निहित प्रवृत्तियों से है। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि भले ही, सरकारी आंकड़े जीडीपी की औसत वृद्घि दर, नवउदारवाद से पहले के नियंत्रणात्मक शासन की तुलना में दोगुनी रहने की कहानी सुनाते हैं, रोजगारों की संख्या में वृद्घि की दर, नवउदारवादी शासन में, पहले वाले शासन की तुलना में आधी रह गयी है।
नवउदारवादी दौर में रोजगार वृद्घि दर क्यों गिरी?
रोजगार में वृद्घि की दर में गिरावट होने की वजह से, नवउदारवादी दौर में रोजगार में वृद्घि की दर, श्रम शक्ति में वृद्घि की औसत दर से नीचे चली गयी है और रोजगार में वृद्घि की दर में इस गिरावट की वजह है, श्रम की उत्पादकता में कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ोतरी होना, जोकि अर्थव्यवस्था में और ज्यादा खुलापन लाए जाने का नतीजा है। खुलापन बढ़ने से भारतीय बाजारों के लिए, देशों की सीमाओं के आर-पार के उत्पादकों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ी है और यह प्रौद्योगिकी में बदलाव कहीं ज्यादा तेजी से लाए जाने की ओर ले गया है। और यह सामान्य रूप से श्रम उत्पादकता में कहीं तेजी से बढ़ोतरी पैदा करता है। इसके साथ-साथ, कृषि संकट उन्मुक्त कर दिया गया है, जोकि किसानी खेती के लिए सरकारी मदद से हाथ खींचे जाने का नतीजा है। इसने पलटकर, बड़ी संख्या में किसानों को अपने परंपरागत पेशे से उखाड़ दिया है और उन्हें शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया है, जहां उन्होंने निराश रोजगार खोजने वालों की संख्या को और बढ़ा दिया है।
इसे अलग तरीके से कहें तो नवउदारवादी शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत अनियंत्रित या मुक्त पूंजीवाद को लाने का काम किया है और अनियंत्रित पूंजीवाद तो अनिवार्य रूप से कहीं ज्यादा बेरोजगारी पैदा करता ही है। यह जिस प्रकार के तंत्र के जरिए होता है, उसे दर्ज किए जाने की जरूरत है। मान लीजिए कि किसी एक अवधि में, मौजूदा पूंजी स्टॉक के सहारे, 100 श्रमिकों को लगाकर, 100 इकाई उत्पाद पैदा किया जा सकता था, तो अब अगर नयी प्रौद्योगिकी आ जाती है, जिससे श्रम की उत्पादकता दोगुनी हो जाती है तो इसके बाद 100 इकाई उत्पाद के लिए, सिर्फ 50 श्रमिकों की जरूरत रह जाएगी और शेष 50 श्रमिक बेरोजगार हो जाएंगे। और बेरोजगारी में इस बढ़ोतरी की वजह से ही, बेरोजगार रह गए श्रमिकों के लिए मजदूरी की दर भी पहले की तुलना में ऊपर नहीं जा सकेगी। इस तरह कुल वेतन बिल ही, श्रम उत्पादकता में बढ़ोतरी के लिए आधा रह जाएगा और इस तरह मुनाफों का हिस्सा बढ़ जाएगा।
आय की असमानता में इस बढ़ोतरी से या कहें कि मजदूरी के पलड़े से मुनाफों के पलड़े में संसाधनों के इस हस्तांतरण से, उपभोग में कमी आती है (क्योंकि मुनाफों की तुलना में, मजदूरी का कहीं बड़ा अनुपात उपभोग में जाता है) और इसीलिए सकल मांग में कमी आती है। इससे ओवर प्रोडक्शन का संकट पैदा होता है और इससे बेरोजगारी और बढ़ जाती है।
बेरोकटोक पूंजीवाद और बेरोजगारी
Unemployment situation is bad in India वास्तव में इसी मामले में जाने-माने अंग्रेज अर्थशास्त्री, डेविड रिकार्डो से चूक हो गयी थी। यह स्वीकार करने के बावजूद कि मशीनरी के लाए जाने (यानी प्रौद्योगिकी में बदलाव) से बेरोजगारी पैदा होती है, उन्होंने यह सोचा था कि इस तरह के बदलाव से जो बढ़े हुए मुनाफे आएंगे, उनसे निवेश में तथा इसलिए उत्पाद में और रोजगार वृद्घि में बढ़ोतरी होगी, जिसके चलते रोजगार में जो भी गिरावट आएगी भी वह अस्थायी ही होगी। वक्त गुजरने के साथ, मशीनरी लाए जाने के बाद का रोजगार का समय-प्रोफाइल, मशीनरी लाने से पहले के रोजगार प्रोफाइल से आगे निकल जाएगा। दूसरे शब्दों में मशीनरी, हालांकि अस्थायी तौर पर बेरोजगारी पैदा करती है, फिर भी दीर्घ अवधि में रोजगार के लिए बेहतर ही साबित होती है।
The situation of unemployment is as bad as it is today, never before in independent India. लेकिन, रिकार्डो तो से (Say) के नियम में विश्वास करते थे और कभी भी मांग की किसी समस्या को संज्ञान में ही नहीं लेते थे। इसीलिए, वह कभी इसकी संकल्पना नहीं कर सके कि पहले से ही मुनाफे बढ़ जाने से कभी भी निवेश में बढ़ोतरी नहीं होती है। उल्टे, मजदूरी की कीमत पर ज्यादा मुनाफा होना, मांग के घटने और इसलिए निवेश के घटने की ओर ले जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रौद्योगिकीय परिवर्तन से जो शुरूआती बेरोजगारी पैदा होती है, बेरोकटोक या अनियंत्रित पूंजीवाद के अंतर्गत और ज्यादा तथा बड़ी बेरोजगारी को जन्म देती है।
वास्तव में, बेरोक-टोक पूंजीवाद की तो पहचान ही बारहमासी, जन-बेरोजगारी से होती है जो श्रम की सुरक्षित सेना के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था के लिए बेरोजगारी के जिस न्यूनतम स्तर की जरूरत होती है, उससे कहीं ज्यादा होती है और इस अतिरिक्त बेरोजगारी के लिए प्रौद्योगिकीय बदलाव जिम्मेदार है, क्योंकि वह अनिवार्य रूप से विस्तारित बेरोजगारी पैदा करता है। इसके विपरीत, समाजवादी व्यवस्था में प्रौद्योगिकीय बदलाव काम की कष्ट साध्यता को कम करता है और मजदूरी के हिस्से में कोई कटौती किए बिना, श्रम शक्ति के विश्राम के समय में बढ़ोतरी करता है। मिसाल के तौर पर हम पीछे जो उदाहरण दे आए हैं उसमेें ही, जहां प्रौद्योगिकीय बदलाव से श्रम उत्पादकता दोगुनी हो जाती है, एक समाजवादी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी पैदा नहीं होगी बल्कि इसके बजाए काम के घंटे ही आधे हो जाएंगे, जबकि रोजगार ज्यों का त्यों बना रहेगा और मजदूरों को पहले वाली दर से ही मजदूरी मिल रही होगी। हैरानी की बात नहीं है कि आधुनिक समय में ऐसे अकेले देश, जहां पूर्ण रोजगार हुआ करता था (यहां तक कि श्रम की तंगी तक रही थी) सोवियत संघ और पुराने पूर्वी यूरोपीय समाजवादी देश ही थे। इसके विपरीत, सभी पूंजीवादी देशों पर जन-बेरोजगारी का बोझ लदा ही रहता है। और नवउदारवाद ने अपेक्षाकृत बेरोक-टोक पूंजीवाद लाने के जरिए भारत को, महामारी के क्षितिज पर प्रकट होने से काफी पहले ही, ऐसी अवस्था में पहुंचा दिया था।
बेरोजगारी के लिए समाज व्यवस्था जिम्मेेदार!
The situation of unemployment is as bad as it is today, never before in independent India. कोई व्यक्ति अगर बेरोजगार है, तो यह उसका अपना कसूर तो होता नहीं है। यह उस समाज व्यवस्था का ही कसूर है, जिस में वह व्यक्ति जी रहा होता है। आखिरकार, सामाजिक व्यवस्था ही तो उसके लिए रोजगार मुहैया कराने में असमर्थ रही होती है। तब सवाल यह उठता है कि रोजगार के मामले में जनतांत्रिक मांग क्या हो सकती है? जनतांत्रिक मांग से मेरा आशय ऐसी मांग से है जो बस समाजवाद का तकाजा नहीं करती हो क्योंकि उसका तकाजा करने का मतलब तो बेरोजगारों के लिए किसी भी राहत के विचार को, समाजवाद आने तक के लिए स्थगित करना होगा। मेरा आशय एक ऐसी मांग से है जो बेरोजगारों की सन्निकट मांगों पर आधारित हो, लेकिन जिसकी सीमाएं सिर्फ इससे तय नहीं हो रही हों कि बेरोकटोक पूंजीवाद, किसकी इजाजत दे सकता है।
इस तथ्य को कि नागरिकों को जिस बेरोजगारी (तथा इसके चलते गरीबी) को झेलना पड़ रहा है, उसकी जिम्मेदारी समाज को अपने ऊपर लेनी चाहिए, भारत की पंजीवादी राजनीतिक पार्टियों ने भी, चाहे हिचकिचाहट के साथ ही सही, स्वीकार करना शुरू कर दिया है और ये पार्टियां सभी को एक ‘बुनियादी न्यूनतम आय’ मुहैया कराने की बात करने लगी हैं। लेकिन, प्रस्तावित बुनियादी न्यूनतम आय बहुत ही मामूली तो है ही, इसके अलावा इसे कभी भी कतरा जा सकता है। इतना ही नहीं इसका स्वरूप सरकार की ओर से दी जाने वाली खैरात का, इस या उस सरकार द्वारा जनता पर की जाने वाली कृपा का ही है। लेकिन अवाम कोई याचक नहीं हैं और उन्हें देश के नागरिकों की गरिमा के अनुरूप एक अधिकार के रूप में रोजगार मिलना चाहिए और जब तक वह संभव न हो पूरी मजदूरी मिलनी चाहिए, न कि कोई मामूली सा बेरोजगारी भत्ता।
बुनियादी अधिकार के रूप में रोजगार
रोजगार के इस तरह के अधिकार को स्थापित करने पर जोकि सार्वभौम होना चाहिए, जिसकी संविधान के जरिए गारंटी की जानी चाहिए और जिसे उसी तरह न्यायसिद्घ या जस्टिसेबल होना चाहिए, जैसे कि संविधान के अंतर्गत गारंटी किए गए राजनीतिक तथा नागरिक अधिकार हैं, देश को अपने जीडीपी का 3 फीसद से ज्यादा किसी भी तरह खर्च नहीं करना पड़ेगा। एक मोटा-मोटी गणना से यह साबित किया जा सकता है। अगर एक बेरोजगार मजदूर को दिए जाने वाली मजदूरी का वेटेड औसत 20,000 रूपये प्रति माह माना जाए और बेरोजगारी की दर 10 फीसद यानी बेरोजगारों की संख्या लगभग 4 करोड़ लगायी जाए, तो अगर सभी बेरोजगारों को मजदूरी की इस दर का भुगतान करना हो तो, इस पर 9.2 लाख करोड़ रूपये खर्च करने होंगे। यह 2023-24 के लिए चालू कीमतों पर सकल घरेलू उत्पाद का जो अनुमान लगाया गया है, उसके 3.2 फीसद के ही बराबर है।
The situation of unemployment is as bad as it is today, never before in independent India. बहरहाल, इतने सारे बेरोजगारों के हाथों में क्रय शक्ति देने भर से मालों के लिए मांग पैदा होगी और इससे और ज्यादा उत्पाद पैदा होगा तथा इसलिए रोजगार पैदा होगा (क्योंकि अर्थव्यवस्था इस समय मांग-बाधित है)। इसलिए, बेरोजगारों के एक हिस्से को ही सरकार के बजट से यह मजदूरी देने की जरूरत पड़ेगी, जबकि बाकी को तो इसका लाभ हासिल करने वालों द्वारा किए जाने वाले खर्चों से ही रोजगार मिल जाएगा। इसलिए, सरकारी खजाने पर बोझ, वास्तव में जीडीपी के 3.2 फीसद की तुलना में काफी हल्का ही होगा।
यदि हम यह मानते हैं कि एक व्यक्ति को इस तरह मजदूरी देने से, मालों की इतनी मांग पैदा होगी कि उससे एक और व्यक्ति को रोजगार मिल सकता हो, तो सरकार को वास्तव में 9.6 करोड़ का ठीक आधा यानी 4.8 लाख करोड़ ही इस काम पर खर्च करना होगा, जो जीडीपी के सिर्फ 1.6 फीसद के बराबर बैठता है। इतना ही नहीं, 4.8 लाख करोड़ रुपये मूल्य के अतिरिक्त उत्पादन से सरकार को कुछ कर राजस्व भी तो हासिल होगा। और अगर इन कर प्राप्तियों के भी सरकार द्वारा उसी अवधि में खर्च किए जाने की संकल्पना लेकर चलें तो, जीडीपी का उक्त 1.6फीसद भी सब का सब अतिरिक्त कराधान से जुटाए जाने की जरूरत नहीं होगी। इसके लिए आवश्यक अतिरिक्त कराधान कहीं कम रहेगा, निश्चित रूप से जीडीपी के 1.5 फीसद से तो घटकर ही रहेगा। इतने वित्तीय संसाधन तो, भारत की आबादी के सबसे ऊपर के 1 फीसद हिस्से पर सिर्फ 0.8 फीसद संपदा कर लगाने के जरिए ही जुटाए जा सकते हैं!
यह बोझ इतना छोटा सा है कि रोजगार के इस तरह के अधिकार का (अगर संविधान संशोधन मुश्किल लगे तो एक संसदीय कानून बनाने के जरिए ही जैसाकि मनरेगा के मामले में किया गया था) प्रावधान नहीं किया जाना, कर्तव्य से विमुख होने का आपराधिक कृत्य ही लगता है।
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