AtalHind
टॉप न्यूज़राजनीतिराष्ट्रीय

Sarcasm: लिया-दिया पर्दे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ!

कटाक्ष: लिया-दिया पर्दे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ!
कम से कम पिछला हिसाब तो पर्दे में रहने देते। पिछला हिसाब सामने आया तो हम दो हमारे दो-पांच का राज भी तो खुल जाएगा।

BY-राजेंद्र शर्मा
Advertisement
Sarcasm: Let the given be behind the curtain, don’t lift the curtain! अब ये सुप्रीम कोर्ट वालों को क्या उचंग सूझी। बताइए, चुनावी बांड की पूरी की पूरी व्यवस्था को ही असंवैधानिक कहकर रद्द कर दिया। अच्छी खासी चलती हुई गाड़ी में डंडा अड़ा दिया। सब कितना बढिय़ा चल रहा था।
Advertisement
पार्टियों के पास भर-भरकर पैसा आ रहा था। क्या हुआ किसी के पास कम, किसी के पास बहुत ज्यादा आ रहा था, पर हल्दी तो ज्यादातर पार्टियों की पीठ में लगी ही थी। और इक्का-दुक्का लाल झंडे वालों के पास नहीं आ रहा था, तो उनकी ऐंठ की वजह से।
कमाई चार पैसे की नहीं और हिमाकत इसकी शर्तें लगाने की कि फलां से चंदा ले सकते हैं पर कारपोरेटों से चंदा नहीं लेंगे; ऐसे चंदा ले सकते हैं, पर चुनावी बांड से चंदा नहीं लेंगे। जैसे पैसे वाले मरे जा रहे हों, इनको चंदा देने के लिए! यानी खामखां दूसरों का मजा किरकिरा करने वाले।
Advertisement
खैर! पार्टियों के पास भर-भरकर पैसा आ रहा था, तो हवाई जहाज पर हवाई जहाज उड़ रहे थे। गाडिय़ों पर गाडिय़ों दौड़ रही थीं। सभाओं पर करोड़ों उड़ रहे थे। सभाओं में आने वालों को अच्छी दिहाड़ी भी मिल रही थी; खाना, पीना, ढोकर पहुंचाना ऊपर से।
Advertisement
कार्यकर्ताओं को छ:-छ: अंकों में तनख्वाह मिल रही थीं। विज्ञापनों में करोड़ों रुपये बह रहे थे। छवि निर्माताओं से लेकर, चुनाव रणनीतिकारों तक, नये-नये धंधे फल-फूल रहे थे। चुने हुए तो चुने हुए, उम्मीदवारों तक के पार्टी बदल के लिए ऊंचे रेट लग रहे थे। और तो और जहां-तहां हर वोट का भी चार अंक में दाम मिल रहा था।
यानी विकास ही विकास था; चहुंदिश खुशहाली ही खुशहाली थी। बाकी सब की इस खुशहाली में करोड़ रुपये के बांडों में जो योगदान दे सकते थे, योगदान दे रहे थे और सरकार समेत पूरे देश का आशीर्वाद हासिल कर, खुद भी खूब खुशहाल हो रहे थे। यानी कोरा अमृतकाल ही नहीं था खासा राम राज्य आया हुआ था। डेमोक्रेसी की मम्मी वाले ट्विस्ट के साथ। पर सुप्रीम कोर्ट ने राम राज्य का विकेट ही उड़ा दिया।
Advertisement
kataaksh: liya-diya parde mein rahane do, parda na uthao! और इस राम राज्य में खलल डालने के लिए सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) ने बहाना क्या बनाया है? कहते हैं कि ये डेमोक्रेसी की मांग है। वह कैसे? किसी बंदे ने चुपचाप करोड़ों रुपया दिया, किसी पार्टी ने चुपचाप करोड़ों रुपया रख लिया और पब्लिक समेत बाकी किसी को पता ही नहीं लगने दिया तो इसमें तो चोरी-छिपे लेन-देन हो सकता है; सरकारी फैसलों का ही सौदा हो सकता है। डेमोक्रेसी में इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती।
और यह भी कि इस व्यवस्था में तो जिसके पास सरकार है, वही पैसा बटोरने में सरदार है। फिर पार्टियों के लिए बराबरी का मैदान कहां रहा जिसमें ईमानदारी से डेमोक्रेसी का खेल हो सके? और भी न जाने क्या-क्या दुहाइयां, डेमोक्रेसी की। लेकिन, अगर वह सब सही भी हो तब भी कम से कम सुप्रीम कोर्ट को इतना तो सोचना चाहिए था कि वह सब सिंपल डेमोक्रेसी के लिए भले सही हो, पर क्या डेमोक्रेसी की मम्मी के लिए भी सही होगा?
Advertisement
मदर आफ डेमोक्रेसी(democracy) को आप उन नियम-कायदों से कैसे हांक सकते हैं जो हद से हद सिंपल डेमोक्रेसी के लिए सही हो सकते हैं, जो यूरोप वगैरह में पाई जाती है। कहां तो मोदी जी गुलामी की निशानियां मिटाने के लिए, गहरी खुदाई में से निकालकर डेमोक्रेसी की मम्मी को आगे ला रहे हैं और कहां हमारे ही सुप्रीम कोर्ट वाले, यूरोप वालों के पैमाने से नाप पर, हमारी डेमोक्रेसी की मौलिकता को ही, डेमोक्रेसी का दुश्मन बता रहे हैं। यह तो राष्ट्रप्रेमियों वाला चलन नहीं है।
फिर, पश्चिम वालों की डैमोक्रेसी की परिभाषा में भी तो निजता या प्राइवेसी का भारी महत्व है। भारी महत्व क्या वह तो उनकी डेमोक्रेसी की परिभाषा का प्राण है। प्राइवेसी नहीं, तो डेमोक्रेसी नहीं। फिर डेमोक्रेसी के नाम पर कोई अदालत इसकी मांग कैसे कर सकती है कि अडानी जी की कंपनी, चंदा तो दे मोदी जी की पार्टी को और इसकी जानकारी दे दुनिया भर को? देने वाला दे रहा है, लेने वाला ले रहा है, इसमें दूसरे किसी को नाक घुसाने की जरूरत ही क्या है!
Advertisement
मियां-बीवी राजी, तो क्या करेगा काजी! नोट कर के रख लीजिए। यह बात यहीं रुकने वाली नहीं हैै। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पैसा देने वाले मियां की तरफ से जरूर चैलेंज किया जाएगा। मियां-बीवी के बीच जो लेनदेन है, वह तो उनकी निजता का मामला है फिर जो निजी है उसे पब्लिक करने की मांग क्यों की जा रही है? इस देश में तो गुप्तदान की परंपरा रही है बल्कि जो गुप्त रहे, उसी दान को असली दान माना जाता है। तब राजनीतिक दान को सार्वजनिक कराने की जिद क्यों?
दान देने वाले की इसकी स्वतंत्रता की रक्षा भी तो जरूरी है कि चाहे तो गुप्तदान करे या ढोल पीटकर दान दे। और इस सब में पब्लिक के जानने-वानने के किसी अधिकार की तो कोई बात आती ही नहीं है। मोदी जी की सरकार ने तो अदालत को पहले ही साफ-साफ बता दिया था कि भारतीय पब्लिक के लिए, जितना व्हाट्सएप, गोदी मीडिया वगैरह से जितना बता दिया जाता है, उतना ही काफी है।
Advertisement
सब कुछ जानने का पब्लिक को कोई अधिकार नहीं है। बड़े लोगों की बड़ी बातें, पब्लिक जानकर वैसे भी करेगी भी क्या? उसे तो सिर्फ इतना याद रह जाए तो ही बहुत है कि पांच किलो मुफ्त राशन के थैले पर जिन मोदी जी की फोटो है, वोट उनको ही देना है। पर क्या पब्लिक को अब इतना भी याद रहेगा?
अदालत ने भी ऐन तब चुनावी बांड व्यवस्था को रद्द किया है, जब चुनाव दरवाजे पर खड़े हैं। नहीं हम यह नहीं कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने भड़ से मुंह खोला और बेेचारी सरकार की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। हम झूठ क्यों बोलेंगे, सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने हिसाब से खूब सोच-विचार के मुंह खोला है। और जितना टैम सोच-विचार में लिया वो लिया, उससे कर्ई साल ज्यादा टैम सोच-विचार शुरू करने के इंतजार में लिया है। पर ऐसे टैम निकालने का क्या फायदा, जब ऐन चुनाव के मौके पर मुश्किल आन खड़ी हो गयी। नहीं बात सिर्फ और पैसा आने की नहीं है। बात सिर्फ आइंदा गुप-चुप पैसा नहीं मिल पाने की भी नहीं है। बात है, पिछले लिए-दिए का सारा हिसाब सामने आने की। कम से कम पिछला हिसाब तो पर्दे में रहने देते। पिछला हिसाब सामने आया तो हम दो हमारे दो-पांच का राज भी तो खुल जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
Advertisement
Advertisement

Related posts

editor

पटौदी जाटोली मंडी नगर परिषद अध्यक्ष के लिए 11 दावेदार उम्मीदवार मैदान में

atalhind

फरुखनगर तहसील में किसी की भी जान जा सकती थी !

editor

Leave a Comment

URL