
लोकतंत्र की सबसे छोटी और सबसे जमीनी स्तर की इकाई पंचायत के चुनाव का डंका बज चुका है। लगभग 2 वर्ष के कठिन और उबाऊ इंतजार के बाद गांवों की सरकार के चुनाव का ऐलान हो चुका है और चुनावी ऐलान के साथ ही सरपंची और जिला परिषद के लिए ताल ठोकने वाले उम्मीदवार मैदान में उतर चुके हैं।
वैसे तो यह चुनाव आपसी भाईचारे और सद्भाव का माना जाता है लेकिन जितनी प्रतिस्पर्धा इन चुनावों में होती है उतनी प्रतिस्पर्धा शायद विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी नहीं संभव होती क्योंकि यह चुनाव एक-एक वोट से हार जीत का अंतर सुनिश्चित करता है। चुनाव का ऐलान होते ही त्योहारी सीजन में छोटे सरकार बोले तो पोस्टरों की बहार आने वाली है।
जिसमें सभी उम्मीदवार अपने आप को योग्य, कर्मठ, मेहनती, शिक्षित, सामाजिक, ईमानदार और भी तमाम तरह के स्वघोषित विशेषणों से नवाजेंगे और उसके साथ ही शुरू हो जाएगा सिलसिला घर-घर जाकर लोगों के पैर पकड़ने का लेकिन इतना भर किसी भी रुप से विरोधाभास की श्रेणी में भी नहीं आता लेकिन जो इसके बाद शुरू होता है। वह यह दर्शाने के लिए काफी है कि हम सब छोटे सरकार को ही चुनते समय जातिवाद, परिवारवाद, धनबल, बाहुबल, दारू बाजी, पैसे बांटना समेत अनेकों लालचों से घिर जाते हैं। छोटी सरकार के राजा कहलाने और झूठी शान के चक्कर में अधिकतर उम्मीदवारों द्वारा जमकर पैसा लुटाया जाता है।
दारू बांटने से लेकर, पैसे बांटने और अन्य तरह के लालच देने समेत साम दाम दंड भेद समेत सभी नीतियों का प्रयोग जमकर होता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि उम्मीदवार अपनी मनमर्जी से अपने धन के सभी द्वारा खोल कर अपनी जमाबंदी लुटाना चाहता है। अक्सर लोगों को यह कहते सुना है कि जब तक चुनावों में लोग दारू से न नहाये और लोगों में पैसों का वितरण न हो और लोगों की दिली ख्वाहिश चुनावों के दौरान पूरी ना हो तो भला चुनाव कैसा और अक्सर यह कहकर चुनावों की हवा को कुछ लालची और शरारती तत्वों द्वारा ऐसे उम्मीदवारों के पक्ष में करने का प्रयत्न रहता है, जो उनकी हर ख्वाहिश को पूरा करता हो।

चुनाव विश्लेषकों के अनुसार छोटी सरकार के चुनावों के दौरान एक सरपंच उम्मीदवार कम से कम 5 लाख से शुरू कर 50 लाख तक और जब बात मूंछ के सवाल किया जाए तो लोग इससे भी अधिक पैसे खर्च करने से नहीं हिचकते और बड़ी संख्या में लोग भी इसे चुनावी त्योहार की तरह मनाते हैं।
अब विचार करने वाली बात यह है कि जो व्यक्ति पंचायत चुनाव में इतनी बड़ी धनराशि खर्च करेगा तो वह गांव का विकास कैसे करेगा क्योंकि सर्वप्रथम तो कायदे से वह अपने उन पैसों को पूरा करेगा जो कम से कम उसने चुनाव में खर्चे हैं और लोगों ने खर्चवाकर मजे लिए हैं। चुनाव जीतने के बाद उन्हीं लोगों के टैक्स की कमाई से गांव के विकास के लिए आए बजट में से वह सारा का सारा चुनावी दौरान का खर्चा सूद समेत वसूल लेता है।
हरियाणा में तो एक कहावत भी है कि अपना घर फूंकता देखने में किसी को मजा नहीं आता इसलिए पहले बारी जनता की होती है और फिर चुनाव के बाद कायदे से प्रतिनिधि की। दरअसल बड़ी संख्या में उम्मीदवार इसे बिजनेस की तरह लेकर चुनाव से पहले लोगों पर खर्चा कर इन्वेस्टमेंट करते हैं बाद में गांव के विकास के पैसे से को सूद समेत वसूल कर व्यापार, अब हिसाब लगा लीजिए कि चुनाव एक शिक्षित, ईमानदार, कर्मठ, सामाजिक भाईचारे और सद्भाव वाले, सुख दुख के साथी का करना है या अपने चुनाव के पैसे पूरे करने के लिए गांव के विकास पर डाका मारने वाले लुटेरे का, क्योंकि जब तक हम स्वयं नहीं बदलेंगे तब तक हम सिस्टम बदलने की उम्मीद भी नहीं कर सकते।
पंचायत चुनाव राजनीति की प्रथम सीढ़ी है और इसी सीडी पर अगर हम गलत व्यक्ति को चुनकर गांव के विकास के लिए देखते हैं तो यह कायदे से संभव नहीं है। लाखों रुपए खर्च करवा कर अगर आप सोचते हैं कि कोई व्यक्ति आपके गांव का विकास करवा देगा तो इसको भूल जाइए क्योंकि अक्सर यह देखने में भी आया है कि जब लाखों खर्च करने के बाद कोई व्यक्ति जीत जाता है तो जब गांव के ग्रामीण उसके पास किसी कार्य को लेकर पहुंचते हैं तो वह सीधा कहने लगता है कि वह तो लाखों खर्च रुपए करके चुना गया है और उसे अधिक खर्च करने की वजह से चुना गया है ना कि काम करवाने के लिए तो भला काम की उम्मीद कैसे।
अगर चुनाव से करना है तो ईमानदारी और पारदर्शिता को भूल जाए और आपको किसी को कोसने का हक भी नहीं बनता आप ही सड़ गल चुके सिस्टम को बढ़ावा देने का हिस्सा हैं इसलिए यह जिम्मेदारी हम सभी की बनती है कि अब इस चुनावों के दौर में सिस्टम को बदलने के लिए शुरुआत छोटी सरकार से करें।
अपने आसपास के सभी उम्मीदवारों की पंचायत कर निर्णय लें कि चुनावों के दौरान कोई भी जातिवाद, शराब बाजी और पैसे बांटना समेत कुछ भी अनैतिक करने वाले उम्मीदवार का पूरे गांव द्वारा बहिष्कार किया जाएगा और उन लोगों का भी जो उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाते हैं। जब गांव की सरकार का मुखिया ऐसे व्यक्ति को चुनेंगे, जिस के चुनाव में कुछ भी खर्च नहीं हुआ तो निश्चित रूप से उस व्यक्ति में भी गांव के विकास करवाने का जज्बा पैदा होगा क्योंकि पूरे गांव ने ऐसे व्यक्ति को सिर्फ विकास करवाने के लिए चुना होगा।
अब जबकि छोटी सरकार के चुनाव का डंका बज ही चुका है तो युवाओं को भी इसमें अधिक से अधिक हाथ आजमाना चाहिए क्योंकि राजनीति की सीढी का प्रथम द्वार पंचायत चुनाव ही हैं और जब तक शिक्षित युवा राजनीति में नहीं उतरेंगे तब तक युवाओं की किस्मत का फैसला अनपढ़ और भ्रष्टाचार के कीड़ों से होता रहेगा और युवा पीढ़ी सिर्फ सोशल मीडिया पर क्रांति लाने तक सीमित रह जाएगी लेकिन उस क्रांति का तब तक कुछ लाभ नहीं जब तक युवा पीढ़ी अपने भाग्य का फैसला अपने आप करने के लिए मैदान में न उतरे। छोटी सरकार के सहारे अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कर ऐसे मापदंड सुनिश्चित करें ताकि लोगों में उम्मीद का भाव जाग सके और स्वच्छ राजनीति का द्वार तय हो।
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