भारत में धर्म और भगवान पर चुनाव होंगे तो संविधान तथा देश की रक्षा कैसे होगी?
सवाल है कि राम मंदिर को लेकर 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अंतिम फैसला सुनाए जाने के बाद पूरे चार साल तक मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही. जवाब यही है कि 2024 के आम चुनावों के कुछ दिन पहले ही रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बहाने हिंदुत्व का डंका बजाकर वोटों की लहलहाती फसल काटना आसान बन जाए.
BY-उमाकांत लखेड़ा
बात 4 नवंबर 1989 की है. स्थान दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय था, जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव घोषणा-पत्र का जारी हुआ था. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी उसके ठीक एक दिन पहले ही अयोध्या-फैजाबाद में एक चुनावी रैली का श्रीगणेश करके आए थे.
शाहबानो केस और अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद परिसर में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने के बाद वह पहली चुनावी रैली इसलिए बरबस याद की जाती है, क्योंकि उस रैली में राजीव गांधी ने ऐलान किया था कि कांग्रेस सत्ता में वापसी करेगी तो देश में राम राज्य की स्थापना की जाएगी.
यह दीगर बात है कि कांग्रेस नवंबर 1989 के आम चुनावों में 198 लोकसभा सीटें जीतने के बाद भी सत्ता में वापसी नहीं कर सकी थी. उसके बाद वीपी सिंह और चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के विरोध और समर्थन से बनी क्रमवार दो सरकारें गिरीं और 1991 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव ने केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार ने कांग्रेस के सत्ता में आने का रास्ता खोला.
राजीव गांधी की अयोध्या-फैजाबाद रैली के ठीक अगले दिन चुनाव घोषणा-पत्र जारी करने का कार्यक्रम था. इस मौके पर हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद संवाददाताओं के जवाब में राम राज्य की परिभाषा के सवाल से राजीव गांधी कुछ सकपका गए थे.
सवाल उनसे यह था कि एक दिन पहले अयोध्या में जिस राम राज्य लाने का ऐलान वे कर आए, उसी तरह का ऐलान विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी कर रहे हैं.
इसी तरह अतीत में महात्मा गांधी ने भी देश में राम राज्य की स्थापना का सपना संजोया था. ऐसे में उनके राम राज्य और आपके राम राज्य में अंतर क्या है – तो जवाब में राजीव गांधी ने यह कहा था कि राम राज्य लाने का हमारा ऐलान कांग्रेस और हमारी विचारधारा के अनुरूप होगा.
साढ़े तीन दशक की इस लंबी यात्रा में गंगा, यमुना और सरयू में न जाने कितना पानी बह चुका होगा.
कई चिंतक और विचारक बेहद शिद्दत से मानते हैं कि राम मंदिर आंदोलन के बाद जब सर्वोच्च अदालत ने चार साल पहले (2019) हिंदू आस्था और विश्वास के सम्मान में राम मंदिर के हक में फैसला दे दिया तो अब नए सिरे से धर्म और आस्था के भेद और विभेदों की खाई को पाटने के बजाय और चौड़ा करने से नफरत और बढ़ सकती है. इससे धार्मिक सौहार्द्र, भाईचारा और सहिष्णुता की भारतीय जीवनशैली को प्रभावित होने से कैसे रोका जा सकेगा.
आज ठीक 34 बरस बाद कांग्रेस ने अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में जाना इसलिए स्वीकार नहीं किया, क्योंकि राम राज्य लाने की परिकल्पना के बारे में कांग्रेस का सोच ही अलग है.
जाहिर है उस दौर में पहले राम मंदिर के ताले खुलवाने के घटनाक्रम और बाद में विवादित स्थल पर शिलान्यास कराने में भागीदारी की उलटबासियों ने अल्पसंख्य्कों और मध्यम वर्ग में कांग्रेस के जनाधार को खिसका दिया और उसके बाद मंदिर और मंडल की राजनीति की बियाबान में कांग्रेस अपने अस्तित्व की तलाश में भटकती चली गई.
धर्म और राजनीति की इस झंझावत के बाद देश और आने वाली भारत की पीढ़ियों को धर्म की राजनीति और राजनीति के धर्म की बारीकियों को समझाना एक बड़ी चुनौती है.
यही गंभीर वैचारिक विरोध साढ़े तीन दशक बाद भी कांग्रेस को संघ परिवार और भाजपा की धर्म की राजनीति की चादर ओढ़कर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की विद्वेषपूर्ण सियासत से अलग करती है.
आगामी 22 जनवरी को कांग्रेस ने अगर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से स्वयं को अलग किया तो इसकी कई अहम वजहें हैं. यह कांग्रेस के लिए जोखिम और दांव दोनों हैं. यानी करो या मरो की लड़ाई की तरह.
यह सच कैसे छिपेगा कि जब अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर 2019 को अपना अंतिम फैसला सुना दिया था, सवाल उठना लाजमी है कि आधे अधूरे मंदिर में ही प्राण प्रतिष्ठा करनी थी तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के पूरे चार साल तक मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही!
लोगों के पास इसका सीधा जवाब यही है कि मोदी सरकार पूरे चार साल इसी जुगत में आंखे मूंदकर बैठी रही ताकि 2024 के आम चुनावों के कुछ दिन पहले ही रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बहाने इस मामले को हिंदुत्व का डंका बजाकर वोटों की लहलहाती फसल काटने को हर कीमत पर आसान बनाया जा सके.
असल में भाजपा या संघ परिवार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस अधूरे निर्मित मंदिर में 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है, उस स्थल पर वह काम अधिकतम एक साल में यानी 2020 तक क्यों नहीं कराया जा सकता था? If elections are held in India on religion and God, how will the Constitution and the country be protected?
यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने के लिए हिंदुओं को सौंपने और मुसलिमों को इबादत के लिए वहां से 25 किमी दूर मस्जिद निर्माण के लिए भूमि आंवंटित किए जाने का देश की सर्वोच्च अदालत का आदेश सभी पक्षों ने मान लिया था. कई सदियों का विवाद हमेशा के लिए समाप्त मानकर देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और भाईचारा मजबूत बनाने की नई शुरुआत होती.
मंदिर के पक्ष में फैसला आने के पहले वास्तव में देश की राजनीति की दिशा को धार्मिक जज्बातों के इतर उन मुद्दों की ओर फोकस करना चाहिए, जिससे देश के नौजवानों और आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित और संरक्षित किया जा सके.
लंबी अदालती लड़ाई के बाद मंदिर विवाद का शांतिपूर्ण निदान निकलने के बाद भी भाजपा की आक्रामक रणनीति से आम लोगों को यही लगता है कि वह मंदिर निर्माण को आगामी आम चुनावों के मद्देनजर हिंदू मतदाताओं को लुभाने की नियत से धर्म और राजनीति के घालमेल का ऐसा महिमामंडन करना जारी रखे हुए है.
दूसरी ओर महंगाई, भ्रष्टाचार के अलावा नवंबर 2016 को काला धन और आतंकवाद खत्म करने के नाम पर दुनिया की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था पर अकस्मात थोपी नोटबंदी और ऐसी ही कई तरह की दिशाहीन, गलत और भ्रामक नीतियों का खामियाजा जनता को बरसों तक भुगतना पड़ेगा.India on religion and God
सत्ता के गुरूर और बहुमत की आड़ में कई अहम फैसलों और विधेयकों को बिना सार्थक बहस और जनमानस की राय शुमारी के संसद में बिना सोच समझे लागू करने और विफलताओं पर जब विपक्ष और आम जनता सवाल पूछने लग जाए तो हर काम को राष्ट्रहित और राष्ट्रवाद से जोड़ देना शगल बना दिया गया है.
भाजपा और आरएसएस ने चुनावों की खातिर प्रिंट, टीवी मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये ऐसा जुनूनी माहौल पैदा कर दिया है, जिसका मुकाबला करना विपक्ष या आम जनता के बूते की बात नहीं.
यह माहौल 22 जनवरी के मुख्य समारोह के बाद भी हर्गिज नहीं रुकने वाला है. उसके बाद तो आम चुनाव और मतदान की तारीख तक राम मंदिर आंदोलन की पूरी गाथाएं बनाकर लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करने घर-घर पहुंचाने का रोडमैप पहले से तैयार कर दिया गया है.
क्या भारत का संविधान या निर्वाचन आयोग के नियम कानून इस बात की इजाजत देते हैं कि जब देश में चुनाव होने जा रहे हों तो धर्म के नाम पर वोट मांगे जाएं. धर्म और भगवान को अपना निजी ब्रांड एबेंसडर बनाने की परिपाटी विकसित करने की होड़ कहां जाकर रुकेगी.If elections are held in India on religion and God, how will the Constitution and the country be protected?
विडंबना यह है कि जिन लोगों ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ ली है, वे लोग ही सत्ता में बने रहने के लिए अगर संवैधानिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाएंगे तो फिर बहुभाषी राज्यों और अलग-अलग धर्मों में विश्वास रखने, एक दूसरे के धर्म-आस्था को सम्मान देने और दूसरों की धार्मिक भावनाओं व धर्म शिक्षाओं की अच्छी बातों को ग्रहण या आत्मसात करने वाले भारत के लोग कहां अपना ठौर तलाश सकेंगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)