18 जनवरी (स्मृति दिवस) पर विशेष
कन्याओं के कल्याण के निमित्त बने प्रजापिता ब्रह्मा बाबा
महिला सशक्तिकरण का अनूठा कार्य
BY-अटल हिन्द /सुरेश अरोड़ा,पत्रकार ,बाबैन कुरूक्षेत्र
प्रकृति का शाश्वत नियम है कि रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है। ठीक उसी तरह जब-जब मानव अपने धर्म-कर्म-मर्यादाओं से गिर जाता है, तब-तब कोई न कोई प्रकाश की किरण ऊपर से नीचे उतरती है, जो दिखाती है जीवन का यथार्थ मार्ग। कोई न कोई पैगम्बर, महापुरुष, अवतार या मसीहा अवलंबन दे जाता है समाज को। बदल जाती है समय चक्र की धारा। आज हम उसी जगह पुन: खड़े हैं। अनगिनत हृदयों में यह स्वर झंकृत हो रहे हैं कि ‘भगवान आओ, इस व्यथित भू के भार को उतारो, कहाँ हो..? यह नाश का खेल कब तक चलता रहेगा।’ नि:संदेह परिवर्तन की इस महा वेला में सृष्टि रचयिता निराकार परमपिता परमात्मा शिव स्वयं अवतरित हो एक साधारण तन का आधार लेकर बदल रहे हैं सृष्टि की काया। अति की इति समीप है। धर्मग्लानि का समय और परमात्मा के अवतरण का काल यही है। परमात्मा कौन है..? क्या उसका भी जन्म अथवा अवतरण होता है..? कौन है वह युगपुरुष जो परमात्मा का साकार माध्यम बनता है..? कैसे युग परिवर्तन होता है..? यह किसी नाटक का संवाद, पटकथा, पहेली अथवा सम्भाषण नहीं। स्वयं परमात्मा यह रहस्य सुलझा रहे हैं।
भगवान के यादगार महावाक्यों में उल्लेख है, ‘मैं साधारण तन में अवतरित होता हूं।’ दादा लेखराज का तन ही वह साधारण तन है, जिसमें भगवान का अवतरण हुआ। दादा लेखराज कलकत्ता में हीरे-जवाहरात का व्यापार करते थे। आपके अंदर बचपन से ही भक्ति के संस्कार थे। आपने लौकिक में 12 गुरु किए थे। साठ वर्ष की आयु में आपको निराकार परमपिता परमात्मा ने इस कलियुगी दुनिया के महाविनाश और आने वाली नई सतयुगी दुनिया के दिव्य साक्षात्कार कराए और आपके तन में प्रविष्ट होकर नए युग की स्थापना का कार्य प्रारंभ किया। आपको अलौकिक नाम मिला ‘प्रजापिता ब्रह्मा’। गायन है कि प्रजापिता ब्रह्मा ही आदिदेव हैं, बड़ी मां हैं, प्रथम ब्राह्मण और प्रथम पुरुष हैं। नई सृष्टि की पहली कलम हैं, भगवान के प्रथम पुत्र और सृष्टि के अग्रज, पूर्वज और प्रपितामह हैं। भगवान के बाद सृष्टि रंगमंच के सबसे महत्त्वपूर्ण रंगकर्मी हैं, लेकिन फिर भी बिल्कुल गुप्त हैं। आपने ही प्रजापिता ब्रह्मा का कर्त्तव्यवाचक नाम पाकर अपने मस्तक में ज्ञान सागर को समाया और उस ज्ञान सागर ने पतित आत्माओं को पावन बनाने के लिए आपके मुख से ज्ञान- गंगा बहाई।
आपने परमात्मा के आदेश अनुसार अपने व्यापार को समेट लिया और सिन्ध हैदराबाद में अपने ही घर में ओम मण्डली नाम से एक ट्रस्ट बना कर अपनी संपत्ति कन्याओं माताओं के सामने समर्पित कर दी। इस प्रकार, एक छोटे सत्संग के रूप में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की शुरूआत हुई। कराची में समुद्र के किनारे 14 वर्ष तपस्या करने के पश्चात् सन 1950 में इस विद्यालय में समर्पित सभी भाई-बहनें स्थानांतरित होकर राजस्थान के अरावली पर्वत–माउंट आबू में आए, यहीं विद्यालय का मुख्यालय स्थापित हुआ। सन 1952 से भारत में ईश्वरीय सेवायें प्रारंभ हुई। पिताश्री ने अपनी गहन तपस्या एवं उपराम स्थिति द्वारा समाज के हर वर्ग को ऊंचा उठाने की अनुपम सेवा की। अनपढ़ हों या पढ़े-लिखे, गरीब हों या अमीर, नर हों या नारी–सभी की सुषुप्त आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत कर पिताश्री ने उनमें देवत्व भर दिया। लेख के कलेवर को ध्यान में रखते हुए हम उनकी महिलाओं के कल्याण की अद्भुत कार्यविधि का वर्णन कर रहे हैं
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कन्याएं हैं कन्हैया लाल की
यदि कन्याएं ईश्वरीय ज्ञान सुनने आतीं तो बाबा कहते, वे तो हैं ही कन्हैया लाल की कन्याएं। कन्याओं का तो भारत में नवरात्रों में भी पूजन होता है क्योंकि उन्होंने पहले भी भारत को पतित से पावन और पुजारी से पूज्य बनाने का कार्य किया है। भारत की कन्या तो वैसे भी सबसे गरीब है क्योंकि उसका पिता की संपत्ति पर जरा भी अधिकार नहीं है।’
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शेर-वाहिनी शक्ति :
कन्या तो पहले ही से संन्यास-बुद्धि होती है क्योंकि उसके मन में यह भाव तो सदा बना ही रहता है कि आखिर मुझे इस घर से तो एक दिन जाना ही है और उसमें नम्रता, सहनशीलता तथा संकोच इत्यादि गुण भी होते ही हैं। अत: बाबा कहते– ‘सुशील कन्या तो सौ ब्राह्मणों से भी उत्तम है। यह तो है ही भगवान की अमानत। क्यों बच्ची.! अब तो विष कभी नहीं पियेंगी और शेर-वाहिनी शक्ति बनेंगी.? क्यों बच्ची, ऐसा है न.?’ तो कन्याएं कह उठती– हां बाबा, हम तो पवित्रता का व्रत लेकर भारत की सच्ची सेवा करेंगी। हम ज्ञान-गंगायें बन कर भारत को पावन करने के निमित्त बनेंगी।’ इस प्रकार, पिताश्री कन्याओं के कल्याण के निमित्त बने।
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कन्या पवित्रता और शक्ति का पर्याय :
यह कैसे आश्चर्य की बात है कि जहां आमतौर पर भारत में, घर में, कन्या का जन्म होने पर माता-पिता उदास-से हो जाते हैं, वहां बाबा कन्याओं का ज्ञान में प्रवेश देख कर उन्हें विश्व के लिए शुभ लक्षण मानते हैं। एक कन्या के आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेने पर वे इतने खुश होते कि जैसे इन द्वारा अब भारत के सौ व्यक्तियों के मनोस्थल से तो आसुरियता नष्ट होनी ही है। अत: शायद पिताश्री ही संसार में साकार रूप में एक ऐसे पिता अथवा पितामह थे, जो अधिक से अधिक ज्ञान-पुत्रियां होने से खुश होते थे। उनके लिए ‘कन्या’ शब्द ही पवित्रता एवं शक्ति का पर्याय था। ज्ञान-युक्त एवं सुशील कन्याओं के प्रति उनका इतना स्नेह और सम्मान होता था कि वे दिव्यता युक्त पुरुषों के लिए भी कई बार सहसा ‘हे बच्ची’ ऐसा कह कर संबोधन करते थे।
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माताओं का सेवक :
बाबा कन्याओं-माताओं का सदा सम्मान करना सिखाते थे तथा ज्ञान सुनने वाली माताओं को बाबा कहते– इनका मर्तबा (स्थान) उच्च बनाने के लिए ही तो शिव बाबा आए हैं क्योंकि बहुत काल से इन पर बहुत सितम होते रहे हैं और समाज में इनका अपमान तथा तिरस्कार भी होता आया है, परंतु अब इनके कारण मुझे भी बीच में शिव बाबा से यह ज्ञान सुनने का अवसर मिल जाता है। देखिये तो बाबा कितनी नम्रतापूर्वक स्वयं को गुप्त करके माताओं-बहनों को प्रत्यक्ष करने की कोशिश करते। कभी वे कहते कि माताएं-कन्याएं तो मुझसे भी अधिक प्रवीण हैं क्योंकि वे भिन्न-भिन्न संस्कारों और योग्यताओं वाले मनुष्यों को ज्ञान देती हैं और भाषण करती हैं। यही वास्तव में पतित-पावनी गंगायें हैं। वे कहते इन कन्याओं- माताओं को ज्ञान-कलश देने ही तो शिव बाबा आये हैं। इन माताओं को ‘वन्दे मातरम्’ कहना चाहिए।’ इस प्रकार, वे माताओं का मान करके उन्हें सहारा देने के निमित्त बने और उनका स्थान ऊंचा करने के लिए उन्होंने स्वयं को अप्रत्यक्ष किया। वे सदा कहते मैं तो इनका सेवक हूं।’ माताओं को सहारा देने के कारण उन्हें लोगों की इतनी आलोचनाएं सुननी पड़ीं, इतने कष्ट भी सहन करने पड़े, परंतु इसके लिए उन्होंने सब-कुछ किया।
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कन्याओं-माताओं को सर्वस्व समर्पित :
यदि गहराई से विचार किया जाए, तो महिलाओं को समाज में उचित मान दिए जाने, उन्हें उचित अधिकार मिलने और उनकी जागृति के लिए संगठन बनाने की ओर बाबा ने जो कदम लिए, वे अपनी प्रकार के अनूठे थे, वैसे कदम उससे पहले किसी ने नहीं उठाये थे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि बाबा ही सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना सर्वस्व कन्याओं-माताओं का एक ट्रस्ट (न्यास) बना कर उसको समर्पित कर दिया। पिताश्री को कन्याओं-माताओं का अपमान असह्य था। जब वे जवाहरात का व्यापार करते थे, तब यद्यपि वे श्रीनारायण के अनन्य भक्त थे, तथापि वे चित्रों में दासी की तरह श्री लक्ष्मी को विष्णु के पांव दबाते हुए नहीं देख सकते थे। अत: वे चित्रकार को विशेषतया बुला कर चित्र का यह भाग बदलवा देते थे। वे प्राय: विनोद-भरे स्वर में कहा भी करते थे कि ‘मैं चित्रकार से कह कर श्री लक्ष्मी को इस सेवा से मुक्त करा देता था।’
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अब नारियों द्वारा ही ‘ओम की अग्रध्वनि :
पिताश्री के मुखारविन्द द्वारा जब शिव बाबा की ज्ञान-सरिता स्त्रवित हुई, तब नारी का तिरस्कार करने रूप जो कल्मष समाज पर था, वह धुलने लगा। जो कन्याएं-माताएं पिताश्री के सत्संग में आतीं, वे ‘ओम्’ की ध्वनि किया करतीं और ज्ञान के गीतों द्वारा दूसरों को भी पवित्र जीवन का संदेश देतीं। इस प्रकार, संन्यासी लोग ग्रंथों की दुहाई देकर जो यह कहते चले आते थे कि नारी को ओम् कहने का भी अधिकार नहीं है, बाबा ने उनके इस कथन को प्रैक्टिकल रीति मिथ्या सिद्ध कर दिया। स्वयं बाबा अपने प्रवचनों में कन्याओं-माताओं को कहा करते कि अब आप रिढ (बकरी) बनना छोड़ो और शेरनी बनो। बाबा ने उन्हें समझाया कि स्त्री रूप तो प्रकृति (अर्थात देह) का है, आप तो पुरुष (आत्मा) हो; क्षेत्र नहीं हो, क्षेत्रज्ञ हो। अत: भय को छोड़ो और देही-अभिमानी तथा अभय बनो। बाबा ने उनके लिए सिलाई और पढऩे-लिखने की भी व्यवस्था की। बाबा ने एक-दो बहुत बड़े भवन भी इस कार्य में लगा दिए थे, ताकि उनका बौद्धिक विकास हो और साथ-साथ वे आत्मनिर्भर हो सकें। उनके लिए स्वयं बाबा ने बहुत-से गीत भी बनाएं, जोकि वहां सभा में गाये जाते थे। उनमें से एक गीत ऐसा भी था, जिसमें यह बताया गया था कि जो कानों में इतनी सारी बालियां, हाथों में इतनी सारी चूडय़िां रूपी कडय़िां और नाक में गुलामी की नथ पहने हुए हैं, वे पिंजरे की मैना हैं। आज़ाद वे हैं जो फैशन, बनावट व सजावट इत्यादि से मुक्त हो सादगी, त्याग, तपस्या और आत्मनिर्भरता का जीवन अपनाते हैं।
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माता गुरु द्वारा होगा उद्धार :
बाबा उन्हें प्रेरणाएं देते कि जगत की माताओं और कन्याओं, अब जागो और ज्ञान की ललकार करो। तुम्हारे द्वारा ही जगत का कल्याण होना है। जब माता गुरु बनेगी, तब ही भारत की संतानों का उद्धार होगा। तुम्हारे कारण ही भारत का उत्थान रुका है। तुम केशों का श्रृंगार करने में लगी हो और उधर भारत मां के लाल ज्ञान के बिना विकारों में ग्रस्त हैं, आसुरियता से संत्रस्त हैं और दुख तथा अशान्ति से कराह रहे हैं। कितनी ही कन्याओं-माताओं ने उनकी इस चुनौतीपूर्ण, प्रेरणादायक ध्वनि से जागृत होकर राजऋषि अथवा राजयोगिनी के आसन को ग्रहण किया और अपने केश खोल कर मन में अपने-आप से यह प्रतिज्ञा की कि अब हम अपने आपको पांच विकारों से मुक्त करके ही दम लेंगी और भारत-भूमि पर निर्विकारी स्वराज्य स्थापित करके ही रहेंगी। बाबा की उन्हीं शिक्षाओं व प्रेरणाओं का ही मधुर फल है कि आज ब्रह्माकुमारी बहनों-माताओं का इतना बड़ा शक्तिदल भारत को पवित्र बनाने में लगा है।
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18 जनवरी 1969 को ब्रह्मा बाबा, निर्माता द्वारा पहला आदर्श नमूना शोकेस-सूक्ष्म दुनिया (ब्रह्म पुरी) में स्थानांतरित किया गया था, ताकि मानव जाति को महान, परदादा या एडम का अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया जा सके। यह दिन हर बीके को ब्रह्मा बाबा के महान व्यक्तित्व की याद दिलाता है, जो आध्यात्मिक मुक्ति सेना के कमांडेंट हैं। बीके हर साल इस दिन को स्मरण दिवस के रूप में मनाते हैं और पिताश्री ब्रह्मा के नक्श-ए-कदम पर चलने के लिए खुद को फिर से समर्पित करते हैं।
ॐ शान्ति।
प्रेरणा
राजयोगिनी बी.के.ज्योति बहन
प्रभारी, वरदानी भवन बाबैन
ब्रह्माकुमारीज संस्थान,लाड़वा (बाबैन) ।
प्रस्तुति
सुरेश अरोड़ा,पत्रकार ,बाबैन (कुरूक्षेत्र)।
मो. 94165-47177