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राम-राम,जै राम जी की, और ‘जय सियाराम’ अभिवादन था. राम से जुड़ा नारा नहीं था

राम-राम,जै राम जी की, और ‘जय सियाराम’ अभिवादन था. राम से जुड़ा नारा नहीं था
अयोध्या: ‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं चुनाव का डंका है!
Ayodhya: ‘Manas’ is not your ‘character’ but it is the sting of elections!
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अयोध्या का मंदिर हिंदू जनता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन के कसे हुए शिकंजे का मूर्त रूप है. इसमें होने जा रही प्राण-प्रतिष्ठा का निश्चय ही भक्ति, पवित्रता और पूजा से लेना-देना नहीं है.

Ram-Ram, Jai Ram ji ki, and ‘Jai Siyaram’ were the greetings. There was no slogan related to Ram

राम-राम,जै राम जी की, और ‘जय सियाराम’ अभिवादन था. राम से जुड़ा नारा नहीं था
by-योगेश प्रताप शेखर

2024 ई. की शुरुआत में भारत को ‘राममय’ कर दिया गया है. ऐसा होने की एक बिल्कुल ही अलग ‘राम-कथा’ है. इसका कारण भी जुदा है. कारण यह है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय (नवंबर 2019) के बाद 22 जनवरी 2024 ई. को अयोध्या में बनने वाले/बन रहे मंदिर में ‘रामलला’ की प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है. पहली नज़र में इस बात में कोई अंतर्विरोध या विसंगति नहीं दिखाई पड़ती है क्योंकि हिंदुओं के लिए राम का महत्त्व है और वाल्मीकि तथा उनकी परंपरा में अन्य रचनाकारों द्वारा रचित ‘राम-काव्य’ के अनुसार राम का जन्मस्थान अयोध्या है. पर बात क्या इतनी ही है?
बिल्कुल नहीं. Ayodhya: ‘Manas’ is not your ‘character’ but it is the sting of elections!

पहली बात तो यही कि इस पूरे प्रकरण में एक और शब्द तथा ढांचा है- बाबरी मस्जिद. इस बाबरी मस्जिद के बारे में मान्यता है कि यह मुग़ल शासक बाबर के सेनानायक मीर बाक़ी द्वारा 1528 ई. के आसपास बनवाई गई. तब सवाल यह है कि 2024 ई. तक ‘रामलला’ यों ही आ गए? या सीधे 2024 ई. में ही ‘रामलला’ ‘प्रगट’ हो गए हैं?
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निश्चित ही ऐसा नहीं हुआ है. 2024 ई. का सीधा संबंध 1949 ई., 1986 ई., 1989 ई., 1990 ई. और 1992 ई. से है. यहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये वर्ष हिंदू जनता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों की लगातार मजबूत होती पकड़ के कुछ ही पड़ाव हैं क्योंकि इन वर्षों के बीच और इनके साथ बहुत कुछ घटित होता रहा है जिसका सिलसिला 1885 ई. तक जाता है. ऐसा इसलिए कि 1885 ई. में महंत रघुबीर दास ने फ़ैज़ाबाद जिला अदालत में उक्त बाबरी मस्जिद के बाहर मंडप बनवाने के लिए याचिका दायर की थी. हालांकि उनकी याचिका उस समय ख़ारिज कर दी गई थी. फिलहाल इसे छोड़कर 1949 ई. की ओर बढ़ते हैं. Ram-Ram, Jai Ram ji ki, and ‘Jai Siyaram’ were the greetings. There was no slogan related to Ram
22-23 दिसंबर 1949 ई. को रात में उक्त बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दी गई जिसे नवंबर 2019 ई. में फ़ैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने एक आपराधिक कृत्य माना. फरवरी 1986 ई. में स्थानीय अदालत ने बाबरी मस्जिद के उक्त परिसर को हिंदुओं के लिए खोल दिया था. उस समय भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. 1989 ई. में आधिकारिक रूप से ‘रामलला’ ‘प्रगट’ किए जाते हैं.
कहा यह गया कि वे ‘भगवान श्री रामलला विराजमान, श्री रामजन्मभूमि अयोध्या’ हैं जो निश्चय ही ‘अभिभावकत्व’ के सहारे ही उपस्थित रह सकते हैं. इस तरह से इस पूरी ‘राम-भक्ति’ में एक विचित्र वस्तु प्रवेश करती है क्योंकि कृष्ण के अतिरिक्त किसी भी देवता के बाल-रूप की पूजा-अर्चना प्राय: हिंदुओं में नहीं होती. भगवान राम और हनुमान के बाल-रूप का वर्णन कविगण अवश्य करते रहे हैं लेकिन पूजा-अर्चना से इसका कोई संबंध नहीं मिलता.
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इस दृष्टि से विचार करने पर यह समझा जा सकता है कि ‘रामलला’ का 1989 ई. में ‘प्रगट’ होना हिंदुओं की परंपरा तथा संस्कृति पर ‘हिंदुत्व’ की पकड़ का पहला ताक़तवर पड़ाव था क्योंकि हिंदुओं की ओर से इस ‘रामलला’ का कोई विरोध नहीं किया गया.
25 सितंबर 1990 ई. को भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण आडवाणी ने ‘रथ यात्रा’ गुजरात के सोमनाथ से शुरू की. यह भी विचित्र बात थी कि आडवाणी जी ने एक ‘टोयोटा कार’ का ऊपरी सिरा काटकर उसे ‘रथ’ का नाम दे दिया था. इसे भी हिंदू जनता ने स्वीकार कर लिया भले उसके महाकाव्यों ‘रामायण’, ‘महाभारत’, आदि में ‘रथ’ के विस्तृत वर्णन उपलब्ध थे.
धार्मिक दृष्टि से आडवाणी जी के इस ‘कु-कृत्य’ (इसे ‘कु-कृत्य’ ही कहना चाहिए क्योंकि राम-कथा में राम लगभग विरथ ही दिखाई देते हैं सिवाय रावण से अंतिम युद्ध के, जब देवराज इंद्र अपने सारथि मातलि को राम के पास उन्हें रथ पर बैठ कर युद्ध करने के लिए भेजते हैं.) को उदार हिंदू जनता (!) ने माफ़ कर दिया. इससे पहले एक और ‘दिव्य’ घटना घटित हुई थी. वह थी भारत में टेलीविजन के प्रसार की. रामानंद सागर ने राम-कथा पर आधारित ‘रामायण’ नामक एक टीवी धारावाहिक बनाया जिसका प्रसारण दूरदर्शन पर 25 जनवरी 1987 ई. से 31 जुलाई 1988 ई. तक किया गया.
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बताने वाले बताते हैं कि रविवार को जब यह धारावाहिक प्रसारित किया जाता था तब गांव के गांव ख़ाली पड़ जाते थे, सड़कें और बाज़ार वीरान हो जाते थे. इतना ही नहीं राम का किरदार निभा रहे अरुण गोविल और सीता का अभिनय कर रही दीपिका के ‘पोस्टर’ को जनता ने अपने घरों में वास्तविक राम-सीता मानकर पूजा करना शुरू किया. इस धारावाहिक ने दो प्रमुख काम किए.
पहला तो यह कि पहली बार ‘जय श्रीराम’ का नारा जनता के मन में बैठाया जाने लगा क्योंकि इससे पहले ‘राम-राम’, ‘जै राम जी की’, और ‘जय सियाराम’ का अभिवादन था. राम से जुड़ा नारा नहीं था. कीर्तन आदि में भी गवैये ‘बोलअ-बोलअ द्वारिकानाथ सियावर रामचंद्र की जै’, ‘लगले लखनलाल की जै’, ‘पठवा हनुमान की जै’ आदि का उत्साहपूर्वक उद्घोष कीर्तन की शुरुआत तथा अंत में करते थे. दूसरा काम इस धारावाहिक ने यह किया कि इससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद्, भारतीय जनता पार्टी और इसके अनेक ‘ऑक्टोपसी’ सहयोगी संगठनों के सामने पूरी तरह साफ़ हो गया कि धर्म के नाम पर तुरंत ही भावुक हो जाने वाली हिंदू जनता की धार्मिक भावना को बड़ी आसानी से लंबी राजनीतिक कार्रवाई का हिस्सा बनाया जा सकता है. इसके लिए हिंदू जनता के मन में प्राचीन भारत के प्रति अतार्किक गौरवबोध और मुसलमानों-ईसाइयों के प्रति बड़े पैमाने पर निराधार नफ़रत को व्यापक तौर पर भरा जाने लगा. Ram-Ram, Jai Ram ji ki, and ‘Jai Siyaram’ were the greetings. There was no slogan related to Ram
इसके बाद तारीख़ आई 6 दिसंबर 1992 ई. इस दिन एक बहुत बड़ी भीड़ को अयोध्या में जुटाया गया. राम के नाम पर ‘कारसेवा’ करने वाले लोगों को उकसा कर, अयोध्या पहुंच कर उक्त ‘बाबरी मस्जिद’ का विध्वंस करा दिया गया. भारतीय जनता पार्टी के लोगों में अपेक्षाकृत उदार समझे जाने वाले अटलबिहारी वाजपेयी ने 5 दिसंबर 1992 ई. को अपने भाषण में एक तरह से स्पष्ट आह्वान ‘बाबरी मस्जिद’ के विध्वंस का किया था. उन्होंने साफ़ कहा था कि ‘वहां नुकीले पत्थर निकले हैं, उन पर तो कोई बैठ नहीं सकता, तो जमीन को समतल करना पड़ेगा.’
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सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उसी फ़ैसले, यानी 2019 ई. के, में ‘बाबरी मस्जिद’ के विध्वंस को भी अपराध माना. लेकिन चूंकि इन सबका संबंध ‘दिव्य राम’ से था इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकार से ‘लीला’ की और यह कहा कि चूंकि हिंदुओं की ऐसी आस्था एवं ऐसा विश्वास है कि भगवान का राम का जन्म यहीं यानी उक्त ‘बाबरी मस्जिद’ वाले स्थान पर ही हुआ था अत: यह जमीन हिंदू पक्ष को दी जाती है. साथ ही सरकार राम मंदिर निर्माण के लिए एक ‘ट्रस्ट’ गठित करे.
मस्जिद के पक्षकारों को ‘न्याय का सांत्वना’ पुरस्कार देते हुए उन्हें भी अयोध्या में ही कहीं प्रमुख स्थान पर मस्जिद बनाने की इजाज़त दी गई.
लगभग तीस वर्षों के इस काल-खंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, इसके सहयोगी संगठनों और भारतीय जनता पार्टी के दुष्प्रचार तथा ‘अथक प्रयत्नों’ का असर यह हुआ कि व्यापक हिंदू जनता इस फ़ैसले को अपनी जीत मानने लगी. इस पूरी प्रक्रिया में अपनाए गए झूठ, अपराध और फ़रेब को हिंदू जनता ने सोचने से भी इनकार कर दिया गया क्योंकि उसके मन में यह विष अमृत बताकर भर दिया गया था कि ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं.’ Ayodhya: ‘Manas’ is not your ‘character’ but it is the sting of elections!
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पिछले दस वर्षों यानी 2014 ई. से अभी 2024 ई. तक भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय स्तर पर सरकार है. इन दस वर्षों में सत्ता के अपार और अनियंत्रित वरदहस्त के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठनों की हिंदू जनता पर पकड़ की ‘रथ यात्रा’ अपने पूरे उठान पर है. बड़ी चालाकी और महीन तरीक़े से हिंदू परंपरा एवं संस्कृति की अनाप-शनाप व्याख्या कर, उसमे मनमाने तत्त्वों को जोड़कर हिंदुओं में एक ही साथ मिथ्या गर्व तथा डर भरा जा रहा है.
क्या इसे निर्गुण रामभक्त कवि कबीर की उलटबांसी समझा जाए कि भारत में बहुसंख्यक हिंदू जनता को यह विश्वास दिला दिया गया कि वे ख़तरे में हैं! जो ख़तरनाक हैं वही बता रहे कि ख़तरा है!
इन सबके पीछे एक ही उद्देश्य है कि हिंदू जनता उग्रता की आंच पर खौलती रहे ताकि राजनीति और सत्ता की रोटी मनमाने ढंग से सेंकी जाती रहे. इन सबके बीच दुखद पहलू यह है कि हिंदू जनता को अभी भी अपने ऊपर बढ़ते वास्तविक ख़तरे (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठनों की गिरफ़्त में पूरी तरह विवश हो जाने का) का एहसास नहीं ही है बल्कि उसे इन सबमें आनंद आने लगा है.
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हिंदुओं को जो भी कुछ बहुलता और विविधता धर्म एवं संस्कृति में मिली हुई थी, उन सबका धीरे-धीरे अपहरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन करते चले जा रहे हैं और हिंदू इस में ख़ुश तथा मुदित हैं.
अगर ऐसा नहीं होता तो यह कैसे संभव था कि ‘भक्त शिरोमणि’ और विनम्रता की मूर्ति कहे जाने वाले हनुमान का एकदम उग्र तथा खूंखार ‘स्टिकर’ हिंदू अपनी कारों और मोटर साइकिलों पर चिपकाने लगते! रामनवमी का लाल ‘महवीरी झंडा’ बड़ी सफाई से ‘भगवा’ कर दिया गया और हिंदू जनता को तनिक भी आपत्ति नहीं हुई! बंगाल के अतिप्रसिद्ध दुर्गा-पूजा में नारा लगाया गया कि ‘नो दुर्गा नो काली, ऑनली राम ऑनली बजरंगबली’. सरस्वती-पूजा और दुर्गा-पूजा के विसर्जन जुलूसों में ‘जय श्रीराम’ के नारे का आक्रामक प्रदर्शन होने लगा! जिन राम के नाम पर यह सब किया जा रहा है उन्हीं से जुड़ी रामनवमी के दिन भारी संख्या में तलवारों के साथ प्रदर्शन किया जाने लगा है!
यह सवाल तो पूछा जाना चाहिए था कि ‘राम का अस्त्र तो धनुष-बाण है, उन का तलवार से क्या काम?’ कुछ नहीं तो महान भक्त और कवि तथा ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास से जुड़ी एक किंवदंती ही याद कर ली जाती जिसके अनुसार यह है कि एक बार तुलसीदास प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि नंददास से मिलने वृंदावन गए और वहां कृष्ण की मूर्ति थी. उस मूर्ति को देखकर तुलसीदास के मुख से यह दोहा निकल पड़ा :
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कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ.
तुलसी मस्तक तब नवै जब धनुष बान लो हाथ.
यह कुटिलता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन जो उग्र, हिंसक तथा राजनीतिक हिंदू बनाए रखना चाहते हैं उसे ‘सनातन’ कह के संबोधित करते हैं (अकारण नहीं है कि आजकल ‘हर हिंदू सनातन हो’ का नारा लगाया जाने लगा है. पूछा जा सकता है कि यदि हिंदू धर्म सनातन है ही तो फिर हर हिंदू को सनातन बनाने /होने की आवश्यकता ही क्या और क्यों है?) और यह जतलाना चाहते हैं कि दरअसल वे भारत के प्राचीन धर्म की निरंतरता को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं जबकि परंपरा में ‘सनातन धर्म’ का उपयोग अधिकांश स्थानों पर ‘कर्तव्य’ के अर्थ में किया गया है न कि ‘धर्म’ के आज के अर्थ में.
उदाहरण के लिए वाल्मीकि रामायण के बालकांड के पच्चीसवें सर्ग का उन्नीसवां श्लोक देखा जा सकता है जिस में ‘राज्यभारनियुक्तानामेष धर्म: सनातन:’ (जिनके ऊपर राज्य के पालन का भार है, उनका तो यह सनातन धर्म है.) कहा गया है. स्पष्ट है कि ‘सनातन’ शब्द वस्तुतः उग्र, आक्रामक, हिंसक हिंदुत्व को छिपाने के लिए आवरण है.
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इससे यह भी स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन परंपरा, धर्म और संस्कृति में अति प्रचलित शब्दों को हथियाकर उसमे अपने मनचाहे अर्थ भरते हैं. शब्द की आवृत्ति से लगता है कि ये लोग उसी परंपरा, धर्म और संस्कृति के रक्षक हैं या उसके वास्तविक रूप के पक्षधर लेकिन वास्तविकता कुछ और ही रूप में प्रकट होती है!
इसी प्रक्रिया से वे हिंदू जनता पर अपनी पकड़ लगातार मजबूत करते जा रहे हैं. 22 जनवरी 2024 ई. को अधूरे बने मंदिर (यह भी उलटबांसी ही है कि हिंदू परंपरा में खंडित मूर्ति तथा अधूरे मंदिर में पूजा-अर्चना का विधान नहीं है और जो यजमान होता है उस का सपत्नीक होना अनिवार्य होता है! मंदिर तो पूरा नहीं ही बना है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकेले ही यजमान हैं!) में होने जा रही प्राण-प्रतिष्ठा का निश्चय ही भक्ति, पवित्रता और पूजा से लेना-देना नहीं है.
यह मंदिर हिंदू जनता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन के कसे हुए शिकंजे का मूर्त रूप है. आक्रामकता, हिंसक तेवर और नफ़रत की बरसात चारों ओर की जा रही है. एक से एक गाने और वीडियो बनाए जा रहे हैं. एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा. एक गाने में कहा जा रहा है :
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पत्थर पत्थर पूजने वालों भू पर साज रहा है
राम विरोधी की छाती पर डंका बाज रहा है.
हक़ीक़त तो यह है कि ‘डंका’ हिंदू जनता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठनों के वर्चस्व का ‘बाज’ रहा है. ऐसा इसलिए भी कि लोकसभा चुनाव की भेरी भी बजने ही वाली है. हिंदी के प्रसिद्ध कवि कुंवर नारायण की कविता ‘अयोध्या, 1992’ की पंक्तियां याद आती हैं :
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
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अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है!
(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)
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