हरियाणा को बचाना है, तो नफरत को हराना होगा।
(संकट का समय है साथियो — नफरत नहीं, भरोसा ज़रूरी है। समझदारों को आगे आना होगा। राजनीति नहीं, संवेदना चाहिए। हमारे समाज की असली ताकत है— भाईचारा। यह दो जातियों की नहीं, दो इंसानों की त्रासदी है।)
दो पुलिसकर्मियों की आत्महत्याएँ हरियाणा के लिए चेतावनी हैं। यह जातीय टकराव नहीं, व्यवस्था पर से भरोसे का टूटना है। समाज को अब संयम और समझ की जरूरत है। नफरत फैलाने से इंसाफ़ नहीं मिलेगा, बल्कि हालात और बिगड़ेंगे। जरुरी है कि व्यवस्था पारदर्शी और न्यायसंगत बने, लोगों में विश्वास लौटे और संवाद कायम रहे। समझदारों को आगे आकर नफरत को हराना होगा — तभी भाईचारा बचेगा और हरियाणा मजबूत बनेगा।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
हरियाणा इस समय गहरे संकट से गुजर रहा है(Haryana is currently going through a deep crisis.)। एक नहीं, दो पुलिसकर्मियों की आत्महत्याएँ हमारे समाज, हमारी व्यवस्था और हमारी सोच — तीनों पर सवाल उठा रही हैं। इंसाफ़ का रास्ता जब लोगों को बंद दिखाई देता है, तो वे जिंदगी से भी हार मान लेते हैं। यह सिर्फ दो जवानों की मौत नहीं, बल्कि उस तंत्र की पराजय है, जिस पर नागरिक भरोसा करते हैं।
आज जब चारों ओर ग़ुस्सा, अफ़वाहें और जातीय बहसें हैं, तब सबसे ज़रूरी है संयम और समझ। क्योंकि अगर समाज भावनाओं में बह गया, तो यह सिर्फ दो परिवारों की त्रासदी नहीं रहेगी, बल्कि हरियाणा का सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा।

दोनों आत्महत्याएँ दिल को झकझोर देने वाली हैं। आईपीएस पूरन कुमार की मौत ने पूरे प्रदेश को हिला दिया था, और फिर एएसआई संदीप लाठर की आत्महत्या ने इस दर्द को और गहरा कर दिया। दोनों ने अपने वीडियो या संदेशों में जो दर्द व्यक्त किया, वह किसी जातीय नफ़रत का परिणाम नहीं था, बल्कि उस व्यवस्था के प्रति मोहभंग का परिणाम था जिसमें उन्हें इंसाफ़ का रास्ता दिखाई नहीं दिया।
हर आत्महत्या एक चीख़ होती है — ऐसी चीख़ जो कहती है कि “सुनो, अब और नहीं।” और जब सरकारी सिस्टम से जुड़े लोग खुद अपनी जान दे देते हैं, तो यह संकेत होता है कि भीतर कुछ बहुत गंभीर रूप से सड़ चुका है।
आज सोशल मीडिया और राजनीति दोनों इस मामले को जातीय चश्मे से देखने में लगे हैं। कोई इसे एक जाति बनाम दूसरी जाति के संघर्ष की तरह दिखा रहा है, तो कोई इसे अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन सच्चाई इससे कहीं गहरी है — यह दो जातियों की नहीं, दो इंसानों की त्रासदी है।
पूरन कुमार और संदीप लाठर, दोनों ही अपने-अपने परिवारों, अपने-अपने समाजों और अपनी-अपनी ड्यूटी के लिए समर्पित थे। दोनों का उद्देश्य था न्याय और आत्मसम्मान। परंतु जब व्यवस्था में उन्हें विश्वास नहीं मिला, तो उन्होंने वह रास्ता चुना, जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए सबसे दर्दनाक होता है।
हमें समझना होगा कि अगर हम इन घटनाओं को जातीय बहस में बदल देंगे, तो असली मुद्दा — व्यवस्था में गिरता विश्वास — हमेशा के लिए दब जाएगा। ऐसा करना न केवल इन आत्महत्याओं की पीड़ा का अपमान होगा, बल्कि यह समाज को और गहरे अंधकार में धकेल देगा।
हर आत्महत्या के पीछे एक कहानी होती है — कभी चुप रह जाने की, कभी आवाज़ न सुने जाने की, और कभी अन्याय से लड़ते-लड़ते थक जाने की। पूरन कुमार और संदीप लाठर की मौतें इसी थकान का परिणाम हैं। दोनों के पास शायद अभी बहुत वक्त था, बहुत संभावनाएँ थीं, लेकिन उन्होंने अपनी ज़िंदगी उस वक्त खत्म की जब उन्हें लगा कि अब उनकी बात कोई नहीं सुनेगा।
यही सबसे खतरनाक स्थिति होती है — जब कोई नागरिक यह मान ले कि व्यवस्था अब उसके लिए नहीं बनी। और जब लोग न्याय की उम्मीद छोड़ देते हैं, तब समाज अराजकता की ओर बढ़ता है।
इतिहास गवाह है कि जब भी समाज ने नफरत के रास्ते पर चलना शुरू किया, उसने खुद को कमजोर किया। चाहे वह धर्म के नाम पर हो, भाषा के नाम पर हो या जाति के नाम पर — अंत में नुकसान हर बार समाज को ही हुआ है।
अगर आज हम इस दर्दनाक घटना को जातीय टकराव की शक्ल देंगे, तो हम फिर उसी पुराने गढ्ढे में गिर जाएंगे, जिससे निकलने में हमें दशकों लगे। नफरत का जवाब नफरत नहीं हो सकता। इसका जवाब है — संवाद, सुधार और सहानुभूति।
हरियाणा पुलिस, प्रशासन और सरकार — सभी को अब आत्ममंथन करने की जरूरत है। सवाल यह नहीं है कि कौन किस जाति से था, बल्कि यह कि क्यों एक अफ़सर और एक एएसआई को आत्महत्या जैसा कदम उठाने की नौबत आई? क्या हमारे सिस्टम में शिकायत दर्ज करने और सुनवाई की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कोई अधिकारी भी न्याय की उम्मीद खो देता है? क्या हमारे उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं? क्या हमारे समाज में किसी की परेशानी को समझने का धैर्य खत्म हो गया है?
इन सवालों के जवाब ढूँढना ज़रूरी है। क्योंकि अगर यह सिस्टम दो अपने अफसरों का दर्द नहीं सुन पाया, तो आम जनता का क्या हाल होगा? सुधार वहीं से शुरू होता है जहाँ गलती स्वीकार की जाए। और यह समय वही है — गलती स्वीकार कर सुधार का रास्ता चुनने का।
दोनों आत्महत्याएँ एक सन्देश छोड़ गई हैं — कि व्यवस्था पर विश्वास लौटाना अब सबसे बड़ा सामाजिक कार्य है। पुलिस विभाग, प्रशासनिक तंत्र, मीडिया और समाज — सभी को मिलकर ऐसा वातावरण बनाना होगा, जहाँ कोई व्यक्ति यह न सोचे कि उसकी आवाज़ दब जाएगी।
भरोसा तभी लौटेगा जब न्याय तेज़ और निष्पक्ष हो, जांच पारदर्शी हो, राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हो। संवेदनशील नेतृत्व सामने आए जो केवल बयान न दे, बल्कि संस्थागत सुधार करे। मीडिया जिम्मेदारी निभाए जो सनसनी नहीं, सच्चाई दिखाए। और समाज संयम रखे जो अफवाहों और जातीय टिप्पणियों से दूर रहे।
भरोसा एक दिन में नहीं बनता, लेकिन एक गलत फैसले से वह पल में टूट जाता है। अब समय है उसे फिर से जोड़ने का। हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो कठिन समय में दिशा दिखाते हैं। आज हरियाणा को ऐसे ही समझदार साथियों की जरूरत है — जो नफरत की आग में घी डालने के बजाय पानी डालें।
यह वक्त है कि हम सब मिलकर इस पीड़ा को जातीय नहीं, मानवीय नजरिए से देखें। समाज को समझाना होगा कि जो मरे हैं, वे किसी जाति के नहीं, इस प्रदेश के बेटे थे। उनकी मौत से अगर हमें कुछ सीखना है, तो वह यही कि कभी भी न्याय और संवाद के रास्ते बंद नहीं करने चाहिए।
इन घटनाओं के बाद कुछ राजनीतिक बयान आए — किसी ने कहा दोषी फलां जाति का है, किसी ने कहा जांच पक्षपातपूर्ण है। परंतु राजनीति का यही चेहरा समाज में जहर घोल देता है। जरूरत इस समय बयानबाजी की नहीं, बल्कि संवेदना की है। राजनीति के बजाय अगर नेता व्यवस्था सुधार की मांग करें, तो यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी। क्योंकि जो मरे हैं, वे राजनीति के लिए नहीं, न्याय के लिए लड़े थे।
हरियाणा की पहचान उसकी मेहनतकश जनता, किसानों, जवानों और भाईचारे से रही है। अगर हम जातीय विभाजन में बँट गए, तो यह ताकत खो जाएगी। हमें याद रखना होगा — जो समाज नफरत में उलझता है, वह विकास में पिछड़ जाता है।
इसलिए यह वक्त नफरत के खिलाफ खड़े होने का है। जो लोग सोशल मीडिया पर उकसाने वाली बातें फैला रहे हैं, उन्हें पहचानिए और उनसे दूरी बनाइए। हमारा उद्देश्य होना चाहिए — हरियाणा को एक बार फिर भरोसे, एकता और शांति की राह पर लाना।
किसी समाज की परिपक्वता का पैमाना यह नहीं होता कि उसके पास कितनी ताकत या संपत्ति है, बल्कि यह होता है कि वह अपने पीड़ितों के प्रति कितना संवेदनशील है। आज अगर हम इन आत्महत्याओं को एक सबक की तरह लें और अपने संस्थानों को संवेदनशील बनाएं, तो यह इन शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
हमें ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहाँ कोई भी व्यक्ति यह महसूस न करे कि उसे न्याय पाने के लिए मरना पड़ेगा। प्रशासनिक सुधार जरूरी हैं। अफसरों की समस्याओं को सुनने और सुलझाने के लिए स्वतंत्र शिकायत मंच बने। पुलिस और प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य परामर्श की व्यवस्था हो। नेतृत्व ऐसा हो जो अपने अधीनस्थों को परिवार की तरह समझे। समाज में संवाद बढ़े और जातीय दूरी घटे।
जब तक ये सुधार नहीं होंगे, तब तक हर आत्महत्या के साथ हमारा सामाजिक संतुलन थोड़ा और टूटता जाएगा। पूरन कुमार और संदीप लाठर की आत्महत्याएँ हमारे लिए गहरा सबक हैं। यह जातीय नहीं, मानवीय त्रासदी है। यदि हम इसे जातीय रंग देंगे, तो हम उनके बलिदान को अपमानित करेंगे।
हमें उनका संदेश समझना होगा — न्याय, सुधार और भाईचारा ही आगे बढ़ने का रास्ता है। आज हरियाणा के हर नागरिक से एक ही अपील है — संकट के समय में संयम रखिए। अफवाहों और नफरत से दूर रहिए। क्योंकि नफरत पर आधारित समाज कभी सुखी नहीं होता। समझदार साथियों को आगे आकर इस नफरत को हराना होगा और भरोसे की नींव फिर से मजबूत करनी होगी। तभी हम उस हरियाणा को बचा पाएँगे, जो मेहनत, एकता और आपसी प्रेम की पहचान रहा है।
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