ई-वेस्ट: 21वीं सदी का छिपा हुआ पर्यावरणीय बम
ई-वेस्ट: डिजिटल क्रांति की छिपी हुई त्रासदी
ई-वेस्ट: आधुनिक जीवनशैली की खामोश कीमत
तकनीकी प्रगति ने मानव जीवन को अभूतपूर्व सुविधाएँ प्रदान की हैं।स्मार्टफोन, लैपटॉप, टेलीविजन जैसे उपकरणों ने हमारे काम, संचार और मनोरंजन के तरीकों को क्रांतिकारी रूप से बदल दिया है। लेकिन इस डिजिटल युग की चमक के पीछे एक गहरा संकट छिपा है—इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-वेस्ट)। यह न केवल पर्यावरण के लिए घातक है, बल्कि मानव स्वास्थ्य और सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के लिए भी गंभीर खतरा बन चुका है। तेजी से बढ़ता ई-वेस्ट और इसका अनियंत्रित निपटान 21वीं सदी की सबसे जटिल वैश्विक चुनौतियों में से एक है।
ई-वेस्ट में पुराने मोबाइल, कंप्यूटर, बैटरी, रेफ्रिजरेटर जैसे बेकार इलेक्ट्रॉनिक उपकरण शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में वैश्विक स्तर पर 62 मिलियन टन ई-वेस्ट उत्पन्न हुआ, जो 2010 की तुलना में 82% अधिक है और 2026 तक इसके 74 मिलियन टन तक पहुँचने का अनुमान है। भारत, जो इस सूची में चौथे स्थान पर है, ने 2022 में 3.2 मिलियन टन ई-वेस्ट पैदा किया। चिंताजनक बात यह है कि वैश्विक स्तर पर केवल 22.3% ई-वेस्ट ही औपचारिक रूप से रीसाइकिल होता है, बाकी अनौपचारिक क्षेत्रों या लैंडफिल में चला जाता है।
ई-वेस्ट की सबसे बड़ी चुनौती इसके जहरीले तत्वों—सीसा, पारा, कैडमियम, आर्सेनिक और लिथियम(The silent cost of modern lifestylesToxic elements—lead, mercury, cadmium, arsenic, and lithium)—में निहित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, इनके संपर्क से साँस की बीमारियाँ, कैंसर, त्वचा रोग और तंत्रिका तंत्र की समस्याएँ हो सकती हैं। खुले में जलाए जाने पर ई-वेस्ट जहरीली गैसें जैसे डाइऑक्सिन और फ्यूरान उत्सर्जित करता है, जो वायु प्रदूषण को बढ़ाता है। भारत में दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहरों में अनौपचारिक रीसाइक्लिंग क्षेत्र में हजारों श्रमिक बिना सुरक्षा उपायों के इस कचरे को संभालते हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 95% ई-वेस्ट अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा संसाधित होता है, जिससे पर्यावरण और श्रमिकों के स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान होता है।
इस संकट की जड़ हमारी उपभोक्ता संस्कृति में भी है। हर साल नए स्मार्टफोन और गैजेट्स की लॉन्चिंग पुराने उपकरणों को तेजी से बेकार कर देती है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर के अनुसार, औसतन हर 2-3 साल में लोग स्मार्टफोन बदलते हैं। कंपनियाँ “प्लांड ऑब्सोलेंस” की रणनीति अपनाती हैं, जिससे उत्पाद कम टिकाऊ बनते हैं, और उपभोक्ता बार-बार नया सामान खरीदते हैं। भारत में 2024 में 150 मिलियन से अधिक स्मार्टफोन की बिक्री का अनुमान है, जिससे ई-वेस्ट का ढेर तेजी से बढ़ रहा है। यह न केवल पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव डालता है, बल्कि दुर्लभ धातुओं जैसे कोबाल्ट और लिथियम की माँग को भी बढ़ाता है।
ई-वेस्ट का प्रभाव पर्यावरण तक सीमित नहीं है; यह सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को भी गहरा करता है।भारत में अनौपचारिक रीसाइक्लिंग क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर लोग गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों से हैं, जो निम्न मजदूरी में जोखिम भरी परिस्थितियों में काम करते हैं। ई-वेस्ट से निकलने वाले जहरीले तत्व—सीसा, पारा, कैडमियम—भूजल और मिट्टी को दूषित करते हैं, जिससे खाद्य शृंखला और मानव स्वास्थ्य खतरे में पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली के सीलमपुर और मुंडका जैसे क्षेत्रों में अनियंत्रित रीसाइक्लिंग के कारण मिट्टी और पानी में भारी धातुओं की मात्रा खतरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। यह न केवल स्थानीय समुदायों, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी गंभीर संकट है।
इस चुनौती से निपटने के लिए तत्काल और समन्वित प्रयास जरूरी हैं।सबसे पहले, औपचारिक रीसाइक्लिंग प्रणाली को मजबूत करना होगा। भारत में ई-वेस्ट मैनेजमेंट नियम, 2016 के तहत उत्पादकों की जिम्मेदारी को लागू किया गया है, जो कंपनियों को अपने उत्पादों के जीवनचक्र के अंत में निपटान की जिम्मेदारी सौंपता है। लेकिन इन नियमों का कार्यान्वयन कमजोर है। सरकार को आधुनिक रीसाइक्लिंग संयंत्रों को प्रोत्साहन देना चाहिए और अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक प्रणाली में एकीकृत करना चाहिए। यूरोपीय संघ, जहाँ 65% ई-वेस्ट औपचारिक रूप से एकत्र होता है, इसका बेहतरीन उदाहरण है। भारत को ऐसी ही प्रभावी प्रणाली विकसित करनी होगी।
दूसरा, उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव लाना अनिवार्य है। “रिपेयर एंड रीयूज़” की संस्कृति को बढ़ावा देना होगा। जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में लोग पुराने उपकरणों की मरम्मत को प्राथमिकता देते हैं। भारत में भी स्थानीय स्तर पर मरम्मत केंद्र स्थापित किए जा सकते हैं, जो न केवल ई-वेस्ट को कम करेंगे, बल्कि स्थानीय रोजगार के अवसर भी बढ़ाएँगे। तीसरा, जनजागरूकता अभियान महत्वपूर्ण हैं। स्कूलों, कॉलेजों और समुदायों में ई-वेस्ट के खतरों और इसके सुरक्षित निपटान के बारे में जागरूकता फैलानी होगी। कई देशों में “ई-वेस्ट ड्रॉप-ऑफ पॉइंट्स” स्थापित हैं, जहाँ लोग पुराने उपकरण जमा कर सकते हैं। भारत में बेंगलुरु जैसे शहरों में कुछ निजी संगठनों ने ऐसी पहल शुरू की है, लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना जरूरी है। चौथा, तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देना होगा। ई-वेस्ट से सोना, चाँदी और ताँबा जैसी मूल्यवान धातुएँ निकालने के लिए नई तकनीकों का विकास संभव है। उदाहरण के लिए, 1 टन स्मार्टफोनों से 300 ग्राम सोना निकाला जा सकता है। यह न केवल आर्थिक लाभ देगा, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी कम करेगा।
ई-वेस्ट का यह अंधेरा पक्ष हमें सिखाता है कि तकनीकी प्रगति की कीमत पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर नहीं पड़नी चाहिए। यह संकट एक अवसर भी है—टिकाऊ भविष्य के लिए नवाचार और जिम्मेदारी को अपनाने का। सरकार, उद्योग और नागरिकों के सामूहिक प्रयासों से हम इस चुनौती पर काबू पा सकते हैं। यह समय है कि हम डिजिटल युग की चमक को वास्तव में सार्थक बनाएँ और ई-वेस्ट के खिलाफ यह लड़ाई पर्यावरण, समाज और आने वाली पीढ़ियों की भलाई के लिए जीतें।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत