मोदी सरकार ने 40 रोहिंग्याओं महिलाएं, किशोर, बुजुर्ग और एक कैंसर रोगी शामिल
भारत की एक गौरवशाली परंपरा रही है जिससे वह बहुत नीचे गिर गया .
——नई दिल्ली /1 जून /अटल हिन्द /राजकुमार अग्रवाल —-
रोहिंग्या को अक्सर दुनिया में सबसे ज्यादा सताए गए अल्पसंख्यकों में गिना जाता है. वे भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों की तरह भारत के पड़ोसी देशों से हैं. फिर उन्हें न सिर्फ़ नागरिकता बल्कि लंबी अवधि के वीजा से भी क्यों वंचित रखा जाता है? इसके बजाय उन्हें ख़तरनाक और परजीवी कहकर क्यों कलंकित किया जाता है और हाल के वर्षों में उन्हें जबरन बाहर क्यों निकाला गया है? क्या ऐसा सिर्फ उनकी धार्मिक पहचान की वजह से है?
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले ग्यारह वर्षों में भारत के लोग सरकारी तंत्र द्वारा निशाना बनाकर की जाने वाली क्रूरता के आदी हो गए हैं. ऐसी घटनाएं हमारी चेतना को सुन्न कर देती हैं. बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के मुसलमानों के घरों को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया जाता है. असहमति की आवाज़ उठाने वाले लोगों को बिना किसी उचित प्रक्रिया के वर्षों तक जेलों में बंद कर के रखा जाता है. पुलिस की गोलियों से हज़ारों लोग मारे जाते हैं या हमेशा के लिए अपंग हो जाते हैं. धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कर दिया जाता है. पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है जबकि भीड़ द्वारा लोगों को पीट-पीटकर मार डाला जाता है.
लेकिन घृणा की राजनीति के इन मानकों के अनुसार भी भारत की सरकार का और अधिक पतन हुआ है. सरकार द्वारा नियंत्रित मीडिया द्वारा निर्मित मोटी दीवारों के बावजूद कई रिपोर्ट सामने आईं कि 40 रोहिंग्याओं – जिनमें महिलाएं, किशोर, बुजुर्ग और एक कैंसर रोगी शामिल थे – को नौसेना के जहाज से समुद्र में फेंक दिया गया. उन्हें तैर कर म्यांमार के तट पर जाने के लिए छोड़ दिया गया. यह वही भूमि है जहां से नरसंहार से बचने के लिए वे भागकर आए थे.
रोहिंग्या शरणार्थियों (Rohingya refugees)को भारतीय नौसेना के जहाज से समुद्र में फेंक दिए जाने की ख़बर सबसे पहले मीडिया पोर्टल मकतूब मीडिया ने दी, उसके बाद स्क्रॉल ने एक विस्तृत खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की. इस घटना की शुरुआत 6 और 7 मई को हुई, जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया, दिल्ली पुलिस ने रोहिंग्या शरणार्थियों के खिलाफ एक बड़ी कार्रवाई की.
स्क्रॉल की रिपोर्ट है कि पूरी दिल्ली में पांच झुग्गी बस्तियों – हस्तसाल, उत्तम नगर, मदनपुर खादर, विकासपुरी और शाहीन बाग़ – में मुस्लिम और ईसाई रोहिंग्या शरणार्थियों के घरों पर छापेमारी के बाद कम-से-कम 43 रोहिंग्या पुरुष, महिलाएं और बच्चों को हिरासत में लिया गया. कम-से-कम एक रोहिंग्या व्यक्ति को एक सार्वजनिक अस्पताल से खींचकर ले जाया गया जहां वह अपनी पत्नी की देखभाल कर रहा था. बिना भोजन के पुलिस थानों में घंटों बिताने के बाद उन्हें दिल्ली के इंद्रलोक स्थित ‘अवैध शरणार्थीयों‘ के लिए बने डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया. जहां उन्हें यह बताया गया कि उनका बायोमेट्रिक डाटा इकट्ठा करने के लिए उन्हें यहां लाया गया है. शरणार्थियों ने डिटेंशन सेंटर में साफ सफाई, खाना, पानी की भारी कमी की शिकायत की.

वहां से उन्हें बस से दिल्ली हवाई अड्डे ले जाया गया और फिर हवाई जहाज में बैठाकर 1300 किलोमीटर दूर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के पोर्ट ब्लेयर ले जाया गया. इसके बाद, भयभीत समूह ने बताया कि उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई, उनके हाथों में हथकड़ी लगा दी गई और उन्हें नौसेना के एक जहाज पर चढ़ा दिया गया. समुद्री यात्रा कष्टदायक थी. कुछ महिलाओं ने छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया. अधिकारियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि उन्हें इंडोनेशिया में सुरक्षित स्थान पर भेजा जा रहा है.
तीन या चार घंटे बाद उनकी आंखों पर से पट्टी हटा दी गई और उनकी हथकड़ियां खोल दी दी गईं. जीवन रक्षक जैकेट देने के बाद उन सभी को समुद्र में कूदने के लिए मजबूर किया गया – जिनमें बुजुर्ग, बच्चे, महिलाएं और बीमार लोग शामिल थे. सौभाग्य से वे सभी बच गए. वे किनारे पर पहुंच गए, लेकिन स्थानीय लोगों से बात करने के बाद उनका डर और बढ़ गया. उन्हें एहसास हुआ कि वे इंडोनेशिया में नहीं बल्कि म्यांमार में वापस आ गए हैं. लेकिन उनकी किस्मत अच्छी थी कि इस क्षेत्र पर सैन्य जुंटा का नियंत्रण नहीं था. यहां की कमान नागरिक राष्ट्रीय एकता सरकार के पास थी, जिसे सेना ने हिंसक तरीके से हटा दिया था, इसलिए कम-से-कम फिलहाल तो वे सुरक्षित थे.
भले ही भारत शरणार्थी सम्मेलन से कानूनी रूप से बंधा न हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रथागत कानून अभी भी भारत को नरसंहार उत्पीड़न से बचने वाले लोगों को उस भूमि पर लौटने के लिए मजबूर नहीं करने के लिए बाध्य करता है जहां उनके जीवन को गंभीर रूप से ख़तरा है. इतना ही नहीं. भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 न केवल नागरिकों बल्कि भारत के क्षेत्र में सभी व्यक्तियों को उनकी कानूनी स्थिति की परवाह किए बिना सम्मान के साथ जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है. म्यांमार के तट के पास समुद्र में रोहिंग्या को जबरन निर्वासित करना स्पष्ट रूप से अंतरराष्ट्रीय प्रथागत कानून और भारतीय संवैधानिक कानून दोनों का उल्लंघन करता है.
भारत को निश्चित रूप से दूसरे देशों से अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने वाले लोगों को वापस भेजने का कानूनी अधिकार है. लेकिन कानून के अनुसार, विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत दोषी ठहराए गए अवैध प्रवासियों की वापसी के लिए उनके मूल देश के साथ सावधानीपूर्वक बातचीत की जानी चाहिए. इसके अलावा, जब मूल देश उन्हें अपने नागरिक के रूप में मान्यता देने से इनकार कर देता है – जैसे म्यांमार की सैन्य सरकार रोहिंग्या लोगों को अपने नागरिक के रूप में मान्यता देने से इनकार करती है – और इसके बजाय उन्हें नरसंहार की धमकी दी जाती है, तो लोगों को नरसंहार की स्थिति में जबरन वापस भेजना अंतरराष्ट्रीय कानून, संवैधानिक दायित्वों और सामान्य मानवता के सिद्धांतों का उल्लंघन है. 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया कि रोहिंग्या शरणार्थियों के निर्वासन की अनुमति नहीं दी जा सकती ‘जब तक कि ऐसे निर्वासन के लिए निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता’.
बिना दस्तावेज़ वाले लोगों को वापस भेजना मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा बनाई गई नीति नहीं है. फ्रंटलाइन में अंगशुमन चौधरी और अपनी पुस्तक Bangladeshi Migrants in India: Foreigners, Refugees or Infiltrators? में रिज़वाना शमशाद ने दर्ज किया है कि कांग्रेस सरकार के केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने 1989 में संसद को बताया कि सरकार ने असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की सीमाओं के जरिये 35131 ‘को वापस भेजा है.
भाजपा समर्थकों के समक्ष रोहिंग्या के प्रति क्रूरता को एक शक्तिशाली हिंदू नेता (Powerful Hindu leader)द्वारा हिंदू बहुसंख्यकों को उपहार के रूप में पेश किया जाता है. हालांकि रोहिंग्या को एक दुश्मन के रूप में, राष्ट्र के लिए एक असहनीय बोझ की तरह पेश करना तर्कसंगत नहीं है. पहले उनकी संख्या पर विचार करें. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने 2017 में संसद को सूचित किया कि भारत में 40,000 रोहिंग्या अवैध रूप से रह रहे हैं. यूएनएचसीआर के अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 22,500 के करीब है. वे भारत सरकार की सहायता के बिना जीवन निर्वाह करते हैं, आमतौर पर कूड़ा बीनते हैं, घरेलू नौकर का काम करते हैं या दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं और अमानवीय स्थिति में झुग्गियों में रहते हैं. 1.3 अरब आबादी वाले देश में किस आधार पर 22,500 दीन-हीन रोहिंग्या लोगों को भारत के संसाधनों पर एक असहनीय बोझ माना जा सकता है? मुसलमान होने के कारण उन पर आतंकवादी होने का आरोप लगाया जाता है.
अंगशुमान चौधरी (Angshuman Chaudhary)लिखते हैं कि मुझे आश्चर्य है कि वे आज अपने देश के बारे में क्या सोचते, जो निर्दयतापूर्वक सताए गए और अन्य धर्मों तथा देशों के शरणार्थियों को जेलों से भी अधिक दमनकारी डिटेंशन सेंटर्स में डाल देता है, उन्हें दोनों तरफ़ से चल रही गोलियों के बीच सीमाओं के पार धकेल देता है, या उन्हें नरसंहार का शिकार बनने के लिए समुद्र के किनारे पर तैरने के लिए फेंक देता है. (द वायर से साभार )