पहलगाम से लेकर युद्ध विराम तक के घटना विकास – जो किसी काण्ड से कम नहीं है — और अचानक बीच में ही रोक दी गयी झड़प के नाम पर ऑपरेशन सिन्दूर के भुलावों को लेकर देश की संसद में हुई बहस में उठे सवालों से बचने और अपनी जाहिर-उजागर असफलताओं को ढांपने के लिए जब कुछ भी नहीं मिला, तो मोदी और उनका कुनबा अपने उसी घिसे-पिटे बेसुरे राग – हिन्दू खतरे में है – की फटी-पुरानी छतरी तान कर खड़ा हो गया। संसद में बहस इतिहास में पहली बार भारत को दुनिया में एकदम अलग-थलग करने की रौरव स्थिति में ला देने वाली विदेश नीति पर हो रही थी ; मुद्दा अमरीका के दुष्ट राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा युद्ध विराम करवाने के बार-बार किये जा रहे दावे से दुनिया भर में हो रही भारत की सार्वजनिक बेइज्जती का था : अमरीका और उसके लगुये-भगुए देशों, यहाँ तक कि परम्परागत रूप से भारत के साथ रहे देशों द्वारा भी पाकिस्तान के साथ दिखाए जा रहे दुलार, आदर और सत्कार का था, भारत को दी जा रही एलानिया धमकियों जैसे लज्जित करने वाले नजारों का था ; मगर भाजपा के नेतृत्व के श्रेणी क्रम में गिनती जहां पूरी हो जाती है, उस दो नंबर पर विराजे अमित शाह को इस सब में हिन्दू खतरे में दिखाई दे रहा था।
यह अनायास या अचानक नहीं था ; सत्ता पार्टी भाजपा यह तय करके आई थी। इस बात का संकेत उनके ढीठ सांसद पहले ही दे चुके थे, जब पहलगाम में, खुद केंद्र सरकार की लापरवाही से, आतंकियों की गोलियों का निशाना बने 26 हिन्दुस्तानियों को पूरी निर्लज्जता से उन्होंने भारतीय नागरिक मानने तक से इनकार कर दिया था और हरेक का नाम बोले जाने पर उसे जोर से चीखते चिंघाड़ते हुए “हिन्दू” बताया था। इसी अमावस को पूर्णता की ओर खुद अमित शाह ने पहुंचाया और सारी जवाबदेही को हिन्दू की आड़ में सरकाने की चतुराई दिखाने की कोशिश की। सारे फ़साने में जिसका जिक्र न था, वह बात उन्हें सख्त नागवार गुजरी और उन्होंने “दुनिया के सामने, देश की जनता के सामने गर्व से कहता हूँ कि हिन्दू कभी टेररिस्ट नहीं हो सकता…” की प्रस्थापना दी। ध्यान रहे कि यह दावा सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर से जग प्रसिद्ध हुए वे अमित शाह कर रहे थे, जिनकी अपनी भागीदारी वाली गुजरात सरकार में मंत्री रहे, पूर्व गृहमंत्री हरेन पांडया की हत्या को लेकर पांड्या की पत्नी सैकड़ों सवाल उठाती रहती हैं और किन-किन पर साजिश का आरोप लगाती हैं, यह देश जानता है, तो अमित शाह तो जानते ही होंगे।
उनके कहे के पीछे के इरादे को अलग करके देखा जाए, तो हिन्दू तो क्या कोई मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी या यहूदी भी आतंकी नहीं हो सकता।
मानव समाज में सभी धर्मों को मानने वालों की संख्या अपार बहुमत में है – वे आतंकी नहीं हैं। कोई धर्म, मजहब, रिलीजन आतंकी नहीं बनाता ; आतंकी का कोई धर्म-मजहब नहीं होता। वे एक प्रोजेक्ट के तहत योजना बनाकर, जहरीले विचार के घोल में खौला, खदका कर, हाथ पाँव फुलाकर दिमाग पिचकाकर तैयार किये जाते हैं। आजाद हिन्दुस्तान में पहली आतंकी कार्यवाही 30 जनवरी, 1948 को हुई थी, जिसमें मरने वाले इस धरा के सबसे पक्के हिंदू थे, जिनका नाम महात्मा गाँधी था और उनके पाँव छूकर उनके सीने में गोलियां दागने वाला जो आतंकी था, नाथूराम गोडसे का नाम धर कर आया था। अब अमित शाह गोडसे को हिन्दू मानते हैं या नहीं या उन्होने भी उपाध्याय, चौबे, त्रिगुणायत और पाठक उपनामी बामनों को ब्राहमणों की कतार से बाहर खड़ा कर चुके मोदी जी के परममित्र रामभद्राचार्य की तर्ज पर चितपावन बामन गोडसे को हिन्दू ही मानना बंद कर दिया है?
आजाद हिन्दुस्तान के दो प्रधानमंत्री आतंकी हत्याओं का शिकार हुए। इनमें से एक राजीव गाँधी के हत्यारे और हत्या कराने वाला प्रभाकरण अमित शाह के वर्गीकरण के हिसाब से कौन था? साहित्यकार कलबुर्गी, अंधश्रद्धा और अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को जगाने में लगे दाभोलकर, एक्टिविस्ट और इतिहासकार पानसारे और पत्रकार गौरी लंकेश को अत्यंत निर्ममतापूर्वक मार डालने वाले कौन थे? इन हत्याकांडों की जिम्मेदारी लेने और इनमें लिप्त पाए गए संगठन अभिनव भारत से जुड़े लोग किस धर्म की आड़ में यह सब कर रहे थे? भाजपा और संघ से संबद्ध व्यक्ति के नाते नहीं, तो देश के गृह मंत्री की हैसियत से तो अमित शाह जी को यह पता ही होना चाहिए।
जिस दिन अमित शाह संसद में “हिन्दू आतंकी नहीं हो सकता” का दावा ठोंक रहे थे, ठीक उसी वक़्त कर्नाटक के एक सरकारी स्कूल के मुस्लिम प्रिंसिपल को हटवाने के लिए पीने के पानी की टंकी में जहर घोलकर 11 मासूम बच्चों – जिनमे प्रायः सभी हिन्दू थे – की जान जोखिम में डालने वाले श्रीराम सेना के सागर पाटिल, मदार और नंदन कौन थे? इन दिनों जो यूपी के मुख्यमंत्री हैं, दो दशक पहले उनकी मौजूदगी में भाषण देते हुए “कब्रों से लाशों को निकालकर उनके साथ बलात्कार करने” का उदघोष करने वाला “वीर” कौन था? वह किस धर्म की रक्षा करने का दावा कर रहा था?
आतंकी कौन होता है? दुनिया भर में मान्य आतंकवाद की शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार : “आतंकवाद एक प्रकार की हिंसात्मक गतिविधि है। अगर कोई व्यक्ति या कोई संगठन अपने आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक लक्ष्यों को पाने के लिए देश या देश के नागरिकों की सुरक्षा को निशाना बनाए, तो उसे आतंकवाद कहते हैं।“ इसके अनुसार “गैर-राज्य कारकों – नॉन स्टेट एक्टर्स – द्वारा की गयी, उभारी जाने वाली राजनीतिक एवं वैचारिक हिंसा भी आतंकवाद की ही श्रेणी में आती है।“
इन दिनों गैर-कानूनी हिंसा को भी आतंकवाद में शामिल कर लिया गया है : “अगर इसी प्रकार की गतिविधि आपराधिक संगठन चलाने या उसे बढ़ावा देने के लिए की जाती है तो सामान्यतः उसे भी आतंकवाद माना जाता है। आतंकवाद किसी धर्म या पंथ से नहीं जुड़ा है।“
इस लिहाज से समाज में नफरत और घृणा फैलाना, असहमत और विरोधियों की हत्या करना, दूसरे धर्मों या असहमत नागरिकों पर हमले करना, उनके पूजास्थलों पर तोड़फोड़ करना आतंकी कार्यवाही है। इन दिनों जम्बूदीपे भारतखंडे में इसके जम्बो जेट का रिमोट और पूरी संगठित वाहिनियाँ किसके हाथ में हैं, यह दुनिया जानती है, इसलिए बताने की जरूरत नहीं है। ये वे लोग हैं, जिन्हें हिंदुत्व – जिसका स्वयं इस शब्द को गढ़ने वाले स्वघोषित नास्तिक वी डी सावरकर के अनुसार हिन्दू धर्म की परम्पराओं के साथ कोई संबंध नहीं है – के आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए तैयार किया गया है, किया जा रहा है।
भारत में प्रचलित मिथकों के रूपक में कहा जाए, तो आतंकवाद भस्मासुर होता है – वह किसी को नहीं बख्शता, वह अपने-पराये में भेद नहीं करता। जिस दिन अमित शाह संसद में आतंकी न होने का खम ठोक रहे थे, ठीक उसके एक दिन पहले, 30 जुलाई को, राजस्थान के सिरोही जिले की अदालत संघ प्रचारक द्वारा, संघ के ही जिला प्रचारक की हत्या संघ के ही कार्यालय में किये जाने के दोष सिद्ध अपराधी संघ प्रचारक को आजीवन कारावास की सजा सुना रही थी। वर्ष 2018 में सिरोही के आर एस एस कार्यालय में इसके जिला प्रचारक साधू अवधेशानंद महाराज की 30-40 बार चाकू घोंपकर उनकी हत्या कर दी गयी थी। हत्या करने वाला भी संघ का ही प्रचारक उत्तम गिरी था। रामकथा से शुरू हुआ विवाद शाखा लगाने के अधिकार से होते हुए इस निर्ममता तक पहुंचा। संघ के व्यक्ति को मार डालने – ध्यान दें, इसे वध नहीं कहा गया – वाले हत्यारे को बचाने के लिए संघ के ही वकीलों के संगठन के राष्ट्रीय नेता, नए कानूनों के बनाए जाते समय संसद की स्थायी समिति के समक्ष विशेषज्ञ बनकर प्रस्तुत हुए संघ के वरिष्ठ वकील राणा साहब थे। अजमेर की ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर बम धमाकों के मुजरिमों के वकील रहने वाले राणा कुनबे में इतने बड़े हैं कि उनके बेटे की शादी में खुद सरसंघचालक मोहन भागवत तक गए थे।
अमित शाह जिस दिन हिन्दुओं की आड़ लेकर इस हिन्दुत्ववादी आतंक का बचाव कर रहे थे, उसके अगले ही दिन अदालत कई भारतीयों की मौत के जिम्मेदार सितम्बर 2008 के मालेगांव के बम विस्फोट मामले में पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर सहित सभी आरोपियों को छोड़ रही थी। इसलिए नहीं कि वे निर्दोष साबित हो गए थे, बल्कि इसलिए कि दोष साबित नहीं किये जा सके थे। स्वयं अदालत के शब्दों में : “अभियोजन पक्ष ने यह तो साबित किया कि बम फटा था, मगर वह यह साबित नहीं कर सका कि बम मोटर साइकिल में था और चूंकि उस बाइक का चेसिस नम्बर नहीं मिला, इसलिए यह भी साबित नहीं हो सका कि वह प्रज्ञा सिंह की ही थी।“
जज ने यह भी कहा कि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, मगर सिर्फ धारणा काफी नहीं होती, पुख्ता सबूत जुटाए जाने चाहिए।“ साफ़ है कि ऐसा कहते हुए एक तरह से अदालत खुद मान रही थी कि अभियोजन ने अपना काम नहीं किया। सनद रहे कि यह वही काण्ड है, जिसकी जांच महाराष्ट्र एटीएस की तरफ से शहीद पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे कर रहे थे और जिनकी आतंकियों द्वारा की गयी संदिग्ध हत्या पर इन्ही प्रज्ञा सिंह ने ख़ुशी जताई थी। यह भी सनद रहे कि ये वे ही प्रज्ञा सिंह ठाकुर हैं, जिन्हें आर एस एस प्रचारक सुनील जोशी की हत्या के मामले में गिरफ्तार और चार्जशीट किया गया था। यह गिरफ्तारी उन्हीं शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री रहते हुए हुई थी, जो अब दावा कर रहे हैं कि “उनका – प्रज्ञा सिंह ठाकुर का – जन्म ही देश को सुरक्षित रखने के लिए हुआ है।“
मक्का मस्जिद, समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव धमाकों की एन आई ए की चार्जशीट में नामजद संघ प्रचारक सुनील जोशी की हत्या 29 दिसंबर 2007 को हुई थी। मध्यप्रदेश पुलिस ने प्रज्ञा सिंह तथा उनके सहयोगियों के खिलाफ अपनी चार्जशीट में इस हत्या के दो मुख्य कारण बताये थे : एक तो यह कि प्रज्ञा सिंह को आशंका थी कि वह उन आतंकी कार्यवाहियों में मुंह खोल सकता है। दूसरी यह कि उसने उनके साथ निजी तौर पर ऐसी बदसलूकी की थी, जिसे कोई महिला सहन नहीं कर सकती। नतीजे में उनकी हत्या कर दी गयी। वे संघ के इस दस्ते के प्रमुख थे। पुलिस जांच के अनुसार वडोदरा की बेस्ट बेकरी में 14 लोगों को ज़िंदा जला देने के काण्ड के आरोपी हर्षद, मेहुल, राकेश और उस्ताद उन्हीं के साथ छुपे हुए थे और हत्या वाले दिन तक के मोबाइल रिकॉर्ड प्रज्ञा सिंह के उनके संपर्क में रहने की पुष्टि करते हैं। 23 अक्टूबर 2008 को प्रज्ञा और बाकी 11 पर कार्यवाही हुई, 25 मार्च 2009 को केस बंद कर दिया गया । फिर 9 जुलाई 2010 को फाइल फिर खोल दी गयी। ध्यान रहे यह सारी खोला-मूंदी भाजपा की शिवराज सरकार के दौरान ही हुई। मोदी के केंद्र में आने के बाद इस केस को देवास की अदालत को लौटा दिया गया और एडीजे राजीव आप्टे ने उन्हें मालेगांव केस की तरह “अभियोजन द्वारा पुख्ता सबूत न प्रस्तुत किये जाने” के चलते बरी कर दिया। इस बीच प्रज्ञा सिंह भोपाल से चुनाव जीतकर भारतीय संसद की शोभा भी बढ़ा आयीं। अमित शाह के शब्दकोष में इनके लिए कौन-सा शब्द है?
वर्ष 2001 में अफगानिस्तान के बामियान में तालिबानियों ने अत्यंत प्राचीन बुद्ध मूर्तियों को धूल में मिला दिया गया था ; सारी दुनिया ने उसे आतंकी कार्यवाही करार दिया था। भारत में इस तरह का सिर्फ एक बाबरी ध्वंस ही नहीं हुआ – तब से लगातार किसी-न-किसी रूप में धीमी या तेज गति से जारी है। यह सब करने वाले कौन हैं? ये वही विषाक्त बनाए गए लोग हैं, जिनका किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है – मगर अमित शाह उन्हें हिन्दू बना बताकर उनके लबादे में अपने आर्थिक, राजनैतिक, वैचारिक लक्ष्य को छुपाना चाहते हैं। कभी किसी फिल्म का प्रदर्शन रोकने के लिए हुल्लड़ मचाना, तो कभी दीपिका पादुकोणे की नाक काटने के लिए इनाम घोषित करना, उन्माद को बर्बरता में बदलने की मुहिम का हिस्सा है।
यह ऐसी आजमाई विधा है, जो धर्म का नाम भर लेती है और अपने कर्मों से सबसे पहले और सबसे ज्यादा जिसकी दुहाई देती है, उसी धर्म को नुक्सान पहुंचाती है। ओसामा बिन लादेन इसका एक नमूना है, तो म्यांमार का स्वयं को बौद्ध भिक्खु बताने वाला आशिन विराथु इसका एक और पड़ोसी उदाहरण है। इसने दुनिया के इकलौते धर्म, जिसमें किसी भी तरह की हिंसा का तनिक भी प्रावधान नहीं है, उस बौद्ध धर्म के नाम पर ही नरसंहार करा दिया।
बुद्ध के श्लोकों में बार-बार कहा गया है कि : “हिंसा से सभी कांपते हैं। सभी मृत्यु से डरते हैं। स्वयं भी ऐसा ही करने के बाद, आपको न तो किसी को नुकसान पहुंचाना चाहिए और न ही मारना चाहिए।” यह भी कि: “इस संसार में शत्रुता कभी भी शत्रुता से शांत नहीं होती, बल्कि शत्रुता के अभाव से ही वे शांत होती हैं। यह एक अंतहीन सत्य है।” मेत्ता सुत्त की एक पंक्ति कहती है : “सम्पूर्ण विश्व के प्रति प्रेम-दया का भाव विकसित करना चाहिए, एक ऐसी मनःस्थिति जिसकी कोई सीमा न हो —ऊपर, नीचे और आर-पार — बिना किसी सीमा के, बिना किसी शत्रुता के, बिना किसी विरोधी के।”अहिंसा का यह सिद्धांत, जो संपूर्ण पाली कैनन — प्रारंभिक बौद्ध शिक्षाओं का संग्रह — में साफ़-साफ़ दर्ज है, उसी बुद्ध धर्म के नाम पर म्यांमार में आदिवासियों की मारामारी जारी है।
इस तरह के सारे ठगों का तरीका एक जैसा होता है : धार्मिक राष्ट्रवाद, उस धर्म को खतरे में बताना, धर्म और नस्ल का सफाया होने का डर दिखाना, नकली दुश्मन पैदा करना ; जैसे म्यांमार में रोहिंग्या आदिवासियों को “चट्टगांव बंगाली” बताया गया, नरसंहार किया और फिर देश से बाहर खदेड़ दिया गया।
2016 में प्रकाशित पुस्तक “म्यांमार का भीतरी शत्रु” में , फ्रांसिस वेड ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि किस तरह बौद्ध नस्ल के खात्मे का डर दिखाया गया, जबकि इस तरह की कोई नस्ल होती ही नहीं है। बौद्ध धर्मं के लुप्त होने का भय दिखाया गया, जबकि आज भी 90 प्रतिशत बौद्ध हैं और आबादी की बनावट में किसी बदलाव या घट-बढ़ के दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं है।
इस सबको पढ़ते हुए यदि इधर के मिलते-जुलते साम्य ध्यान में आते हैं : बांग्ला देशी के नाम पर बांग्ला भाषियों के साथ जो हो रहा है वह और धर्म, आबादी, नस्ल खतरे में है, के नारे सुनाई देते है, तो यह संयोग भर नहीं । यह एक ही तरह की स्क्रिप्ट का एक ही तरह से किया जाने वाला मंचन है। हिटलर से लेकर हरेक फासिस्ट तानाशाही ने ऐसा स्वांग रचकर ही मनुष्यता को आघात पहुंचाया हैं।
भेड़िये हमेशा धर्म और मजहब को भेड़ की खाल की तरह ओढ़ कर आये हैं! पाकिस्तान की यात्रा से लौटकर लिखी ग़ज़ल में निदा फाजली साहब ने यूं ही नहीं लिखा था कि : ख़ूँ-ख़्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं/ हर शहर बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी।/ हिन्दू भी मजे में है मुसलमां भी मजे में/ है इंसान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी।
(लेखक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94242-31650)