हथकड़ी से पहले वजह — न्याय की मानवीय मिसाल
यह फैसला नहीं, स्वतंत्रता का नवसंविधान है
हिरासत नहीं, हवाले अब इंसानियत के होंगे
भारत के लोकतंत्र की असली ताकत उसकी “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” (Personal freedom)में निहित है। यही स्वतंत्रता हर नागरिक की गरिमा, आत्मसम्मान और स्तित्व की आधारशिला है। यह केवल एक कानूनी अधिकार नहीं, बल्कि वह भावना है जो हर व्यक्ति को समानता और सुरक्षा का भरोसा देती है। इसी भावना को और सशक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 6 नवम्बर को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने न्याय और स्वतंत्रता – दोनों के मायनों को नया आयाम दिया। अदालत ने स्पष्ट कहा कि अब किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय उसे उसकी अपनी समझ की भाषा में और लिखित रूप में गिरफ्तारी का कारण बताना अनिवार्य होगा। यह निर्णय केवल कानून की प्रक्रिया में सुधार नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों के सम्मान और न्याय के मानवीय दृष्टिकोण की पुनर्स्थापना है — यह याद दिलाता है कि न्याय सिर्फ सज़ा देना नहीं, बल्कि सम्मान और पारदर्शिता की रक्षा करना भी है।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई (Chief Justice B.R. Gavai)और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने यह ऐतिहासिक फैसला ‘मिहिर राजेश शाह बनाम महाराष्ट्र राज्य’ मामले में सुनाया, जो 2024 के चर्चित मुंबई बीएमडब्ल्यू हिट-एंड-रन केस से जुड़ा था। इस घटना ने पूरे समाज में यह गूंजता सवाल खड़ा कर दिया था कि क्या हमारे देश में कानून सबके लिए समान है, या फिर प्रभावशाली लोगों के लिए इसके नियम बदल जाते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने इस भ्रम को सशक्त शब्दों में दूर किया और यह स्पष्ट संदेश दियाकि “व्यक्तिगत स्वतंत्रता कोई विशेषाधिकार नहीं(Personal liberty is not a privilege), बल्कि हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है।” यह बयान केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं थी, बल्कि लोकतंत्र की उस मूल भावना की पुनर्पुष्टि थी जो हर व्यक्ति को समान न्याय और गरिमा का अधिकार देती है।
52 पन्नों के फैसले में बेहद सटीक शब्दों में कहा कि गिरफ्तारी का कारण बताना कोई औपचारिकता नहीं, बल्कि यह किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता की सबसे पहली और सबसे अहम ढाल है। अदालत ने स्पष्ट किया कि अगर किसी कारणवश पुलिस तुरंत लिखित सूचना नहीं दे पाती, तो पहले मौखिक रूप में कारण बताना अनिवार्य होगा, लेकिन दो घंटे के भीतर लिखित जानकारी देना और मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से पहले यह प्रक्रिया पूरी करना हर स्थिति में आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो ऐसी गिरफ्तारी और हिरासत को पूरी तरह अवैध माना जाएगा, और संबंधित व्यक्ति को तुरंत रिहा करना पड़ेगा।
यह फैसला भारतीय संविधान के दो महत्वपूर्ण अनुच्छेदों – अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 22(1) (गिरफ्तारी के समय कारण बताने का अधिकार) – के बीच एक सशक्त सेतु का कार्य करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “किसी व्यक्ति को तभी न्याय मिलेगा, जब उसे यह पता हो कि उस पर आरोप क्या हैं, और यह तभी संभव है जब जानकारी उसकी समझ की भाषा में दी जाए।” यह बात न केवल संवैधानिक सिद्धांत को जीवंत बनाती है, बल्कि भारत की न्याय प्रणाली के मानवीय चेहरे को भी सामने लाती है। कई बार गरीब, अशिक्षित या क्षेत्रीय भाषाओं के जानकार लोगों को गिरफ्तारी के समय ऐसे दस्तावेज थमा दिए जाते हैं जिन्हें वे पढ़ या समझ नहीं पाते। ऐसे में उनका संवैधानिक अधिकार सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court)का यह निर्णयइस “भाषाई अन्याय” पर निर्णायक चोट करता है और यह सुनिश्चित करता है कि न्याय हर व्यक्ति तक उसकी भाषा और समझ के स्तर पर पहुँचे — क्योंकि असली न्याय वही है जो सबके लिए समान और सुलभ हो।
यह फैसला केवल नागरिकों के अधिकारों को नहीं, बल्कि पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी को भी स्पष्ट करता है। अब हर अधिकारी को गिरफ्तार व्यक्ति को न केवल कारण बताना होगा, बल्कि उसकी समझ की भाषा में लिखित रूप में यह जानकारी देनी होगी।कोर्ट ने साफ कहा है कि अगर अधिकारी ऐसा नहीं करते, तो गिरफ्तारी की वैधता पर सवाल उठेगा और वह कानून की दृष्टि में अवैध मानी जाएगी। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि इस फैसले की प्रति सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजी जाए ताकि देशभर में इसका समान रूप से पालन हो सके।यह निर्देश पुलिसिंग में पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिक-हित को प्राथमिकता देता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल कानूनी दायरे में नहीं सिमटा है — यह एक राजनैतिक-सामाजिक संदेश भी देता है कि राज्य की शक्ति सीमित है और नागरिक की स्वतंत्रता सर्वोपरि।कई बार गिरफ्तारी का प्रयोग राजनीतिक विरोध को दबाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने या प्रशासनिक डर पैदा करने के औजार के रूप में होता है। लेकिन अब, हर गिरफ्तारी के साथ एक लिखित कारण, एक पारदर्शी प्रक्रिया, और एक न्यायिक उत्तरदायित्व अनिवार्य होगा।इससे दो सबसे महत्वपूर्ण परिणाम होंगे —पुलिस विवेकाधिकार पर नियंत्रण — ताकि किसी की मनमानी से नागरिकों के अधिकार न कुचले जाएँ।आरोपी को आत्मरक्षा का अवसर — ताकि वह अपने ऊपर लगे आरोपों को समझकर कानूनी रूप से अपनी रक्षा कर सके।
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह फैसला “हैबियस कॉर्पस” यानी अवैध हिरासत से मुक्ति के अधिकार को और मजबूत करता है। यह नागरिकों के लिए सुरक्षा की एक ऐसी दीवार खड़ी करता है, जो सत्ता के मनमाने इस्तेमाल के खिलाफ उन्हें ढाल देती है। अब पुलिस या प्रशासन किसी व्यक्ति को बिना ठोस कारण या उचित सूचना के लंबे समय तक हिरासत में रख पाने की स्वतंत्रता नहीं रखेगा। यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था को “सत्ता का उपकरण” बनने से बचाकर उसे “कानूनी उत्तरदायित्व” का संवाहक बनाता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का पुनर्जागरण है। यह हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र का असली अर्थ सिर्फ वोट देना नहीं, बल्कि अपने अधिकारों को समझना और उनके लिए खड़ा होना भी है। अब किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय वह अंधेरे में नहीं रहेगा — उसे यह बताया जाएगा “क्यों” उसे पकड़ा गया है।और यही “क्यों” भारतीय लोकतंत्र (Indian democracy)की सबसे सशक्त नींव है। अब गिरफ्तारी का मतलब सिर्फ हथकड़ी पहनाना नहीं, बल्कि संविधान का वह काग़ज़ देना भी है —जो बताता है कि राज्य की शक्ति भी कानून से बंधी है,और नागरिक की आज़ादी सर्वोच्च है।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत”


