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10 घरों पर बम से हमला और उनमें आगजनी में 8 लोग, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल हैं, जलाकर मार दिए गए

हिंसा पूरे भारत में है,लेकिन बंगाल राजनीतिक स्वभाव से ही हिंसक है

10 घरों पर बम से हमला और उनमें आगजनी में 8 लोग, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल हैं, जलाकर मार दिए गए


अपूर्वानंद

पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में रामपुरहाट के करीब बोगतुम गांव में 21 मार्च की रात हुए हत्याकांड ने देश को झकझोर दिया है. तकरीबन 10 घरों पर बम से हमला और उनमें आगजनी में 8 लोग, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल हैं, जलाकर मार दिए गए. बाद में इसमें बहस होगी कि क्या उन्हें जला दिया गया था या घरों में लगाई गई आग में जलकर वे मर गए. इस फर्क से हत्या की प्रकृति में अंतर आ जाएगा, क्रूरता के स्तर में भी.

8 people, including women and children, were killed in the bomb attack and arson of 10 houses

हमने सबसे पहले मारे जाने वालों के नाम देखे. टुली खातून, शेली बीबी, नूरनेहर बीबी, लिली खातून, रूपाली बीबी, जहांआरा बीबी, मीना बीबी, साजिर दुर रहमान. राहत की सांस ली. फिर मुझे खुद पर शर्म आई.

लेकिन इस पहली और अविचारित प्रतिक्रिया का कारण है. हर उस हत्या को, जो हिंदुओं की हो और खासकर पश्चिम बंगाल में, जिस तरह प्रचारित किया जाता है, उससे मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष लोगों को खासी आश्वस्ति होती है. चूंकि मारे गए सभी मुसलमान हैं, इस हत्याकांड के लिए अब भारत भर के मुसलमानों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकेगा.

लेकिन क्या यह तसल्ली इंसानी है? राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस हत्याकांड को बंगाल को बदनाम करने की साजिश बताया. फिर उन्होंने विश्वास दिलाया कि हिंसा में शामिल लोगों को बख्शा नहीं जाएगा, उनका राजनीतिक रंग कुछ भी हो. इस आख़िरी अंश में बंगाल की त्रासदी छिपी है.

मारे गए लोग और मारनेवाले, दोनों ही सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस से संबद्ध या उसके समर्थक बताए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि सोमवार शाम को तृणमूल कांग्रेस के जुड़े एक बाहुबली भादू शेख की हत्या के कुछ देर बाद ही मोटरसाइकिल पर सवार कोई सौ गुंडे गांव में घुसे और उन्होंने बमबारी, आगजनी की, जिसमें ये 8 लोग मारे गए.

इससे निष्कर्ष निकाला जा आरहा है कि यह तृणमूल पार्टी के सदस्यों के बीच की रंजिश का नतीजा है. भादू शेख के बारे में बतलाया जाता है कि वह बड़ा गुंडा था. जाहिर है उसने अपने दुश्मन पैदा किए होंगे. उसकी हिंसा का प्रतिकार उसकी हत्या से लिया गया. फिर इस हत्या का जवाब इस हत्याकांड से दिया गया.

क्या इसे राजनीतिक हिंसा कहा जा सकता है? जैसा पुलिस का कहना है, क्या यह दो समूहों के बीच के झगड़े का परिणाम है?
एक राजनीति शास्त्री ने टेलीग्राफ अखबार को बताया कि यह नहीं कह सकते कि यह राजनीति नहीं है क्योंकि यह तृणमूल के भीतर के राजनीतिक संघर्ष का ही एक नतीजा है. तृणमूल के भीतर कई गुट हैं. उनके बीच के संघर्ष को अराजनीतिक नहीं कहा जा सकता.

ममता बनर्जी ने कहा कि ऐसी चीज़ें बंगाल में नहीं होतीं और चूंकि उनकी सरकार को अस्थिर करने का हर उपाय विफल हो गया है, इस तरह का षड्यंत्र किया जा रहा है. विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने इसे राज्य में अराजकता का नया उदाहरण बतलाया है और राष्ट्रपति शासन की मांग की है. वाम दलों ने राज्य में कानून व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने का आरोप लगाया है.

हिंसा हिंसा होती है. हत्या हत्या होती है. फिर भी वह कैसे की जाती है, इससे हत्या और हत्या के बीच का अंतर मालूम होता है. खुलेआम सौ लोगों का मोटरसाइकिल पर एक गांव में घुसकर हमला करना, घरों में आग लगाकर लोगों को जलाकर मार देना, यह गोली मार देने से अधिक भयानक है.

कुछ ही दूर पर स्थित पुलिस थाने से पुलिस के आने में घंटा भर लग जाना, यह भी हत्या को दूसरा रंग दे देता है. राज्य ने यह हत्या होने दी. आखिर वहां पुलिस ही तो राज्य है.

बंगाल में पुलिस और पार्टी में फर्क काफी पहले मिट गया था. वाम मोर्चे के समय ही. पुलिस थाने पार्टी की मर्जी से चलते थे. ऐसे पुलिस अधिकारियों के उदाहरण दुर्लभ हैं जिन्होंने पार्टी से स्वतंत्र अपना दायित्व निभाया हो.

यह तो 2002 में गुजरात में भी नहीं हुआ था. ऐसे अधिकारी वहां थे जिन्होंने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वाह किया. कीमत भले चुकानी पड़ी उसकी. बंगाल में जो पुलिस पहले सीपीएम की थी, वह अब तृणमूल की है.

इस मामले में मरने वाले और मारने वाले एक ही दल के हैं. लेकिन बंगाल में प्रायः यह नहीं होता. वाम मोर्चे की तीन दशक की सरकार के पतन और तृणमूल की अभूतपूर्व विजय के बाद सीपीएम के दफ्तरों पर हमले शुरू हो गए. उन पर कब्जा, उनकी तोड़फोड़, उन्हें जलाया जाना, यह देखकर हममें से कुछ लोगों से इस हिंसा के खिलाफ वक्तव्य जारी करने की सोची.

हमने वैसे लोगों से संपर्क किया जो उसके पहले सीपीएम की हिंसा के खिलाफ मुखर थे. उत्तर निराशाजनक था. एक बड़ी लेखिका ने तो इस वक्तव्य के प्रस्ताव को सुनकर फोन ही पटक दिया. यह देखकर समझ पाया कि हम वास्तव में हिंसा के खिलाफ नहीं, हम अपनी हिंसा चुन लेते हैं.
यह भी याद आया कि तृणमूल की हिंसा के प्रभुत्व के पहले सीपीएम की हिंसा का विरोध करने में भी बहुत लोगों को संकोच हुआ था.

हिंसा पूरे भारत में है. राजनीतिक हिंसा भी. लेकिन बंगाल का राजनीतिक स्वभाव ही हिंसक है. इस बार भी विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद तृणमूल पार्टी की तरफ से विरोधियों पर हमले किए गए.

पश्चिम बंगाल में उसके पहले वाम हिंसा का बोलबाला था. स्थानीय चुनावों में दूसरे दलों को उम्मीदवार न खड़े देना आम बात थी. वही संस्कृति तृणमूल ने अपनाई. तृणमूल ने वाम हिंसा का सामना किया था. लेकिन उसकी जगह उसने तृणमूल हिंसा स्थापित कर दी.

बंगाल में शायद ही कोई पार्टी से स्वतंत्र हो. हर व्यक्ति या तो वाम होता है, या तृणमूल या अब भाजपा. तृणमूल ने सीपीएम के तरीके से उसे तोड़ दिया. अब उसकी हिंसा की प्रतिद्वंद्विता में भारतीय जनता पार्टी सामने आई है. हिंसा बनी हुई है.

समाज का पार्टी समाज में बदल जाना इस हिंसा के मूल में है. कई पीढ़ियां इस हिंसा को ही राजनीति मानकर बड़ी हुई हैं. ममता बनर्जी सोचती हैं कि वे इसे नियंत्रित कर पाएंगी लेकिन जैसा इस घटना से जाहिर है हिंसा विकेंद्रित हो जाती है और स्वायत्त भी. अगर पार्टी को हिंसा चाहिए तो उसे स्थानीय स्वायत्तता भी देनी होगी. तभी उसे अपनी सेना मिल पाएगी.

वक्त बहुत पहले ही आ गया था कि पश्चिम बंगाल के सारे राजनीतिक दल मिलकर इस हिंसा की राजनीति का त्याग करें. इसने समाज को खोखला कर दिया है. मालूम है कि यह कहना आसान है, होना मुश्किल. लेकिन अगर बंगाल का समाज यह नहीं देख पा रहा है कि यह किस प्रकार उसे विकृत कर रही है तो उसका उद्धार संभव नहीं है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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