आरएसएस : दोरंगी चाल के सौ साल
(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
आरएसएस के सरसंघचालक, मोहन भागवत ने हाल के दिल्ली के अपने तीन दिन के व्याख्यान के आखिरी दिन, सवालों के जवाब के बहाने से मथुरा और काशी के मंदिर-मस्जिद विवाद के सिलसिले में जो कुछ कहा, संघ की दोरंगी चाल का शास्त्रीय उदाहरण है
याद दिला दें कि अयोध्या मामले में अदालती फैसले के बाद आरएसएस की ओर से बार-बार यह कहा गया था कि वह अब और ऐसे किसी आंदोलन को समर्थन नहीं देगा। इसके बावजूद, पिछले साल के दौरान न सिर्फ आरएसएस समर्थित ग्रुपों/ व्यक्तियों ने काशी और मथुरा के विवादों को बहुत बढ़ा दिया था, बल्कि पिछले साल के आखिरी तथा इस साल के शुरू के महीनों में संभल की शाही मस्जिद से लेकर, अजमेर शरीफ की दरगाह तक, आधा दर्जन से ज्यादा मुस्लिम धार्मिक स्थलों पर ‘नये विवाद’ छेड़े जा चुके थे, जो तब तक सुर्खियों में बने रहे, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने उन पर अंकुश नहीं लगा दिया।
आरएसएस के सरसंघचालक, मोहन भागवत (RSS chief, Mohan Bhagwat)ने हाल के दिल्ली के अपने तीन दिन के व्याख्यान के आखिरी दिन, सवालों के जवाब के बहाने से मथुरा और काशी के मंदिर-मस्जिद विवाद के सिलसिले में जो कुछ कहा, संघ की दोरंगी चाल का शास्त्रीय उदाहरण है। भागवत ने अयोध्या, मथुरा और काशी के प्रसंगों को आपस में जोड़ते हुए, चार बातें कहीं, जिनमें ऊपर से देखने पर अंतर्विरोध दिखाई देता है, हालांकि जैसा कि हम आगे देखेेंगे, यह वास्तविक अंतर्विरोध नहीं, बल्कि आरएसएस की दोरंगी चाल का ही मामला है।
भागवत ने पहली बात यह कही कि आरएसएस ने, अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में, मस्जिद की जगह पर ही मंदिर बनाने के आंदोलन में हिस्सा लिया था। उन्होंने न सिर्फ इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने दावा किया, बल्कि आंदोलन को शीर्ष तक ‘लेकर जाने’ जाने का भी दावा किया। इशारा इस आंदोलन को, अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह पर ही राम मंदिर निर्माण में कामयाबी तक पहुंचाने की ओर था।
भागवत ने दूसरी बात यह कही कि आरएसएस का ‘आंदोलन में उतरना’ अयोध्या प्रकरण के लिए ही था। अब काशी और मथुरा प्रकरणों में आरएसएस, आंदोलन में नहीं उतरेगा। लेकिन, इसके बाद उन्होंने ‘हिंदुओं की भावनाओं’ की दुहाई देकर, न सिर्फ काशी तथा मथुरा में मस्जिदों पर हिंदू-दावेदारियों का अनुमोदन कर दिया, बल्कि यह कहकर इन मस्जिदों को भी मंदिरों मेें तब्दील करने के आंदोलनों के लिए आरएसएस के समर्थन के दरवाजे खोलने का भी ऐलान कर दिया कि हिंदू होने के नाते आरएसएस के स्वयंसेवक और उसके साथ जुड़े संगठन भी, इन आंदोलनों में शामिल हो सकते हैं। यही भागवत की तीसरी बात थी, जिसका आशय यह है कि आरएसएस, औपचारिक रूप से तो इन आंदोलनों की अगुआई नहीं करेगा, लेकिन उसकी सेनाएं इन आंदोलनों में हिस्सा लेने के लिए स्वतंत्र होंगी।
भागवत सामान्य रूप से अब काशी तथा मथुरा की मस्जिदों के मंदिरों में परिवर्तन की मांग के आंदोलनों के लिए, आरएसएस की कतारों के लिए दरवाजे खोलने पर ही नहीं रुक गए। उन्होंने मुसलमानों के सामने, हिंदुओं के आग्रह को देखते हुए, इन दोनों मस्जिदों पर अपना दावा ‘छोड़ देेने’ की मांग भी रख दी। और यह मांग की जा रही थी, ‘भाईचारे’ की खातिर! मुसलमानों से कहा जा रहा था कि कुल तीन धार्मिक स्थलों का ही तो सवाल है, ‘भाईचारे’ (‘brotherhood)की खातिर कम से कम इतनी कुर्बानी तो वे दे ही सकते हैं! यह मांग तो बिल्कुल उचित या रीजनेबल है। जैसे इस मांग के रीजनेबल होने की ही पुष्टि करने के लिए, भागवत ने इसी सिलसिले में अपनी चौथी बात कही — हर जगह मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने की हमें जरूरत नहीं है। यह आखिरी बात, संघ प्रमुख पहले भी एक से ज्यादा मौकों पर कह चुके थे और उसे ही एक बार और दोहरा रहे थे।
एक ही विषय में और एक साथ कही गयीं, आरएसएस के मुखिया की उक्त चार बातों को जोड़कर देखा जाए तो क्या अर्थ निकलता है? क्या यह कि राम मंदिर के आंदोलन के विपरीत, काशी की ज्ञानवापी और मथुरा की ईदगाह मस्जिद के मामले में, आरएसएस आंदोलन का हिस्सा नहीं बनेगा, जैसी कि कई दैनिकों तथा समाचार चैनलों ने सुर्खी लगायी है। बेशक, प्रकटत: यह कहा जा रहा था, लेकिन इसके साथ ही कुछ और भी कहा जा रहा था, जो इसका विरोधी अर्थ दे रहा था।
यह स्पष्ट किया जा रहा था कि आरएसएस की सेनाएं उक्त मस्जिदों को मंदिरों में तब्दील करने के आंदोलनों में शामिल होंगी। इतना ही नहीं, आरएसएस की ओर से उन आंदोलनों को न सिर्फ उचित ठहराया जा रहा था, बल्कि मुसलमानों को ही समझाया जा रहा था कि उनका उक्त धार्मिक स्थलों पर अपना दावा ‘छोड़ देना’ ही उचित या रीजनेबल होगा। इस तरह, आरएसएस मुखिया एक ही सांस में एक साथ, मुस्लिमों के धार्मिक स्थलों पर, हिंदू दावेदारी के आंदोलनों से, अयोध्या आंदोलन के बाद खुद को अलग रखने का भी ऐलान कर रहे थे और ऐसे हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक आंदोलनों को उचित ठहराने से लेकर, आरएसएस के स्वयंसेवकों के उनमें हिस्सा लेने तक का अनुमोदन भी कर रहे थे। दूसरे शब्दों में, आरएसएस प्रकटत: दिखावा तो इसका कर रहा था कि अयोध्या प्रकरण बहुत हुआ, अब वह इस तरह के बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक आंदोलनों का हिस्सा नहीं बनेगा, जिनसे समाज में विभाजन बढ़ता है। पर वास्तविक व्यवहार में वह इन्हीं बहुुसंख्यकवादी सांप्रदायिक आंदोलनों को बढ़ावा देने के रास्ते पर चल रहा था।
वास्तव में यही दोरंगापन, उनके यह कहने के भी पीछे देखा जा सकता है कि, हरेक मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने की जरूरत नहीं है! भागवत अगर हरेक मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने की प्रवृत्ति को सचमुच देश और समाज के लिए नुकसानदेह मानते होते, तो उन्हें धार्मिक स्थल कानून के पालन का समर्थन करने से किस ने रोका था, जो अयोध्या मामले को छोड़कर, अन्य धार्मिक स्थलों को लेकर ठीक ऐसी ही मांगों पर रोक लगाने के लिए, बनाया गया था और बाकायदा देश का वैध कानून है। सच्चाई यह है कि भागवत और उनके संगठन के इस तरह के बयान, अपनी मूल भूमिका को बनाए रखते हुए, आम लोगों के बीच, जिनका अभी उस हद तक सांप्रदायीकरण नहीं किया जा सका है, स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए दिखावे के लिए ही होते हैं और उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाना जा सकता है।
याद दिला दें कि अयोध्या मामले में अदालती फैसले के बाद आरएसएस की ओर से बार-बार यह कहा गया था कि वह अब और ऐसे किसी आंदोलन को समर्थन नहीं देगा। इसके बावजूद, पिछले साल के दौरान न सिर्फ आरएसएस समर्थित ग्रुपों/ व्यक्तियों ने काशी और मथुरा के विवादों को बहुत बढ़ा दिया था, बल्कि पिछले साल के आखिरी तथा इस साल के शुरू के महीनों में संभल की शाही मस्जिद से लेकर, अजमेर शरीफ की दरगाह तक, आधा दर्जन से ज्यादा मुस्लिम धार्मिक स्थलों पर ‘नये विवाद’ छेड़े जा चुके थे, जो तब तक सुर्खियों में बने रहे, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने उन पर अंकुश नहीं लगा दिया। ये सारे ‘नये विवाद’ आरएसएस प्रमुख के यह कहने के बाद छेड़े गए थे कि हरेक मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने की जरूरत नहीं है।
यह दोरंगापन, जिसे आरएसएस की स्थापना के सौ साल होने के मौके पर आयोजित अपने विशेष समारोही और प्रचाराकांक्षी व्याख्यान में भागवत ने एक प्रकार से प्रमुखता से प्रदर्शित किया है, इस सौ साल की यात्रा में आरएसएस की मुख्य पहचान ही बना रहा है। सभी जानते हैं कि सौ साल पहले, जब आरएसएस की स्थापना हुई थी, उसके पीछे असली मकसद हिंदू-जागरण के नाम पर, सामाजिक रूप से ऊंचे तबकों के पीछे, निचले तबकों को गोलबंद करना था, ताकि मुसलमानों के खिलाफ एक प्रहारक शक्ति खड़ी की जा सके। लेकिन, आरएसएस यह काम हिंदू-राष्ट्रवाद का स्वांग धरकर करता था, जबकि उसके सारे काम, वस्तुगत रूप से भी और मनोगत रूप से भी, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ देश में चल रही राष्ट्रवाद की प्रबल लहर के खिलाफ थे।
हैरानी की बात नहीं है कि अपनी स्थापना के बाद, देश को आजादी मिलने तक, दो दशक से ज्यादा में आरएसएस ने न सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन से सचेत रूप से अपने आप को अलग रखा था, उसकी पूरी ताकत राष्ट्रीय आंदोलन और उसके मुख्य आधार के रूप में हिंदू-मुस्लिम एकता को कमजोर करने पर ही लगी रही थी। और देश के आजाद होने के बाद, अपनी सांप्रदायिक विभाजनकारी मुहिम को, पूरे भारत पर काबिज होने के रूप में परवान चढ़ाने के लिए, आरएसएस के विचार परिवार के ही लोगों ने, हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे मुखर प्रतीक, महात्मा गांधी की हत्या कर दी।
इसके बाद ही, पहली बार सरदार पटेल द्वारा देश के गृहमंत्री की हैसियत से आरएसएस पर प्रतिबंध लगाए जाने की बात सभी जानते हैं। बाद में यह पाबंदी हटाई जरूर गयी, लेकिन आरएसएस से इसका वचन लेने के बाद ही कि वह देश की राजनीति से दूर रहेगा तथा एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में ही काम करेगा और देश के संविधान के अनुसार काम करेगा। लेकिन, आरएसएस ने ईमानदारी से पटेल से किए गए वादों को पूरा करने के बजाए, इसे बाकायदा एक दोरंगी चाल के मौके में तब्दील कर लिया। पहले जनसंघ तथा बाद में भाजपा के रूप में राजनीतिक मोर्चा खोलकर, उसके माध्यम से आरएसएस ने बढ़ते पैमाने पर सीधे राजनीति करना भी जारी रखा और राजनीति से दूर रहने का पाखंड करना भी।
2014 के बाद से मोदी निजाम में भागवत और उनके आरएसएस ने सांस्कृतिक संगठन का अपना चोला ज्यादा से ज्यादा उतार दिया है और व्यवहार में अन्य साधनों से नहीं, बल्कि बढ़ते पैमाने पर सीधे-सीधे राजनीतिक साधनों से राजनीति करना शुरू कर दिया है। इसके बावजूद, अपने मूल स्वभाव के अनुरूप आरएसएस ने अपने गैर-राजनीतिक होने का स्वांग भी पूरी तरह से छोड़ा नहीं है, जैसा कि भागवत ने अपने व्याख्यान में भी संकेत दिया। लेकिन, इस स्वांग की हकीकत भी उन्होंने खुद ही भाजपा के अध्यक्ष के चुनाव में लग रही देरी पर, अपनी इस तंजिया टिप्पणी से उजागर कर दी कि आरएसएस अगर भाजपा के लिए फैसले कर रहा होता, तो इस चुनाव में इतनी देरी नहीं लगती। क्या यह इसी की शिकायत नहीं थी कि भाजपा के अध्यक्ष के चुनाव में आरएसएस की ही क्यों नहीं चल रही।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)