विवादों के बीच इतिहास से संवाद: क्या कहती है ‘द बंगाल फाइल्स’?
[विवादों के पार, सिनेमा का सवाल—क्या हम सच से डरते हैं?]
पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर हमेशा से चर्चा का विषय रही है।इस बार, यह चर्चा एक सिनेमाई रचना, द बंगाल फाइल्स के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जो इतिहास के पन्नों को पलटने और सामाजिक संवाद को बढ़ावा देने का वादा करती है। यह फिल्म, जो विवेक रंजन अग्निहोत्री, पल्लवी जोशी और अभिषेक अग्रवाल द्वारा निर्मित है, उनकी फाइल्स ट्रिलॉजी का अंतिम हिस्सा है। यह 1946 के ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स और नोआखाली दंगों जैसे ऐतिहासिक त्रासदियों पर आधारित है, जो भारत के विभाजनकाल के काले अध्यायों में से एक हैं। फिल्म का उद्देश्य इन घटनाओं की सच्चाई को सामने लाना है, जो न केवल ऐतिहासिक महत्व रखती हैं, बल्कि आज के समाज में भी गहरे सवाल उठाती हैं।
द बंगाल फाइल्स (The Bengal Files)का आधार 1946 के उन दुखद घटनाओं पर टिका है, जिनमें हजारों लोग मारे गए और लाखों बेघर हुए। इतिहासकारों के अनुसार, ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स में लगभग 4,000 लोग मारे गए थे, और नोआखाली दंगों ने सामाजिक ताने-बाने को गहरी चोट पहुंचाई थी। विवेक अग्निहोत्री, जो द ताशकंद फाइल्स और द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं, अपनी रचनाओं में गहन शोध और ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करने के लिए पहचाने जाते हैं। उनकी पिछली फिल्मों ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफलता हासिल की, बल्कि समाज में सार्थक बहस को भी जन्म दिया। द बंगाल फाइल्स भी इसी दिशा में एक कदम है, जो इतिहास के उन पहलुओं को सामने लाने का प्रयास करती है, जिन्हें अक्सर भुला दिया जाता है।
फिल्म का टीजर, जिसमें कुछ संवेदनशील दृश्य शामिल हैं, ने पश्चिम बंगाल में बहस छेड़ दी है।विशेष रूप से, एक दृश्य जिसमें दुर्गा मूर्ति को जलते दिखाया गया है, ने कुछ लोगों की भावनाओं को प्रभावित किया है। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है। इस संदर्भ में, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने टीजर को सांस्कृतिक संवेदनाओं के खिलाफ माना और इसके खिलाफ कानूनी कदम उठाए। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि हम इस मुद्दे को संतुलित दृष्टिकोण से देखें। जहां एक ओर सांस्कृतिक संवेदनाओं का सम्मान आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर, सिनेमा को ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाने की स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए। भारतीय संविधान (अनुच्छेद 19) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षण देता है, और सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) यह सुनिश्चित करता है कि फिल्में सामाजिक सौहार्द को बनाए रखें।
द बंगाल फाइल्स को लेकर उठा विवाद सिनेमा और समाज के बीच एक सकारात्मक संवाद का अवसर प्रदान करता है।फिल्म निर्माताओं का कहना है कि उनकी रचना गहन शोध पर आधारित है और इसका उद्देश्य नफरत फैलाना नहीं, बल्कि इतिहास के उन पहलुओं को उजागर करना है, जो समाज को एकजुट करने और भविष्य के लिए सबक सिखाने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, द कश्मीर फाइल्स ने जहां कश्मीरी पंडितों के दर्द को सामने लाया, वहीं इसने सामाजिक एकता और संवेदनशीलता पर भी चर्चा छेड़ी। इसी तरह, द बंगाल फाइल्स बंगाल के अतीत को समझने और उससे सीखने का एक मौका दे सकती है। सोशल मीडिया पर इस फिल्म को लेकर समर्थन और आलोचना दोनों देखने को मिल रही हैं। कुछ लोग इसे ऐतिहासिक सत्य को सामने लाने की साहसी कोशिश मानते हैं, जबकि अन्य इसे संवेदनशील मुद्दों को गलत तरीके से पेश करने का प्रयास मानते हैं। यह बहस स्वस्थ लोकतंत्र का हिस्सा है, जहां विचारों का आदान-प्रदान समाज को समृद्ध करता है।
द बंगाल फाइल्स का विश्व प्रीमियर अमेरिका के 11 शहरों में हो रहा है, जो दर्शाता है कि यह फिल्म न केवल भारत, बल्कि वैश्विक दर्शकों तक बंगाल के इतिहास को पहुंचाने का प्रयास कर रही है। यह एक सकारात्मक कदम है, क्योंकि यह भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को विश्व मंच पर ले जाता है। द बंगाल फाइल्स केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक ऐसा मंच है, जो हमें अपने इतिहास से रू-ब-रू कराता है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि सिनेमा का काम केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज को विचार करने, सीखने और एकजुट होने का अवसर भी देता है। 5 सितंबर 2025 को रिलीज होने वाली यह फिल्म निश्चित रूप से न केवल बंगाल के अतीत को उजागर करेगी, बल्कि यह भी दिखाएगी कि हम अपने इतिहास से कितना सीखने को तैयार हैं। सांस्कृतिक संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाते हुए, यह फिल्म समाज में सकारात्मक संवाद को बढ़ावा दे सकती है।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत