मनमर्जी नहीं जिम्मेदारी: कोर्ट ने राजनैतिक दलों को याद दिलाई मर्यादा
सड़कों पर उमड़ती भीड़, नारों की गूंज, और बैनरों की लहर—विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की जीवंत धड़कन हैं, जो अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने और बदलाव की मांग का सशक्त माध्यम हैं। किंतु जब ये प्रदर्शन आम जनता के लिए असुविधा का कारण बनते हैं—सड़कें जाम होती हैं, दुकानें बंद होती हैं, और लोग रोज़मर्रा के कार्यों से वंचित हो जाते हैं—तब इनका स्वरूप सवालों के घेरे में आ जाता है। मद्रास हाई कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया और राजनैतिक दलों को स्पष्ट संदेश दिया—विरोध प्रदर्शन न तो मनोरंजन का साधन हैं, न ही किसी की मनमर्जी का उपकरण। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित कर समाज को एक नई दिशा प्रदान करता है।
मद्रास हाई कोर्ट के न्यायाधीश बी. पुगालेन्धी ने एक महत्वपूर्ण फैसले में तमिलनाडु के शिवगंगाई जिले में विरोध प्रदर्शन की अनुमति मांगने वाली रिट याचिका खारिज कर दी। यह याचिका एक राजनैतिक दल के राज्य संयोजक जे. ईश्वरन ने दायर की थी, जो एक व्यक्ति, अजीत कुमार की मौत के विरोध में प्रदर्शन करना चाहते थे। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यही राजनैतिक दल हाल ही में उसी स्थान पर पांच दिन तक प्रदर्शन कर चुका था और अब उसी मुद्दे पर दोबारा प्रदर्शन की मांग कर रहा था। इसे “मनमर्जी” करार देते हुए कोर्ट ने कहा कि विरोध प्रदर्शन का अधिकार असीमित नहीं है। यह फैसला लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है, जो न केवल इस मामले तक सीमित है, बल्कि व्यापक सामाजिक संदर्भ में भी प्रासंगिक है।
मद्रास हाई कोर्ट (Madras High Court)ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के कई महत्वपूर्ण निर्णयों का उल्लेख करते हुए रेखांकित किया कि विरोध प्रदर्शन का अधिकार मौलिक होते हुए भी तर्कसंगत नियंत्रणों के अधीन है। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के “मजदूर किसान शक्ति संगठन बनाम उत्तर प्रदेश सरकार” मामले में स्पष्ट किया था कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत प्रदर्शन का अधिकार संरक्षित है, किंतु यह बिना शर्त नहीं है। प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक व्यवस्था और आम जनता की सुविधा का ध्यान रखना अनिवार्य है। इस सिद्धांत को दोहराते हुए मद्रास हाई कोर्ट ने कहा कि प्रदर्शन का अधिकार जनता के स्वतंत्र आवागमन और शांतिपूर्ण जीवन के अधिकार को बाधित नहीं कर सकता। कोर्ट ने आगे जोड़ा कि सार्वजनिक स्थान जनता के उपयोग के लिए हैं और इनका बार-बार प्रदर्शनों के लिए दुरुपयोग नहीं किया जा सकता। यह फैसला लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन को और सशक्त करता है।Whose roads? People’s or politics
यह फैसला भारत में विरोध प्रदर्शनों के बढ़ते चलन के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है। एक अध्ययन के अनुसार, 2016 से 2020 के बीच भारत में करीब 25,000 बड़े और छोटे विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें से कई ने सार्वजनिक जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2022 के आंकड़े बताते हैं कि ट्रैफिक अवरोध और सार्वजनिक व्यवस्था भंग होने की शिकायतें 30% तक बढ़ीं, जिनमें से अधिकांश अनियोजित प्रदर्शनों से जुड़ी थीं। ये आंकड़े रेखांकित करते हैं कि प्रदर्शन, हालांकि लोकतंत्र का अभिन्न अंग हैं, कई बार आम जनता के लिए असुविधा का कारण बनते हैं। यह फैसला लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति और सार्वजनिक सुविधा के बीच संतुलन की आवश्यकता को और मजबूती से स्थापित करता है।
मद्रास हाई कोर्ट का यह फैसला राजनैतिक दलों को उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों की सशक्त याद दिलाता है, जो लोकतांत्रिक अधिकारों और सार्वजनिक सुविधा के बीच संतुलन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रदर्शन का अधिकार जनता को असुविधा पहुंचाने का लाइसेंस नहीं है। उदाहरण के तौर पर, सड़कों पर लंबे समय तक जाम लगने से न केवल दैनिक यात्रियों को परेशानी होती है, बल्कि एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड जैसी आपातकालीन सेवाएं भी बाधित होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ट्रैफिक जाम के कारण आपातकालीन सेवाओं में देरी से हर साल लगभग 10% मरीजों की जान जोखिम में पड़ती है। यह गंभीर स्थिति प्रदर्शनों के आयोजन में जिम्मेदारी की आवश्यकता को और रेखांकित करती है।
कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि बार-बार एक ही स्थान पर प्रदर्शन न केवल जनता के लिए असुविधा का कारण बनता है, बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गरिमा को भी कमजोर करता है। प्रदर्शनों का उद्देश्य जागरूकता फैलाना और नीतिगत बदलाव की मांग करना होना चाहिए, न कि जनता को परेशान करना या राजनैतिक शक्ति का प्रदर्शन करना। इस संदर्भ में, कोर्ट ने सुझाव दिया कि राजनैतिक दलों को शांतिपूर्ण सभाओं या डिजिटल मंचों जैसे वैकल्पिक तरीकों का उपयोग करना चाहिए, ताकि जनता की दिनचर्या पर कम से कम प्रभाव पड़े। यह फैसला न केवल जिम्मेदार प्रदर्शनों को प्रोत्साहित करता है, बल्कि लोकतंत्र के मूल्यों को भी सुदृढ़ करता है।
मद्रास हाई कोर्ट का यह फैसला न केवल अपने स्थानीय संदर्भ तक सीमित है, बल्कि यह देशव्यापी स्तर पर लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। हाल ही में, कलकत्ता हाई कोर्ट ने भी एक समान मामले में फैसला सुनाते हुए एक राजनैतिक दल को रैली की अनुमति दी, लेकिन यह शर्त जोड़ी कि रैली सड़क के केवल एक-तिहाई हिस्से पर होगी, ताकि शेष दो-तिहाई हिस्सा वाहनों के आवागमन के लिए खुला रहे। यह शर्त दर्शाती है कि न्यायपालिका अब विरोध प्रदर्शनों के आयोजन में संतुलन को गंभीरता से ले रही है।
यह फैसला एक गहन प्रश्न की ओर इशारा करता है—लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन का महत्व तो निर्विवाद है, लेकिन क्या इसे अनियंत्रित छोड़ना उचित है? भारत जैसे घनी आबादी और सीमित संसाधनों वाले देश में सार्वजनिक स्थानों का उपयोग एक जटिल चुनौती है। एक ओर, विरोध प्रदर्शन सामाजिक और राजनैतिक बदलाव का महत्वपूर्ण साधन हैं, तो दूसरी ओर, इनके कारण होने वाली असुविधाएं आम जनता के दैनिक जीवन को बाधित करती हैं। इस संतुलन को बनाए रखने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देशों और जिम्मेदार आयोजन की आवश्यकता है।
मद्रास हाई कोर्ट का यह फैसला राजनैतिक दलों के लिए एक कड़ी नसीहत है और समाज के हर वर्ग को यह सोचने पर विवश करता है कि हम अपने अधिकारों का उपयोग कैसे करते हैं। यह हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल अधिकारों का दावा नहीं, बल्कि जिम्मेदारियों का निर्वहन भी है। जब तक हम अपने अधिकारों का उपयोग दूसरों के अधिकारों का सम्मान करते हुए नहीं करेंगे, तब तक सच्चे लोकतंत्र की स्थापना अधूरी रहेगी। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि एक शक्तिशाली सामाजिक संदेश भी देता है—विरोध प्रदर्शन न तो मनोरंजन हैं, न ही किसी की मनमर्जी का साधन। वे एक गंभीर जिम्मेदारी हैं, जिसे संवेदनशीलता और सावधानी के साथ निभाना होगा।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत