जब न्याय रो पड़ा: ओडिशा की किशोरी और हमारी चुप्पी की कीमत
हत्याएं नहीं, सामाजिक महामारी: महिलाओं पर अत्याचार की भयावह तस्वीर
एक मासूम किशोरी की चीखें आग की लपटों में दफन हो गईं। ओडिशा की यह दिल दहलाने वाली घटना सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि हमारे समाज की उस घिनौनी सड़ांध का प्रतीक है, जो महिलाओं को असुरक्षित, लाचार और खामोश करने पर तुली है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जस्टिस सूर्यकांत और जायमाल्या बागची ने इस क्रूरता को शर्मनाक और हृदयविदारक करार देते हुए एक गंभीर सवाल उठाया—यह बर्बरता कब तक चलेगी?(How long will this barbarity continue?) यह सवाल केवल अदालत की चारदीवारी तक सीमित नहीं, बल्कि हर उस इंसान के दिल को झकझोरता है, जो न्याय और मानवता में विश्वास रखता है। यह एक जागृति की पुकार है, जो हमें हमारी चुप्पी और उदासीनता पर सवाल उठाने को विवश करती है।
यह कोई अनोखी कहानी नहीं। ओडिशा की यह त्रासदी अकेली नहीं है; महाराष्ट्र, तमिलनाडु और देश के हर कोने से ऐसी ही रूह कंपा देने वाली घटनाएं सामने आती रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट महिला वकील संघ की आवाज ने इस कड़वी सच्चाई को और उजागर किया—एक 15 वर्षीय बच्ची को जिंदा जला दिया गया, और यह अमानवीय सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा। अदालत ने इसे महज एक घटना नहीं, बल्कि एक सामाजिक महामारी माना, जिसकी जड़ें हमारी रूढ़िगत मानसिकता, लचर व्यवस्था और गहरी उदासीनता में समाई हैं। पीठ ने सवाल उठाया, हम अपने समाज के सबसे कमजोर तबके—महिलाओं और बच्चों—को सशक्त और सुरक्षित बनाने के लिए क्या कर रहे हैं? यह सवाल एक चुनौती है, जो हमें हमारी जिम्मेदारी और जवाबदेही का कठोर सत्य दिखाती है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस संकट का एक ठोस समाधान पेश किया—ग्रामीण भारत में तालुका स्तर पर महिलाओं को प्रशिक्षित कर नियुक्त किया जाए। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को इस अभियान का अगुआ बनाया जाए, ताकि वे गांव-गांव जाकर महिलाओं को उनके अधिकारों की रोशनी दिखाएं। यह महज एक नीति नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का बीज है। ग्रामीण भारत, जहां शिक्षा, संसाधन और अवसरों की कमी महिलाओं को खामोशी थोपती है, वहां यह कदम एक नई सुबह का आगाज कर सकता है। अदालत ने अल्पकालिक और दीर्घकालिक उपायों का आह्वान किया—ऐसे उपाय, जो तत्काल राहत दें और समाज की सोच को जड़ से बदल दें। स्कूली लड़कियों को सशक्त करना, बच्चों को सुरक्षित आश्रय देना, और महिलाओं को उनकी आवाज बुलंद करने में मदद करना—इसके लिए समाज के हर तबके से सुझाव मांगे गए। यह एक खुला निमंत्रण है—हर व्यक्ति, हर समुदाय, हर संस्था को इस परिवर्तन का सिपाही बनने का।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस कड़वी सच्चाई को और नंगा करते हैं। 2022 में, भारत में महिलाओं के खिलाफ 4,45,256 मामले दर्ज हुए—बलात्कार, घरेलू हिंसा, हत्या। ये सिर्फ वे जख्म हैं, जो कागजों तक पहुंचे। कितनी ही चीखें अनसुनी रह गईं, कितने ही दर्द दबकर रह गए। ये आंकड़े चीख-चीखकर बताते हैं कि हमारी व्यवस्था में गहरी खामियां हैं। कानून बनाना, सजा देना, और फिर भूल जाना—यह चक्र अब टूटना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस चक्र को तोड़ने का आह्वान किया है। यह केवल कानूनी कर्तव्य नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक जवाबदेही का सवाल है।
यह वक्त आंसुओं या निंदा की रस्म निभाने का नहीं। यह वक्त है उस आग को बुझाने का, जो हर दिन किसी मासूम को लील रही है। हमें स्कूलों में लैंगिक समानता की शिक्षा को अनिवार्य करना होगा। हमें ऐसी व्यवस्था गढ़नी होगी, जहां हर महिला बिना डर के अपनी आवाज उठा सके, जहां उसकी शिकायत न केवल दर्ज हो, बल्कि उसकी गूंज सुनी जाए। हमें उन जंजीरों को तोड़ना होगा, जो महिलाओं को कमजोर मानती हैं। हमें उन रूढ़ियों को ललकारना होगा, जो कहती हैं कि एक लड़की की दुनिया चूल्हे-चौके तक सिमटी है। सुप्रीम कोर्ट की यह चेतावनी एक मशाल है—एक ऐसी सुबह की शुरुआत, जहां हर किशोरी, हर महिला, हर बच्चा न सिर्फ सुरक्षित हो, बल्कि अपनी ताकत और सपनों को उड़ान दे सके।
हमारी चुप्पी ने हमें इस अंधेरे मोड़ पर खड़ा किया। ओडिशा की उस किशोरी की चीखें आज भी गूंज रही हैं—हमें नींद से झकझोरने, हमारी जवाबदेही याद दिलाने के लिए। यह वक्त है बोलने का, लड़ने का, बदलने का। अगर हम अब नहीं जागे, तो हमारी अगली पीढ़ी भी उसी आग की चपेट में आएगी। यह कहानी सिर्फ उस किशोरी की नहीं है, जिसने ओडिशा के किसी गांव में अपनी जिंदगी की सबसे भयानक रात जिया। यह हर उस महिला की कहानी है, जो हर दिन अपनी आजादी, अपनी सुरक्षा और अपनी पहचान की जंग लड़ रही है। यह उन अनगिनत औरतों की पुकार है, जो घरों, सड़कों, कार्यस्थलों और समाज के हर कोने में अपमान, हिंसा और असमानता का सामना करती हैं। यह पुकार हमें याद दिलाती है कि हमारा मौन, हमारी निष्क्रियता, इस अन्याय को और बल देती है।
हम सब मिलकर यह कसम लें कि कोई और चीख दबेगी नहीं, कोई और सपना राख नहीं बनेगा। हमें न केवल आवाज उठानी होगी, बल्कि ठोस कदम भी उठाने होंगे। हमें अपने घरों से शुरू करना होगा—अपने बच्चों को सम्मान और समानता सिखाकर, अपनी सोच को बदलकर, और अपने आसपास के लोगों को जवाबदेह बनाकर। हमें उन नीतियों और व्यवस्थाओं पर सवाल उठाना होगा, जो पीड़ित को दोषी ठहराती हैं और अपराधी को बचाती हैं। हमें उन सामाजिक ढांचों को तोड़ना होगा, जो औरतों को उनकी आवाज, उनकी जगह, और उनकी सुरक्षा से वंचित करते हैं।
यह लड़ाई केवल महिलाओं की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है, जो एक बेहतर, सुरक्षित और समान समाज का सपना देखता है। हमें मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि ओडिशा की उस किशोरी की चीख आखिरी न हो, बल्कि वह एक नई शुरुआत का प्रतीक बने। एक ऐसी शुरुआत, जहां हर महिला, हर इंसान, बिना डर के जी सके, अपने सपनों को सच कर सके। हम सब मिलकर यह वादा करें कि हमारी चुप्पी अब और नहीं टूटेगी, और हमारा संकल्प इस अंधेरे को उजाले में बदलेगा। यह बदलाव हमसे शुरू होता है और इसे अभी शुरू करना है।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत