भारतीय मुसलमानों की सभी अन्य समस्याएं गरीबी के इर्द-गिर्द घूमती हैं
भले ही मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के बराबर अनुपात में संसद और राज्य विधानसभाओं में जगह मिल जाए, लेकिन यह अपने आप में उनके हितों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं देता है.
अटल हिन्द /हर्ष मंदर
(भारतीय मुस्लिमों पर दो लेखों की श्रृंखला की यह दूसरी क़िस्त है. पहला भाग यहांं पढ़ें.)
एक चेतावनी: जैसा कि हिलाल अहमद हमें याद दिलाते हैं, भले ही मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के बराबर अनुपात में संसद और राज्य विधानसभाओं में जगह मिल जाए, लेकिन यह अपने आप में उनके हितों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं देता है.
सिर्फ़ एक उदाहरण लें, 2012 से 2017 तक अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार में 69 मुस्लिम विधायक थे, इन 69 मुस्लिम विधायकों में से 45 समाजवादी पार्टी के सदस्य थे – फिर भी मुजफ्फरनगर में 2013 के मुस्लिम विरोधी दंगे इस सरकार की निगरानी में हुए, जिसमें राज्य प्रशासन हिंसा को रोकने, न्याय सुनिश्चित करने या पीड़ितों को राहत और पुनर्वास प्रदान करने में शर्मनाक रूप से विफल रही.
यह याद रखना भी ज़रूरी है कि भारतीय मुसलमान एक अत्यधिक विविध सामाजिक-धार्मिक समुदाय हैं, इस मामले में वे हिंदू, ईसाई और सिखों से अलग नहीं हैं. अधिक मुस्लिम प्रतिनिधित्व अपने आप में अधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की गारंटी नहीं है.
इतिहासकार हरबंस मुखिया ने लिखा है कि कैसे, लोकप्रिय और अक्सर विद्वानों के बीच होने वाली चर्चा में जब हम ‘हिंदू समुदाय’ की बात करते हैं, तो हम इसके भीतर मौजूद असंख्य विभाजनों, ख़ासकर जाति (और लिंग) के बारे में बात करने में देर नहीं लगाते; लेकिन मुसलमानों के बारे में आम तौर पर यही माना जाता है कि उनकी एक ही पहचान है, उनके बीच किसी तरह का विभाजन नहीं है.
भारतीय मुसलमानों के बीच आय, संपत्ति, रोजगार, आवास, सामाजिक स्थिति और राजनीतिक सत्ता को लेकर बहुत अंतर है; और संप्रदाय, जातीयता, भाषा, लिंग तथा जाति – जो दक्षिण एशिया में प्रचलित इस्लाम की एक विशेषता है – के मामले में भी अंतर है.
मुसलमानों की सभी अन्य समस्याएं गरीबी के इर्द-गिर्द घूमती हैं
लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता असग़र अली इंजीनियर ने 1978 में ‘What Have the Muslim Leaders Done?’ शीर्षक से एक आलोचनात्मक लेख में लिखा है कि ‘भारतीय मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है; वास्तव में मुसलमानों की सभी अन्य समस्याएं इसी गरीबी के इर्द-गिर्द घूमती हैं.‘
उन्होंने आगे लिखा कि ‘समस्या केवल नौकरियों की नहीं है … बल्कि मुसलमानों में सबसे गरीब लोगों की आजीविका की भी है.‘ लेकिन इस समस्या को संबोधित करने में ‘मुस्लिम नेतृत्व की भूमिका सबसे निराशाजनक रही है.‘
विफलता केवल गरीब मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की नहीं है. हाल के दशकों में, समानता के लिए मुस्लिम महिलाओं और पसमांदा मुसलमानों – यानी वंचित जातियों के मुसलमानों – के आंदोलनों के उदय ने हमें मुसलमान पहचान के लोगों के बीच न केवल वर्ग बल्कि जाति और लिंग से संबंधित भेदभाव की याद दिला दी है.
इसके मद्देनज़र, मुसलमान प्रतिनिधियों की संख्या में बढ़ोतरी को भारतीय लोकतांत्रिक और राजनीतिक जीवन में समतावादी मुस्लिम प्रतिनिधित्व तथा भागीदारी के मानक के रूप स्थापित नहीं किया जा सकता.
मुसलमानों में जाति की बड़ी विविधता को ही लें. फ़ारसी में ‘पसमांदा‘ शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो पीछे छूट गए हैं. भारतीय मुसलमानों में से अधिकांश पसमांदा हैं, या वंचित जातियों से धर्मांतरित हैं. लेकिन मुस्लिम राजनीतिक नेताओं में अधिक संख्या उन लोगों की है जो तथाकथित उच्च जातियों से हैं, जिन्हें अशराफ़ कहा जाता है.
समाजशास्त्री खालिद अनीस अंसारी का तर्क है कि अगर कोई जाति के आधार पर डेटा को अलग-अलग कर सके तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि संसद और राज्य विधानसभाओं में केवल वंचित जाति के मुसलमानों का ही प्रतिनिधित्व कम है, न कि उच्च जाति के मुसलमानों का.
और फिर, ज्यादातर मुसलमान प्रतिनिधि पुरुष हैं – और कुछ ही मेहनतकश वर्ग की पृष्ठभूमि से हैं. भले ही मुसलमान बड़ी संख्या में चुनाव जीतें, और अगर उनके प्रतिनिधि अभिजात्य, जातिवादी तथा पितृसत्तात्मक हैं, तो भारतीय मुसलमानों का बड़ा हिस्सा प्रतिनिधित्व से वंचित रह जाएगा.
भारतीय मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व के प्रमुख चेहरे वास्तव में उच्च वर्ग और प्रमुख जाति के पुरुष रहे हैं
हेलाल अहमद ने पुष्टि की कि भारतीय मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व के प्रमुख चेहरे वास्तव में उच्च वर्ग और प्रमुख जाति के पुरुष रहे हैं. उनका सर्वोपरि राजनीतिक एजेंडा उर्दू, मुस्लिम पर्सनल लॉ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र और वक्फ संपत्तियों की सुरक्षा रहा है.
हरबंस मुखिया 1980 के दशक के मध्य में शाहबानो प्रकरण को याद करते हुए कहते हैं कि राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के पास यह अवसर था कि धार्मिक नेताओं से परे मुस्लिम आवाज़ों और धार्मिक नेताओं द्वारा व्यक्त की गई मुस्लिम आकांक्षाओं से परे मुस्लिम आकांक्षाओं को मान्यता दे सकती थी, मगर उसने यह ऐतिहासिक अवसर खो दिया. सरकार ने ऐसा न करने का फ़ैसला किया, और देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी.
साथ ही, मुससमान महिलाओं के साथ-साथ वंचित जाति और कामकाजी वर्ग के मुसलमानों के हितों की वकालत करने के लिए किसी का मुसलमान होना ज़रूरी नहीं है. विभाजन के बाद जब मुसलमानों को भारतीय नागरिक के रूप में अपने अस्तित्व के सबसे गंभीर संकट का सामना करना पड़ा, तब मोहनदास करमचंद गांधी ने भारतीय मुसलमानों के हितों की वीरता पूर्वक रक्षा की, जिन्होंने उनकी समान नागरिकता के लिए अपनी जान दे दी, साथ ही जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल ने भी – जो सभी गैर-मुस्लिम थे.
उन्होंने मौलाना आज़ाद के साथ मिलकर काम किया, जो ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के साथ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े मुस्लिम नेता थे.
हालांकि, संख्या का मुद्दा अभी भी महत्वपूर्ण है. भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, भारतीय राजनीति के एकमात्र नए ध्रुव के रूप में भाजपा के आगमन तक, बहुलतावाद को ‘भारत के लोकतंत्र की आधारशिला’ माना जाता था, जैसा कि राजनीतिक वैज्ञानिक ज़ोया हसन बताती हैं.
अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण का व्यापक मुद्रा
हसन लिखती हैं कि बहुलतावाद, ‘यह प्रदर्शित करने का एक तरीका था कि भारत का लोकतंत्र सभी का प्रतिनिधित्व करता है और यह धीरे-धीरे भारतीय राजनीतिक व्यवहार की आधारशिला बन गया.’
2014 के बाद के दशक में इस मूल राजनीतिक सिद्धांत के क्षरण ने ‘राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी आधार को नष्ट कर दिया है.’
यहां तक कि मुसलमानों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण की वकालत करने वाले इक़बाल ए अंसारी, जिन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ‘एक बड़े धार्मिक समुदाय के कम प्रतिनिधित्व वाले पैटर्न को ख़त्म किया जाना चाहिए’, वे लिखते हैं कि ‘अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण का व्यापक मुद्दा … प्रत्येक समूह के संख्यात्मक रूप से पर्याप्त प्रतिनिधित्व से ही हासिल नहीं किया जा सकता है.
इसके लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता होगी.’ संसद और राज्य विधानसभाओं, साथ ही राष्ट्रीय तथा राज्य मंत्रिमंडलों में मुसलमानों की पर्याप्त भागीदारी आवश्यक है, लेकिन यह निश्चित रूप से भारत के मुसलमानों – विशेष रूप से वंचित जाति, वर्ग और लिंग के मुसलमानों – के हितों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं है.
लोकसभा में मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व विभाजन के बाद हुए भारत के पहले आम चुनाव से ही सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों द्वारा बड़ी संख्या में मुसलमानों को चुनावी उम्मीदवार के रूप में चुनने की अनिच्छा ज़ाहिर करने का परिणाम है. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि हिंदू मतदाताओं के एक वर्ग को मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ माना जाता था जिनके छिटक जाने का डर था. 1977 तक, भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के केवल 4 प्रतिशत उम्मीदवार मुसलमान थे.
तब से लेकर 2014 तक, यह प्रतिशत दोगुना हो गया, जिसमें कई मुस्लिम उम्मीदवार ग़ैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों से थे. दिलचस्प बात यह है कि भाजपा को छोड़कर सबसे कम मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारने वाली पार्टी कांग्रेस है: 1952 से 2019 तक इसके लोकसभा उम्मीदवारों में से केवल 7 प्रतिशत मुसलमान थे.
मुस्लिम पहचान बड़ी संख्या में ग़ैर-मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन में बाधा नहीं बनी
यह भी महत्वपूर्ण है कि 2004 में 14वें आम चुनाव तक मुस्लिम उम्मीदवार ज्यादातर उन निर्वाचन क्षेत्रों से जीते थे जहां मुसलमान अल्पसंख्यक थे. इसका मतलब यह है कि उम्मीदवारों की मुस्लिम पहचान बड़ी संख्या में ग़ैर-मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन में बाधा नहीं बनी.
हालांकि, 2009 के चुनाव के बाद से इसमें काफी बदलाव आया. इस चरण में साफ तौर से देखा जा सकता है कि भारतीय मुसलमान राजनीतिक रूप से अलग-थलग हो गए हैं. अब लोकसभा के लिए मुस्लिम उम्मीदवार ज्यादातर उन निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाने लगे, जहां मुसलमानों की आबादी 40 प्रतिशत या उससे अधिक है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि इस चरण ने भारतीय राजनीति में केंद्रीय शक्ति के रूप में भाजपा के उदय को भी रेखांकित किया. इससे पहले, कई निर्वाचन क्षेत्रों में गैर-मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुसलमान स्वीकार्य उम्मीदवार थे. 2009 के बाद से, मुस्लिम प्रतिनिधि अपनी जीत के लिए मुख्य रूप से मुस्लिम मतदाताओं पर निर्भर रहे हैं.
2024 के आम चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की कहानी विशेष रूप से शिक्षाप्रद है. भाजपा ने पूरे भारत में केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार को केरल के एक निर्वाचन क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया, जो हार गया. लेकिन विपक्षी दलों, जो इंडिया गठबंधन में शामिल हैं, ने भी ऐतिहासिक रूप से कम संख्या में मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया – सभी को मिलाकर केवल 35 उम्मीदवार.
कांग्रेस ने केवल 19, तृणमूल कांग्रेस ने छह, समाजवादी पार्टी ने चार और जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस तथा केरल स्थित इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने तीन-तीन उम्मीदवार मैदान में उतारे. हालांकि, इतने कम मुस्लिम उम्मीदवारों में से भी 21 चुने गए. वर्तमान लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधियों की कुल संख्या 24 है, जिसमें जम्मू-कश्मीर से दो निर्दलीय और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन का एक प्रतिनिधि शामिल है.
इसका मतलब यह है कि हालांकि इंडिया गठबंधन की पार्टियों ने ऐतिहासिक रूप से कम संख्या में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया, मगर उनकी सफलता दर इतनी अधिक थी कि यह सुनिश्चित हो गया कि इस लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या पिछली दो लोकसभाओं के बराबर ही रहेगी.
इसके बावजूद, असल में भारतीय मुसलमान को एक राजनीतिक घेटो में धकेल दिया गया है. और उस घेटो से हाशिये तक का और फिर गुमनामी का सफ़र बहुत लंबा नहीं है.
भारतीय राजनीति के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव
हिंदू राष्ट्रवाद के उदय के साथ भारतीय राजनीति के राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा क्या बदलाव आ गया?
हिंदू दक्षिणपंथियों ने भारतीय मुसलमानों के प्रति अपनी शत्रुता को कभी नहीं छिपाया. सत्ता में आने के लिए उन्होंने कभी मुस्लिम वोटों की इच्छा नहीं जताई और न ही उन पर निर्भर रहे. लेकिन 2014 के आम चुनाव से पहले भाजपा की मुस्लिम विरोधी राजनीति में एक नया तेवर देखने को मिला.
भारत की चुनावी राजनीति में आए इस निर्णायक दक्षिणपंथी मोड़ से पहले राजनीतिक कॉमन सेंस यह था कि कोई भी पार्टी आक्रामक मुस्लिम विरोधी विचार के साथ राष्ट्रीय सत्ता में आने की उम्मीद नहीं कर सकती थी. ऐसा इसलिए होता था क्योंकि मुसलमानों को इतनी अधिक आबादी वाला अल्पसंख्यक माना जाता था कि उन्हें पूरी तरह से अलग-थलग नहीं किया जा सकता था.
यह सच है, जैसा कि हमने पहले ही देखा है, कि बहुत कम निर्वाचन क्षेत्रों में उनका बहुमत है. लेकिन फ़र्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट वाले चुनावी लोकतंत्र में जीत अक्सर छोटे अंतर से होती है, और इसलिए मुस्लिम वोट को बहुत से निर्वाचन क्षेत्रों में संभावित रूप से महत्वपूर्ण माना जाता था.
इसके अलावा, तर्क यह था कि 2014 तक भाजपा अपने दम पर सत्ता में आने की उम्मीद नहीं कर सकती थी, और जिन राजनीतिक दलों के साथ वह गठबंधन करने की उम्मीद करती थी, उनमें से कई मुस्लिम वोटों पर निर्भर थे.
भाजपा का 2014 से पहले का दृष्टिकोण
राष्ट्रीय सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा का 2014 से पहले का दृष्टिकोण पार्टी के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 1998 से 2004 के बीच प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में तैयार किया गया गठबंधन मॉडल पर आधारित था, जिसमें मुस्लिम मतदाताओं से राजनीतिक समर्थन पाने वाली कई पार्टियों के साथ मिलकर सरकार चलाई गई थी. इसलिए वाजपेयी सरकार की मुस्लिम विरोधी बयानबाजी और व्यवहार अपेक्षाकृत सीमित थी.
लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की राजनीतिक ताक़त ने इस राजनीतिक कॉमन सेंस को ध्वस्त कर दिया. भाजपा ने 2014 के चुनाव अभियान में मुस्लिम विरोधी बयानबाजी का भरपूर इस्तेमाल किया और उसके बाद हुए राज्य विधानसभा चुनावों में भी यही किया.
2019 के आम चुनाव में यह और भी उग्र हो गया और 2024 के आम चुनाव अभियान में इसका चरमोत्कर्ष देखने को मिला, जिसका नेतृत्व ख़ुद प्रधानमंत्री ने किया. भाजपा ने स्पष्ट कर दिया कि वह न तो मुसलमानों से वोट मांगेगी और न ही ऐसे राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन करेगी जो वैचारिक रूप से मुसलमानों के प्रति उसकी शत्रुता के ख़िलाफ़ हैं.
मुस्लिम वोट के प्रति यह घृणा, जो मुसलमान मतदाता के प्रति घृणा से अटूट रूप से जुड़ी हुई थी, भाजपा के राजनीतिक नेताओं द्वारा तेज़ी से स्पष्ट और मुखर बयानबाज़ी के माध्यम से ज़ाहिर हुई. 2019 के चुनाव से कुछ दिन पहले, कर्नाटक में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री के एस ईश्वरप्पा ने घोषणा की कि उनकी पार्टी मुसलमानों को चुनावी टिकट नहीं देगी क्योंकि वे भाजपा में विश्वास नहीं करते.
उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस को वोट देने वाले मुसलमान हत्यारे हैं, जबकि भाजपा को वोट देने वाले ‘अच्छे‘ हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने एक कदम और आगे बढ़कर अपने राज्य के 2022 के विधानसभा चुनाव को 80 प्रतिशत और 20 प्रतिशत के बीच का मुकाबला बताया. उत्तर प्रदेश की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 20 प्रतिशत है और आदित्यनाथ तथा उनकी पार्टी द्वारा मुसलमानों को बार-बार अपराधी तथा माफियाओं का समर्थक बताया गया.
असम में 2021 में चुनाव होने वाले थे, तब राज्य के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वे बंगाली मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में प्रचार नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें पता है कि यह समुदाय भाजपा को वोट नहीं देता है.
इसके अलावा, उन्होंने आरोप लगाया कि असम में ऐसी कई समस्याएं हैं जिनका स्रोत भूमि अतिक्रमण और स्वदेशी असमिया संस्कृति के अस्वीकार से जुड़ा हुआ है. सरमा ने यहां तक कहा कि मतदाता उनकी पार्टी का समर्थन करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि असम में कभी कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री न हो.
संयोग से, यह बताना महत्वपूर्ण है कि जम्मू और कश्मीर के बाहर किसी भी भारतीय राज्य के अंतिम मुस्लिम मुख्यमंत्री एआर अंतुले थे, जिन्होंने 1980 से 1982 तक महाराष्ट्र पर शासन किया था. आज, मुस्लिम बहुल जम्मू और कश्मीर को छोड़कर, किसी भी राजनीतिक दल से कहीं भी मुस्लिम मुख्यमंत्री बनने की संभावना दूर की कौड़ी लगती है.
इसकी तुलना लंदन के उस चुनाव से करें जिसमें 2016 में पाकिस्तानी अप्रवासी बस चालक के बेटे सादिक़ अली ख़ान को मेयर चुना गया था. या 2023 के चुनाव से, जिसमें पाकिस्तानी अप्रवासियों के एक और बेटे हम्ज़ा यूसुफ़ को स्कॉटलैंड का फ़र्स्ट मिनिस्टर बनाया गया.
गृह मंत्री अमित शाह ने भी उतना ही सख़्त रवैया अपनाया. 2021 में दिल्ली राज्य विधानसभा चुनाव में, उन्होंने मतदाताओं से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों पर भाजपा का बटन इतने गुस्से से दबाने का आह्वान किया कि उसका करंट शाहीन बाग़ में महसूस किया जाए – इसका संदर्भ मुसलमान महिला प्रदर्शनकारियों से जुड़ता है, जो उस समय मोदी सरकार द्वारा भारत के नागरिकता कानूनों में भेदभावपूर्ण बदलावों के खिलाफ लंबे समय से धरना दे रही थीं.
तुष्टीकरण’ का मतलब भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों, ख़ास तौर पर मुसलमानों के लिए की गई सकारात्मक कार्रवाई है
मोदी ने ख़ुद 2024 के आम चुनाव से पहले स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले से दिए अपने आखिरी भाषण में भारत की तीन सबसे बड़ी बुराइयों को गिनाया: भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टीकरण. मोदी द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रत्येक शब्द में एक वैचारिक अंतर्पाठ छुपा हुआ है. ‘तुष्टीकरण’ का मतलब भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों, ख़ास तौर पर मुसलमानों के लिए की गई सकारात्मक कार्रवाई है.
मोदी से पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति सच्चर समिति के अकाट्य सबूतों के बावजूद कि भारत के अन्य दो ऐतिहासिक रूप से सबसे वंचित समुदायों – दलितों और आदिवासियों – की तुलना में मुसलमान सामाजिक-आर्थिक विकास में पीछे छूट गए हैं, प्रधान मंत्री ने मुसलमानों के उत्थान के लिए चल रही नीतियों को अस्वीकार करने और उन्हें खत्म करने का संकेत दिया.
इस तरह प्रभावी रूप से भारत के राजनीतिक समाज में भारतीय मुसलमानों को लेकर अधिक समान भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए राज्य के नेतृत्व में चल रहे प्रयासों को अस्वीकार कर दिया गया.
अंतरराष्ट्रीय एडवोकेसी समूह ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2024 के चुनाव के समय मतदान से ठीक पहले भारतीय चुनाव आयोग द्वारा लागू की गई आदर्श आचार संहिता के बाद मोदी द्वारा दिए गए सभी 173 भाषणों की जांच की.
यह संहिता स्पष्ट रूप से वोट हासिल करने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने पर रोक लगाती है. कम से कम 110 भाषणों में, मोदी ने इस्लामोफोबिक बयान दिए, जो राजनीतिक विपक्ष को बदनाम करने के उद्देश्य से दिया गया था – उदाहरण के लिए, उन पर केवल मुस्लिम अधिकारों की वकालत करने का आरोप लगाना – साथ ही साथ ग़लत सूचना के माध्यम से मोदी द्वारा बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के भीतर भय पैदा करने की कोशिश भी की.
चुनाव आयोग ने नफरत फैलाने वाले भाषणों को लेकर मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. इसके बजाय, चुनाव आयोग ने स्टैंडर्ड प्रैक्टिस से हटकर भाजपा के प्रमुख को साधारण शब्दों में निर्देश जारी किया, जिसमें मोदी का उल्लेख करने से भी परहेज किया गया.
राजनीतिक वैज्ञानिक सुमित गांगुली ने जिसे ‘झूठी निष्पक्षता’ कहा. चुनाव आयोग ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के भाषणों पर कांग्रेस प्रमुख को एक साथ कई नोटिस भेजा, जो भाषण किसी तरह से नफ़रत फैलाने वाले भाषण की श्रेणी में नहीं गिने जा सकते.
मुसलमानों का विरोध करके राजनीतिक सत्ता और राष्ट्रीय पद को हासिल नहीं किया जा सकता
नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने तीन बार केंद्र की सत्ता हासिल की है, उन्होंने कैसे उस राजनीतिक कॉमन सेंस को नष्ट कर दिया जो उनके उदय से पहले तक प्रचलित था, जिसके अनुसार मुसलमानों का विरोध करके राजनीतिक सत्ता और राष्ट्रीय पद को हासिल नहीं किया जा सकता था?
ऐसा करने के लिए सबसे पहले भारतीय मुसलमानों को एक हरे समुदाय के रूप में स्थापित किया गया, जिसमें उनकी भाषा, संस्कृति, जाति, वर्ग और लिंग की व्यापक विविधता को समाप्त कर दिया गया. दूसरी रणनीति मुसलमानों के खिलाफ जनता की नफरत और पूर्वाग्रह को भड़काना तथा इसकी गति को तेज करना, उन्हें मंदिर तोड़ने वाले, बेहद हिंसक, आतंकवाद के समर्थक, भारत के प्रति विश्वासघाती, यौन हिंसक, गौ-हत्यारा, ‘भूमि जिहादी‘, बहुत अधिक बच्चा पैदा करने वाले के रूप में चित्रित करना.
इसके लिए, मोदी और उनकी पार्टी ने आरएसएस के संबद्ध संगठनों के व्यापक नेटवर्क के साथ-साथ सोशल मीडिया, आज्ञाकारी मुख्यधारा की मीडिया और यहां तक कि नफरत से भरे मुस्लिम विरोधी संगीत वीडियो – हिंदुत्व पॉप की उभरती शैली का हिस्सा – के माध्यम से राजनीतिक मंचों, धार्मिक नेताओं और जमीनी स्तर पर लामबंदी का इस्तेमाल किया.
और तीसरी रणनीति, भारतीय मुसलमानों को एक खतरनाक और विषैले ‘आंतरिक दुश्मन’ के रूप में सफलतापूर्वक पेश करने के बाद, इस विरोधी के खिलाफ सभी जातियों और धार्मिक समुदायों के ग़ैर-मुसलमानों को एकजुट करना था.
इस राजनीतिक रणनीति की असाधारण सफलता मतदान पैटर्न में परिलक्षित होती है, खासकर 2019 के आम चुनाव से, जो भाजपा के पीछे हिंदू वोटों के अभूतपूर्व लामबंदी को दर्शाता है. लोकनीति नामक शोध समूह द्वारा किए गए मतदाता सर्वेक्षणों से पता चलता है कि उस वर्ष रिकॉर्ड 44 प्रतिशत हिंदू मतदाताओं ने भाजपा का समर्थन किया और 51 प्रतिशत हिंदुओं ने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को वोट दिया.
गौरतलब है कि 29 लोकसभा क्षेत्रों में जहां मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत या उससे अधिक है वहां भाजपा को 55 प्रतिशत तक हिंदू वोट मिला. यह इस बात को रेखांकित करता है कि मुसलमानों की उपस्थिति से कितना अधिक ध्रुवीकरण होने लगा है.
सामाजिक न्याय की विचारधाराओं पर आधारित दलित नेतृत्व वाली पार्टियां
यहां तक कि दलित मतदाता, जिनके पास भाजपा – एक ऐसी पार्टी जो ऐतिहासिक रूप से और वर्तमान में मुख्य रूप से प्रभावी जातियों की सेवा करती है – शासन के अंतर्गत अधिक सामाजिक समानता की उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है उन्हें बहुत अधिक संख्या में कांग्रेस और वामपंथी जैसे राजनीतिक खेमों को छोड़ने के लिए राज़ी किया जा रहा है, और यहां तक कि सामाजिक न्याय की विचारधाराओं पर आधारित दलित नेतृत्व वाली पार्टियों को भी भाजपा के पीछे खड़ा होने के लिए तैयार किया जा रहा है.
2019 में 40 प्रतिशत से अधिक दलितों ने भाजपा और उसके सहयोगियों को वोट दिया, यह आंकड़ा 2024 में घटकर 26 प्रतिशत हो गया, क्योंकि कांग्रेस ने दलितों के बीच अपना जनाधार फिर से हासिल किया है और उसे भी भाजपा तथा उसके सहयोगियों के बराबर वोट मिला है. राजनीतिक विश्लेषक अजय गुदावर्ती ने इसे दलित-बहुजन राजनीति के संकट के रूप में रेखांकित किया है.
और यद्यपि भाजपा तथा आरएसएस भारत के ईसाई अल्पसंख्यकों के प्रति वैचारिक रूप से शत्रुता रखते हैं, मगर भाजपा ईसाई मतदाताओं का मुस्लिम मतदाताओं की तरह सामाजिक और राजनीतिक विरोध नहीं करती है. उनके बिना, पार्टी के लिए नागालैंड, मेघालय और मिजोरम सहित पूर्वोत्तर भारत के कई राज्यों में सत्ता हासिल करना संभव नहीं होता है और तटीय कर्नाटक तथा केरल में चुनावी समर्थन हासिल करना भी मुश्किल हो जाता.
मुसलमानों को वोट देने के प्रति लोगों में बढ़ती कटुता इस बात से भी उजागर होती है कि 2002 के बाद किसी प्रमुख राजनीतिक दल के मुस्लिम उम्मीदवार के चुनाव जीतने की संभावना सिर्फ़ 17 प्रतिशत है – जो ग़ैर-मुस्लिम उम्मीदवारों के 29 प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से काफ़ी पीछे है.
इसके अलावा, अंसारी समेत कई विद्वानों ने पता लगाया है कि कैसे संसदीय और राज्य विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के परिसीमन ने, अतीत में भी, कई मौक़ों पर मुस्लिम राजनीतिक प्रतिनिधित्व को और अधिक नुकसान पहुँचाया है. ऐसा या तो दो या उससे ज़्यादा निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी को बांटकर किया गया है या फिर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए अधिक मुस्लिम आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों को आरक्षित करके किया गया है.
इस बात के सबूत हैं कि असम और जम्मू-कश्मीर जैसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में नए परिसीमन प्रयासों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है, ताकि चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की मुसलमानों की शक्ति को और कम किया जा सके.
पहले, यह अनुमान लगाया गया था कि असम में मुस्लिम नागरिकों का 35 राज्य विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में निर्णायक प्रभाव था. अब, स्थानीय विधायकों का अनुमान है कि परिसीमन ने इस संख्या को घटाकर सिर्फ़ 22 कर दिया है.
जैसा कि ज़ोया हसन ने रेखांकित किया है कि भाजपा की बेशर्म बहुसंख्यकवादी राजनीति ‘उदार लोकतंत्र के मूल अर्थ’ को बदल देती है, राज्य की सत्ता को बहुसंख्यक समुदाय से जोड़ देती है जबकि अल्पसंख्यकों की उपेक्षा और बहिष्कार करती है.
वह लिखती हैं, ‘इन परिस्थितियों में जो पार्टियां अल्पसंख्यकों के समर्थन पर निर्भर रहती हैं, वे भी उन्हें अदृश्य बना देती हैं ताकि वे कुछ इसी तरह के आधार पर प्रतिस्पर्धा कर सकें और प्रभावी टेम्पलेट में फ़िट हो सकें.’ ज़ोया हसन ने कहा कि यह दृष्टिकोण ‘अल्पसंख्यकों के समर्थन या वोटों की सहायता से हासिल किए गए राजनीतिक बहुमत की वैधता’ को नकारता है.
यह इस बात से स्पष्ट है कि कैसे मोदी ने राहुल गांधी पर 2019 के आम चुनाव में मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र – केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने के लिए ताना मारा – मानो मुस्लिम मतदाताओं की सहायता से चुना जाना उनके बिना चुने जाने से कम वैध है.
मुसलमानों के राजनीतिक दावे और प्रतिनिधित्व को लेकर बढ़ती चिंता
भाजपा की राजनीतिक परियोजना की सफलता और भी गहरी है, जिसे हिलाल अहमद ‘मुस्लिम पॉलिटिकोफ़ोबिया‘ के रूप में व्याख्यायित करते हैं – मुसलमानों के राजनीतिक दावे और प्रतिनिधित्व को लेकर बढ़ती चिंता, जिसे तेज़ी से सांप्रदायिक और राष्ट्र-विरोधी बताकर अवैध ठहराया जा रहा है.
अहमद इस बात को रेखांकित करते हैं कि हालांकि यह हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति द्वारा संचालित है, लेकिन यह प्रवृत्ति किसी भी तरह से भाजपा तक ही सीमित नहीं है. यहां तक कि अधिकांश ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल – जिनमें कांग्रेस भी शामिल है – भी अलग-अलग स्तर पर इस फ़ोबिया के शिकार हैं, और उनमें नफ़रत भरे भाषण तथा नफ़रती हमलों का सार्वजनिक रूप से विरोध करने की अनिच्छा बढ़ रही है, जिसमें 2014 के बाद महामारी बन गई लिंचिंग भी शामिल है.
अपनी भारत जोड़ो यात्रा – 2022 और 2023 में देश भर चलने वाली एक लंबी राजनीतिक यात्रा – के दौरान राहुल गांधी ने अरबपति गौतम अडानी से मोदी की नजदीकियों की आलोचना की और आरएसएस तथा बीजेपी की नफ़रत भरी राजनीति पर हमला किया.
लेकिन, पूरी यात्रा के दौरान उन्होंने उस केंद्रीय संकट पर ध्यान केंद्रित करने से परहेज़ किया जो आज भारत को तोड़ रहा है: केंद्र की बीजेपी सरकार और कई राज्य सरकारों द्वारा देश के मुस्लिम नागरिकों के खिलाफ छेड़ा जा रहा आभासी युद्ध.
इसी तरह भारत के मुसलमानों का संकट भी अधिकांश राजनीतिक नेताओं के विमर्श से गायब है, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव और मनोज कुमार झा तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की वृंदा करात जैसे कुछ नेता इसके उल्लेखनीय अपवाद हैं.
ग़ैर-भाजपा दलों के नेताओं में मुसलमानों के साथ सार्वजनिक मंचों पर देखने की अनिच्छा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है – यहां तक कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां भी ऐसा करती हैं जो मुस्लिम वोट पर लगभग पूरी तरह से निर्भर हैं.
घृणास्पद भाषण और घृणा-आधारित हिंसा
जब भारतीय मुसलमानों को नियमित रूप से घृणास्पद भाषण और घृणा-आधारित हिंसा का सामना करना पड़ता है – जो उनकी समान नागरिकता और इसके परिणामस्वरूप समान नागरिकता की नींव पर बने भारतीय संविधान के लिए ख़तरा उत्पन्न होता जाता है – तो ग़ैर-भाजपा दलों की रणनीतिक चुप्पी बहुत ज्यादा खलती है.
भारत में राजनीतिक संवाद के नियमों को बदलने में भाजपा और आरएसएस की शानदार सफलता का एक और सबूत यह भी है कि भारत के 200 मिलियन मुस्लिम अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ खुली दुश्मनी की परियोजना को लागू करके भी राजनीतिक बहुमत हासिल किया जा सकता है.
हम पहले ही देख चुके हैं कि 2009 के बाद से मुस्लिम प्रतिनिधि केवल उन्हीं निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जा रहे हैं, जहां मुस्लिम आबादी अधिक है – यह 1952 के अनुभव से बिल्कुल अलग है, जब अधिकांश मुस्लिम प्रतिनिधि ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों से लोकसभा के लिए चुने जाते थे जहां मुसलमान मतदाताओं की संख्या कम थी.
दूसरे शब्दों में, अतीत में राजनीतिक दलों ने ग़ैर-मुस्लिम मतदाताओं से मुस्लिम प्रतिनिधियों पर भरोसा करने की अपील की और वे इसमें सफल भी हुए. आज वे ऐसा करने के इच्छुक नहीं दिखाई पड़ते, यह इस धारणा की पुष्टि करता है कि हिंदू मतदाता किसी भी पार्टी को अस्वीकार कर देंगे जो उनके हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक मुस्लिम उम्मीदवार पेशकश करेगी.
इस बदले हुए राजनीतिक कॉमन सेंस को भी भाजपा और उसके वैचारिक सेंटर, आरएसएस की राजनीति की एक और जीत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए.
यहां तक कि कुछ वरिष्ठ मुस्लिम नेता भी अब स्वीकार करते हैं कि ये भारतीय राजनीति के बदले हुए नियम हैं. मैंने उन्हें राजनीतिक नेताओं को निराशाजनक सलाह देते हुए सुना है: इस मामले को अनदेखा करके हमारी मदद कीजिए.
इन कई तरीकों से, भाजपा न केवल भारतीय मुसलमानों को सार्थक राजनीतिक भागीदारी और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व से वंचित करने में सफल रही है, बल्कि भारतीय चुनावी राजनीति के व्याकरण को भी मौलिक रूप से बदलने में सफल रही है, मुसलमानों को हाशिये पर धकेल दिया है और उन्हें राजनीतिक बोझ के रूप में पेश किया है.
भारतीय गणराज्य और उसके संविधान का मूल विचार हर धर्म, जाति, भाषा और लिंग के लोगों के लिए समान नागरिकता है. चुनावी राजनीति से भारतीय मुसलमानों के अस्तित्व को समाप्त कर देने में भाजपा और आरएसएस की ज़हरीली सफलता भारतीय राष्ट्र की आत्मा पर एक भयावह हमला है.
(इस लेख को लिखने के लिए ओमैर खान और बदरे आलम द्वारा किए गए शोध से सहायता मिली है.)
(मूल अंग्रेज़ी से ज़फ़र इक़बाल द्वारा अनूदित. ज़फ़र भागलपुर में हैंडलूम बुनकरों की ‘कोलिका’ नामक संस्था से जुड़े हैं.)