बीजेपी भगत रबर स्टंप उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़,, राज्यपाल,
क्या सरकार चाहती है कि सर्वोच्च न्यायालय जी-हुज़ूरी करे?
लेखक -वंदिता मिश्रा/अटल हिन्द
9 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि “यदि मुझसे पूछा जाए कि इस संविधान में कौन सा विशेष अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है—एक ऐसा अनुच्छेद जिसके बिना यह संविधान निष्प्रभावी हो जाएगा—मैं किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकता सिवाय अनुच्छेद 32 के। यह संविधान की आत्मा और इसका हृदय है।” आंबेडकर को यह अनुच्छेद इसलिए संविधान की आत्मा लगता था क्योंकि यह देश के हर नागरिक को, चाहे उसका कोई भी धर्म, जाति या लिंग हो, उसके मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ देश की सर्वोच्च अदालत में सीधे बिना रोक-टोक जाने और राहत पाने का अधिकार देता है।
कोई भी राजनैतिक दल चाहे कितनी भी राजनैतिक शक्ति समेटे हो, चाहे समाज के किसी भी वर्ग का उसे कितना भी समर्थन प्राप्त हो, विधायिका में वह चाहे जितना सबल हो लेकिन उसे भारत के लोगों के मौलिक अधिकारों के हनन का लाइसेंस नहीं मिल सकता। यदि कभी कोई सरकार मुग़ालते में आकर, अपनी विधायी शक्तिबल से प्रेरित होकर ऐसा करने का प्रयास करता है तो सर्वोच्च न्यायालय(Indian Supreme Court), जिसे भारत के संविधान(Constitution of India) का अभिरक्षक कहा जाता है, उसे रोकता है। आंबेडकर इसे ‘न्यायिक अतिरेक’ नहीं बल्कि सामाजिक न्याय की एक आवश्यकता के रूप में देखते हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कानून बनाने का काम संसद का है लेकिन कानून की व्याख्या करने का अधिकार सिर्फ़ सर्वोच्च न्यायालय को है। और देश की सर्वोच्च अदालत यह कार्य संविधान के आलोक में करती है। जहाँ उसे यह प्रतीत होता है कि कोई कानून संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का हनन कर रहा है और सरकार/संस्थाएँ संविधान द्वारा दी गई शक्तियों की सीमाएँ भूल रही हैं, वहाँ न्यायालय अपना हस्तक्षेप करने को बाध्य है क्योंकि उसे यह ड्यूटी संविधान द्वारा दी गई है।Civil War in India
नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi government)ने वक्फ संशोधन क़ानून 2025 संसद से पारित करवाया। यह कहा गया कि इसकी व्यापक संसदीय समीक्षा की गई है, हालांकि इस पर विपक्षी दल सहमत नहीं हैं। कानूनविदों की राय में यह क़ानून ‘समानता का अधिकार’, ‘धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार’ और संस्कृति व शिक्षा संबंधी अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह सभी अधिकार संवैधानिक गारंटी प्राप्त मूल अधिकारों की श्रेणी में आते हैं। अब जब अपने इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए अल्पसंख्यक समुदाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाने के अपने अधिकार (अनुच्छेद-32) का इस्तेमाल कर रहा है तो सरकार असहज हो रही है। अल्पसंख्यकों का पक्ष सुनने और क़ानून को प्रथम दृष्टया देखने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश वाली पीठ ने इस कानून के अनुपालन पर फिलहाल अगली सुनवाई तक रोक लगा दी है।
अल्पसंख्यकों को प्रदान की गई यह राहत केंद्र सरकार और समूची भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party)को नागवार गुज़री है। देश के कानून मंत्री का कहना है कि जिस तरह न्यायपालिका(Judiciary) कार्यपालिका (Executive)के कार्य में हस्तक्षेप कर रही है वह ठीक नहीं है “अगर कल के दिन सरकार ने भी न्यायपालिका के कार्य में हस्तक्षेप किया तब क्या” होगा। मेरा सवाल है कि क्या भारत का कानून मंत्री भारत की सर्वोच्च अदालत को धमकी दे रहा है? आख़िर इस कानून में ऐसी क्या ख़ामी है जिसकी न्यायिक समीक्षा को लेकर केंद्र सरकार विचलित हो रही है? न्यायालय ने यही तो पूछा है कि सदियों पुरानी ‘वक़्फ़ बाय यूजर’ के लिए पीड़ित पक्ष दस्तावेज कहाँ से जुटाएगा? अगर दस्तावेज नहीं जुटा सका, जिसकी पूरी संभावना है, तो वह जमीन सरकार अपने कब्जे में ले लेगी; न्यायालय ने समानता के अधिकार का हवाला देते हुए यही तो पूछा है कि जब मन्दिर के न्यासों में मुसलमान नहीं हो सकते तो वक्फ बोर्ड में हिंदुओं को किस आधार पर जगह दी गई है?

बड़ी रबर स्टैंप(President of India ) की मदद में आगे आई छोटी रबर स्टैंप(Vice President India)राज्यों के राज्यपाल(जनता के पैसे की बर्बादी )
भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे (BJP MP Nishikant Dubey)का कहना है कि भारत में ‘गृहयुद्ध’ (Civil War in India)चल रहा है और इसके लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस संजीव खन्ना, जिम्मेदार हैं। दुबे यह सब सिर्फ़ इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत ने अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर उनके साथ खड़े होकर सरकार से सवाल पूछ लिया। दुबे यह सिर्फ़ इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को यह याद दिला दिया कि भारत के संविधान में ‘समानता का अधिकार’ प्रदान किया गया है और यह किसी भी हालत में खत्म नहीं किया जा सकता है। अब तक अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होने पर राजनैतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जाता था और अब यह निशाना स्वतंत्र न्यायपालिका पर साधा जा रहा है। मुझे तो कहीं गृहयुद्ध नहीं दिख रहा है। मेरी इतिहास की समझ मुझे गृहयुद्ध का सेंस तब देती है जब कुछ ऐसा हो जैसा- चीनी गृहयुद्ध में हुआ, जो हालात तब बने जब अमेरिकी गृहयुद्ध हुआ या फिर रूसी गृहयुद्ध। इसके अलावा अगर इस सदी की बात करें तो जैसा कांगो में हुआ। सवाल यह है कि निशिकांत दुबे और उनकी पार्टी क्या यह बताना चाहती है कि अगर न्यायपालिका ने अल्पसंख्यकों का साथ दिया तो गृह युद्ध छिड़ जाएगा? क्योंकि बीजेपी के पास एक ‘विकृत इतिहास दर्शन’ है इसलिए अगर मान भी लूँ कि गृहयुद्ध चल रहा है तो दुबे जी को यह बताना चाहिए कि गृह मंत्री क्या कर रहे हैं? कहाँ हैं? कैसे निपट रहे हैं?
मुद्दा सिर्फ़ इतना है कि देश की सर्वोच्च अदालत आज अल्पसंख्यकों के साथ खड़ी कैसे हो गई? केंद्र सरकार को अल्पसंख्यक अधिकारों के हनन की लत पड़ चुकी है, चाहे बात- तीन तलाक की हो, CAA-NRC की हो या बीजेपी शासित राज्यों में लाए जा रहे तथाकथित समान नागरिक संहिता के कानूनों की। जब तक बिना न्यायिक हस्तक्षेप के अल्पसंख्यकों के घर गिराए जाते रहें, उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक साबित किया जाता रहे और संसद में खड़े होकर उनको गालियाँ देने का कार्यक्रम चलता रहे तब तक सब ठीक है लेकिन अगर उन्हें न्यायालय से समर्थन मिलने लगे तो गृह युद्ध की धमकी शुरू! निशिकांत दुबे भूल रहे हैं कि यह संप्रभु देश भारत है, जिसकी नींव में आंबेडकर, गांधी और नेहरू जैसे लोग हैं, यह विल्सन फिस्क का हेल्स किचन नहीं जहाँ कानून और संविधान को किसी सफेदपोश का गुलाम बनाकर रख दिया जाए (डेयर डेविल वेब सीरीज)। दुबे भारत के 543 लोकसभा सांसदों में से एक सांसद हैं वह स्वयं देश की संसद बनने की कोशिश न करें। जिस न्यायालय पर चर्चा भर करने से पहले (आरोप तो बहुत दूर की बात है) लोकसभा का स्पीकर दस बार सोचता है उस लोकसभा का एक सदस्य होकर उन्हें यह सब करने से पहले अपने स्पीकर से पूछना चाहिए था। वह एक सांसद हैं जिन्हें जनता ने चुनकर भेजा है उन्हें फ्रिंज तत्वों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए।
असल में निशिकांत दुबे को अलग से देखने की जरूरत नहीं है यह सब कुछ उस पारिस्थितिकी का हिस्सा है जो देश में दशकों तक शासन करने की ज़िद पाल बैठी है। अब इसके लिए चाहे उसे जिस भी संस्थान को ‘किनारे’ लगाना पड़े वो लगाने को तैयार हैं। पिछले दस सालों में सर्वोच्च न्यायालय एकमात्र संस्था बची है जहाँ अभी भी यह पारिस्थितिकी पूरी तरह हावी नहीं हो सकी है। पर कोशिश जारी है। और यह कोशिश हर स्तर पर की जा रही है, निशिकांत तो उसमें सबसे निचले पायदान पर हैं। इन दिनों इस मोर्चे का नेतृत्व भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सम्भाल रखा है। उनका पद बेहद संवेदनशील है क्योंकि यह संवैधानिक है। लेकिन शायद धनखड़ ऐसा नहीं सोचते।
उपराष्ट्रपति धनखड़ पद संभालने के बाद से लगातार सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना करते रहे हैं। हाल में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के ‘तमिलनाडु राज्य बनाम राज्यपाल’ फैसले की आलोचना की। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद-142 का इस्तेमाल करके वर्षों से लंबित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की ‘अनुमति प्रदान की गई’ मानकर पारित कर दिया। धनखड़ का कहना था कि न्यायालय यह नहीं कर सकता, यह काम राज्यपाल और राष्ट्रपति का है। लेकिन सवाल यह है कि राज्यपाल जिसका काम संविधान सम्मत व्यवहार करना है अगर वह केंद्र सरकार के अधीन काम करके राज्य की विधायी व्यवस्था को बाधित करने का प्रयास करे तो क्या किया जाए? क्या किया जाए अगर देश के संधीय ढांचे को चोट पहुंचाई जा रही हो? क्या किया जाए अगर एक चुनी हुई विधायिका, जो नागरिकों के लिए कानून बनाने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य है, के कार्यों को रोक दिया जाए? क्या किया जाए अगर संवैधानिक पदों पर बैठे लोग संविधान के अनुच्छेदों के माध्यम से संविधान का ही गला घोंटने लगें? ऐसी स्थिति से निपटने के लिए संविधान सभा ने अनुच्छेद-142 का प्रावधान किया। अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय’ करने के लिए आवश्यक कोई भी डिक्री या आदेश पारित करने की शक्ति देता है, जो पूरे भारत में लागू होता है। न्यायालय ने इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल करके राज्यपाल के असंवैधानिक रवैये पर रोक लगा दी। लेकिन इन सबसे उपराष्ट्रपति आहत हो गए।
उपराष्ट्रपति धनखड़(Jagdeep Dhankhar) को कभी ‘संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत’ खटकने लगता है तो कभी संविधान का अनुच्छेद-142 । उनकी परेशानी समझी जा सकती है क्योंकि यह दोनों ही ऐसी बातें हैं जो इस देश में अधिनायकवाद को अपनी जड़ें जमाने से रोक रही हैं। संविधान का मूल ढांचा सरकारों को संविधान के ऐसे प्रावधानों से छेड़छाड़ करने से रोकती है जो असल में भारत को एक संवैधानिक, संप्रभु और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में स्थापित करते हैं। यह ढांचा राजनैतिक दलों की विचारधारा को देश की कानून व्यवस्था और आम जीवन में थोपने से रोकता है। संघीय ढांचे की रक्षा करते हुए यह सिद्धांत देश की अखंडता को जीवंत बनाए रखता है। राष्ट्रपति धनखड़ ने कहा है कि अनुच्छेद-142 सुप्रीम कोर्ट के पास 24 घंटे सातों दिन उपलब्ध एक नाभिकीय मिसाइल है जिसका वो जब चाहे इस्तेमाल कर सकता है। उनका अनुमान सही हो सकता है लेकिन व्याख्या सीमित है। यह सही है कि भारत के संविधान में वर्णित अनुच्छेद-142 एक अत्याधुनिक संवैधानिक हथियार है जिसकी सटीकता बेहद उन्नत दर्जे की है। यह अगर राज्यपालों द्वारा संघीय ढांचे को बर्बाद करने के ऊपर गिराया जाता है तो सिर्फ़ इसी बर्बादी को ही नुकसान पहुंचाता है। यह हथियार सरकार और विचार के एजेंडे से आगे लापरवाही और ताकत के मद में डूबी सत्ता से संविधान के ढांचे को बचाने का नज़रिया है। यदि इसने सामान्य नाभिकीय मिसाइल की तरह कार्य किया होता तो राम मंदिर निर्णय से, जहाँ इसका इस्तेमाल किया गया था, देश में असंतुलन स्थापित हो जाता; विशाखा निर्णय से भी देश क्षत-विक्षत हो जाता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब यदि इसे केंद्र सरकार की उस नीयत पर इस्तेमाल किया गया है जिसके तहत वो किसी भी गैर-बीजेपी सरकार को सामान्य तरीके से चलने की अनुमति नहीं देती है तो इसे एक स्वागतयोग्य, संवैधानिक ज़रूरत समझना चाहिए ना कि विध्वंसकारी नाभिकीय मिसाइल।
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