मानव प्रयोगशाला में रचना डीएनए 2.0: नई दुनिया की नींव या नई विपदा?
कभी-कभी, इतिहास के पन्नों पर कुछ ऐसे स्वर्णिम क्षण अंकित होते हैं, जो समय की धारा को नया मोड़ दे देते हैं, बल्कि मानवता के भाग्य को नए सिरे से परिभाषित करते हैं। आज, हम एक ऐसे युगांतरकारी शिखर पर खड़े हैं, जहां वैज्ञानिकों ने इंसानी डीएनए को प्रयोगशाला में सृजित करने की दिशा में पहला साहसिक कदम उठाया है। यह एक ऐसी अद्भुत छलांग है, जो जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करने, लाइलाज रोगों पर विजय पाने और मानव जीवन को अभूतपूर्व समृद्धि व श्रेष्ठता की ऊंचाइयों तक ले जाने का प्रबल संकल्प रखती है। फिर भी, इस चमकते स्वप्न के पीछे छिपा है एक गंभीर नैतिक और सामाजिक प्रश्न—क्या हम इस अपार शक्ति को संयम और विवेक के साथ संभालने को तैयार हैं? क्या यह मानवता के लिए एक क्रांतिकारी वरदान सिद्ध होगा, या एक ऐसी अनियंत्रित ज्वाला, जो हमें अपनी ही राख में समेट लेगी?
डीएनए—महज चार अक्षरों (ए, जी, सी, टी) का वह अलौकिक संयोजन, जो हर इंसान की अनूठी पहचान, उसके अतीत और भविष्य की गाथा को रचता है। यह वह रहस्यमयी कोड है, जो हमारी हर कोशिका में जीवन की अमर कहानी बुनता है। पच्चीस वर्ष पहले, ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट ने इस गूढ़ कोड को पढ़ने का द्वार खोला था। अब, सिंथेटिक ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट इसे शून्य से सृजित करने की साहसिक राह पर अग्रसर है। ‘वेलकम ट्रस्ट’ जैसे विश्वप्रसिद्ध संस्थान ने इस महात्वाकांक्षी अभियान को एक करोड़ पाउंड की प्रारंभिक राशि प्रदान कर न केवल इसे गति दी है, बल्कि एक गहन प्रश्न भी उभारा है—क्या हम इस क्रांतिकारी तकनीक के दूरगामी परिणामों को समझने और उनके साथ सामंजस्य बिठाने के लिए तैयार हैं?
ब्रिटेन के कैम्ब्रिज में एमआरसी लेबोरेटरी ऑफ मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. जूलियन सेल इसे जीव विज्ञान में एक ऐतिहासिक क्रांति के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, यह तकनीक हमें ऐसी चमत्कारी कोशिकाएं सृजित करने की अनुपम शक्ति प्रदान करती है, जो क्षतिग्रस्त अंगों—जैसे यकृत, हृदय, या प्रतिरक्षा तंत्र—को पुनर्जनन की राह दिखा सकती हैं। कैंसर, अल्जाइमर, और उम्र बढ़ने से जुड़ी दुर्बल बीमारियों का उपचार अब केवल सपना नहीं, बल्कि शीघ्र साकार होने वाली वास्तविकता है। यह एक ऐसा स्वर्णिम भविष्य है, जहां मानव न केवल दीर्घायु, बल्कि स्वस्थ, सशक्त और जीवंत जीवन जीने का स्वप्न साकार करेगा। यह तकनीक चिकित्सा के क्षितिज को पुनर्परिभाषित करने के साथ-साथ मानवता को एक ऐसी दिशा में ले जा रही है, जहां रोग और कमजोरी इतिहास के धुंधलके में विलीन हो जाएंगे।
हर क्रांति की भांति, इस तकनीक का भी एक गहन, अंधकारमय पहलू है, जहां इसकी संभावनाओं के समान ही इसके जोखिम भी असीम और भयावह हैं। आलोचक सशंकित स्वर में चेतावनी देते हैं कि यह तकनीक गलत इरादों के अधीन पड़कर मानव नस्ल को कृत्रिम रूप से परिवर्तित करने, ‘डिज़ाइनर बेबीज़’ के सृजन, या यहां तक कि जैविक हथियारों के विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। एडिनबरा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बिल अर्नशॉ का कथन गूंजता है, “जिन्न अब बोतल से मुक्त हो चुका है।” यदि कोई संगठन इस शक्ति का दुरुपयोग करता है—चाहे वह ‘उन्नत’ मानवों की रचना के लिए हो या अप्राकृतिक प्राणियों के सृजन के लिए—तो उसे थामना सर्वथा असंभव हो सकता है। इतिहास साक्षी है कि विज्ञान की क्रांतिकारी खोजें, चाहे वह परमाणु ऊर्जा हो या जैव प्रौद्योगिकी, सदा ही एक दोधारी तलवार रही हैं, जो मानवता को उन्नति और विनाश के बीच झूलने को विवश करती हैं।
इसके अतिरिक्त, व्यावसायिक दुरुपयोग का खतरा भी उतना ही प्रबल और चिंताजनक है। यदि कृत्रिम डीएनए से निर्मित अंगों या प्राणियों का स्वामित्व निजी कंपनियों के हाथों में सौंपा गया, तो क्या यह स्वास्थ्य सेवाओं में पहले से मौजूद असमानता को और गहरा नहीं कर देगा? क्या यह अमीर और गरीब के बीच की खाई को और अधिक विस्तृत और अभेद्य नहीं बना देगा? प्रोफेसर मैथ्यू हर्ल्स, जिन्होंने ह्यूमन जीनोम की सिक्वेंसिंग में अमूल्य योगदान दिया है, मानते हैं कि डीएनए को शून्य से रचने की यह प्रक्रिया इसके रहस्यमयी कार्यप्रणाली को उजागर करने में अभूतपूर्व सहायता प्रदान करेगी। किंतु एक गहन प्रश्न अब भी अनुत्तरित लटक रहा है—इस अपार शक्ति का स्वामित्व और नियंत्रण आखिर किसके पास होगा?
‘वेलकम ट्रस्ट’ के डॉ. टॉम कॉलिन्स दृढ़ता से तर्क देते हैं कि यह तकनीक देर-सवेर अवश्य साकार होगी, अतः इसे अनदेखा करने के बजाय विवेकपूर्ण और जिम्मेदारी के साथ विकसित करना, साथ ही इसके नैतिक आयामों पर गहन चिंतन करना कहीं अधिक बुद्धिमानी होगी। इस दिशा में एक प्रेरणादायी कदम के रूप में, केंट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉय ज़ाग के नेतृत्व में एक सामाजिक विज्ञान पहल ने जन्म लिया है, जिसका लक्ष्य आमजन, समाजशास्त्रियों और विशेषज्ञों के विचारों को संकलित कर इस तकनीक के सामाजिक प्रभावों का सूक्ष्म आकलन करना है। यह पहल निस्संदेह प्रशंसनीय है, क्योंकि कोई भी तकनीक तभी सार्थक हो सकती है, जब समाज उसे हृदय से अंगीकार करे और उस पर अटूट विश्वास स्थापित करे। किंतु क्या यह प्रयास पर्याप्त है? जनमानस में इस तकनीक को लेकर उमड़ता उत्साह एक गहरे, अंतर्निहित भय के साथ साये की तरह जुड़ा है। प्रश्न यह है—क्या यह तकनीक मानवता को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले जाएगी, या हमें अनदेखे, अनजाने खतरों के गहन अंधकार में धकेल देगी?
जैसे ही हम इस अभूतपूर्व वैज्ञानिक सागर की दहलीज पर कदम रखते हैं, यह स्पष्ट हो चला है कि यह महज एक तकनीकी विजय नहीं, अपितु मानवता के समक्ष एक गहन दार्शनिक और नैतिक पहेली है। यह हमें हमारे अस्तित्व, हमारी जिम्मेदारियों और हमारे भविष्य के प्रति गंभीर आत्ममंथन के लिए विवश करती है। यदि हम इस अपार शक्ति का उपयोग विवेक, संयम और जिम्मेदारी के साथ करते हैं, तो यह मानवता के लिए एक स्वर्णिम युग का प्रारंभ हो सकता है—एक ऐसा युग, जहां रोग, पीड़ा और सीमाएं इतिहास के धुंधलके में विलीन हो जाएं। किंतु यदि हम असफल हुए, यदि हमने इस शक्ति को अनियंत्रित होकर अंधकार की ओर बढ़ने दिया, तो यह एक ऐसी भयावह भूल होगी, जिसका दंश आने वाली पीढ़ियां अनंतकाल तक भुगतेंगी।
यह वह निर्णायक क्षण है, जहां विज्ञान और नैतिकता के बीच एक सूक्ष्म, नाजुक संतुलन की रचना अनिवार्य है। यह वह ऐतिहासिक पल है, जब हमें यह निर्धारित करना होगा कि हम अपने भविष्य को किस क्षितिज की ओर ले जाना चाहते हैं। क्या हम एक ऐसी दुनिया का सृजन करेंगे, जहां प्रत्येक मानव स्वस्थ, सशक्त और समृद्ध हो, अपने पूर्ण सामर्थ्य को छू सके? या हम अनजाने में एक ऐसे गहन अंधकार को जन्म देंगे, जिसके बंधन से मुक्ति असंभव हो? यह विकल्प हमारा है, और यही विकल्प मानवता के भाग्य का मार्ग प्रशस्त करेगा। आइए, इस अपार शक्ति को संयम और विवेक से संभालें, इसे सही दिशा प्रदान करें, और एक ऐसी दुनिया रचें, जो न केवल संभव हो, बल्कि अनुपम, प्रेरणादायक और चिरस्मरणीय हो।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत