==लघुकथा==
दीक्षांत-समारोह सम्पन्न हो चुका था। डॉक्टरेट की डिग्री हाथों में संभाले निशा पंडाल से उठकर कैंटीन के कोने में पड़ी खाली कुर्सी पर आ बैठी। ख्यालों में गुमसुम सी वह कुछ सोच रही थी। सर्विस- ब्वॉय ने टेबल पर पानी का गिलास रख, उसकी तंद्रा तोड़ते हुए पूछा, “मैडम! क्या लाऊं आपके लिए?”
“बस एक कप चाय ला दे।”, कहते हुए निशा की नजर सरोज पर पड़ी। सरोज निशा के नजदीक खिसकते हुए बोली, “बहुत देर से देख रही हूँ.. डॉक्टर साहिबा खुश आज होने की बजाय…जाने कौन से ख्यालों में गुम है !”
“कुछ नहीं, बस.. यूँ ही अचानक माँ का ख्याल आ गया था।” निशा ने कहा।
“माँ का ख्याल, क्यों क्या हुआ माँ को?” सरोज ने जानना चाहा तो निशा ने एक गहरी सी साँस भरकर बोली, “माँ झूठी निकली।”
“माँ झूठी निकली…! मतलब ?” सरोज ने महसूस किया कि निशा की आँखें कुछ नम हैं। सरोज ने निशा के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर पूरी बात जानने की कोशिश की। मन का गुबार निकालते हुए निशा ने बताया कि माँ की बड़ी इच्छा थी कि उसकी बेटी एक दिन पीएचडी करे। दरअसल, निशा की माँ तो ज्यादा पढ़ी-लिखी न थी लेकिन उनकी सहेली पीएचडी करके कॉलेज में प्रोफेसर लगी तो उसका रुतबा देख, माँ अक्सर दूसरों से कह दिया करती, “जिस दिन मेरी बेटी पीएचडी कर लेगी,उस दिन पूरे गांव में अपने हाथों से लड्डू बाँटूंगी।”
“देख सरोज! आज मुझे डिग्री तो मिल गई लेकिन मेरी माँ गाँव में लड्डू बाँटने नहीं आयेगी।” निशा के ऐसा कहने पर सरोज ने आश्चर्य भाव से पूछा,”मां क्यों नहीं आएगी?”
“उसे गुजरे एक अर्सा हो गया.. बता लड्डू बांटने आ जाएगी? आखिर माँ झूठी निकली न..!” रुलाई रोकती सी निशा के मुँह से यही निकला…!