(संदीप सृजन-विनायक फीचर्स)
जातिगत जनगणना एक ऐसा विषय है जो भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में लंबे समय से चर्चा का केंद्र रहा है। यह न केवल सामाजिक संरचना को समझने का एक उपकरण है, बल्कि नीति निर्माण और संसाधन वितरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जातिगत जनगणना को एक ऐसे उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिए जो सामाजिक न्याय को बढ़ावा दे, न कि समाज को विभाजित करे। यदि इसे सावधानीपूर्वक और जिम्मेदारी के साथ लागू किया जाए, तो यह भारत को एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की ओर ले जा सकता है।
*जातिगत जनगणना का इतिहास*
जातिगत जनगणना का इतिहास भारत में औपनिवेशिक काल से शुरू होता है। भारत में पहली बार व्यापक जनगणना 1881 में ब्रिटिश शासन के तहत आयोजित की गई थी, जिसमें जाति के आधार पर भी आंकड़े एकत्र किए गए। यह प्रक्रिया 1931 तक नियमित रूप से हर दस साल में दोहराई गई। 1931 की जनगणना में विभिन्न जातियों और उपजातियों की विस्तृत जानकारी प्रकाशित की गई, जो आज भी कई नीतियों और आरक्षण प्रणालियों के लिए आधारभूत डेटा के रूप में उपयोग की जाती है। उदाहरण के लिए, 1931 के आंकड़ों के आधार पर ही मंडल आयोग ने 1980 में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी।
1941 की जनगणना में भी जाति आधारित आंकड़े एकत्र किए गए, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध और अन्य प्रशासनिक कारणों से इन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। आजादी के बाद, 1951 की जनगणना में भारत सरकार ने जातिगत आंकड़े एकत्र करने को बंद करने का निर्णय लिया। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल का मानना था कि जातिगत जनगणना सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचा सकती है और राष्ट्रीय एकता के लिए यह हानिकारक हो सकती है। इस निर्णय के बाद, केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आंकड़े एकत्र किए जाने लगे, जबकि अन्य जातियों के लिए कोई अलग डेटा संग्रह नहीं किया गया।
हालांकि, समय के साथ सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने और नीति निर्माण में सटीक डेटा की आवश्यकता ने जातिगत जनगणना की मांग को फिर से प्रबल किया। 2011 में, यूपीए सरकार ने सामाजिक- आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) आयोजित की, जो 1931 के बाद पहली बार जाति आधारित डेटा संग्रह का प्रयास था। लेकिन इस सर्वेक्षण के आंकड़े पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किए गए, और इसकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठे।
हाल के वर्षों में, विशेष रूप से बिहार में 2023 में आयोजित जाति आधारित सर्वेक्षण ने इस मुद्दे को फिर से राष्ट्रीय चर्चा में ला दिया। बिहार सरकार ने इस सर्वेक्षण को दो चरणों में पूरा किया, जिसमें पहले चरण में घरों की गिनती और दूसरे चरण में जातियों के आंकड़े एकत्र किए गए। केंद्र सरकार ने शुरू में इस सर्वेक्षण का विरोध किया, लेकिन बाद में इसे वापस ले लिया। 2025 में, केंद्र सरकार ने घोषणा की कि अगली राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित आंकड़े भी शामिल किए जाएंगे, जिसे कैबिनेट कमेटी ऑन पॉलिटिकल अफेयर्स (CCPA) ने मंजूरी दे दी है।
*जातिगत जनगणना के लाभ*
जातिगत जनगणना के समर्थक इसे सामाजिक न्याय और समावेशी विकास का एक महत्वपूर्ण उपकरण मानते हैं। जातिगत जनगणना से विभिन्न जाति समूहों की शिक्षा, रोजगार, आय और संपत्ति के वितरण में असमानताओं का सटीक आकलन किया जा सकता है। यह डेटा नीति निर्माताओं को उन समुदायों की पहचान करने में मदद करता है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे अधिक हाशिए पर हैं। उदाहरण के लिए, बिहार के 2023 सर्वेक्षण ने दिखाया कि 84% आबादी सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर है, जिसने नीति निर्माण में नए दृष्टिकोण को जन्म दिया।
सटीक जाति आधारित डेटा के आधार पर सरकारें विशिष्ट समुदायों के लिए कल्याणकारी योजनाएं बना सकती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी विशेष जाति समूह में शिक्षा का स्तर बहुत कम है, तो उनके लिए विशेष शैक्षिक कार्यक्रम शुरू किए जा सकते हैं। जातिगत जनगणना से यह स्पष्ट हो सकता है कि किन क्षेत्रों या समुदायों में संसाधनों की अधिक आवश्यकता है। इससे सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचाया जा सकता है जो वास्तव में जरूरतमंद हैं। वर्तमान में OBC आरक्षण 1931 के आंकड़ों पर आधारित है, जो अब पुराने और अप्रासंगिक हो चुके हैं। जातिगत जनगणना से नया डेटा मिलेगा, जिसके आधार पर आरक्षण कोटे को समायोजित किया जा सकता है। जातिगत जनगणना शिक्षाविदों और शोधकर्ताओं के लिए एक मूल्यवान डेटाबेस प्रदान कर सकती है, जिससे सामाजिक गतिशीलता, असमानता और विकास के विभिन्न पहलुओं पर गहन अध्ययन संभव हो सकता है। जातिगत जनगणना से वंचित समुदायों को उनकी स्थिति सुधारने का अवसर मिलेगा, जिससे सामाजिक एकता मजबूत होगी और लोकतंत्र में उनकी हिस्सेदारी बढ़ेगी।
*जातिगत जनगणना की हानियां*
जातिगत जनगणना के विरोधी इसे सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से हानिकारक मानते हैं। कई विशेषज्ञों का मानना है कि जातिगत जनगणना से समाज में जातिगत तनाव और ध्रुवीकरण बढ़ सकता है। यह लोगों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर समूहों में बांट सकता है, जिससे राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंच सकता है। जातिगत जनगणना में व्यक्तिगत जानकारी एकत्र की जाती है, जिसके दुरुपयोग की आशंका रहती है। यदि यह डेटा गलत हाथों में पड़ता है, तो यह सामाजिक भेदभाव को और बढ़ा सकता है।
भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं, जिनका सटीक आंकड़ा एकत्र करना एक जटिल और महंगा कार्य है। इससे सरकारी बजट पर अतिरिक्त बोझ पड़ सकता है।जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर विभिन्न समुदाय आरक्षण की नई मांगें उठा सकते हैं, जिससे सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण की सीमा पहले ही कई राज्यों में चुनौती का विषय है। जातिगत जनगणना जाति व्यवस्था को और मजबूत कर सकती है, क्योंकि यह लोगों को उनकी जातिगत पहचान के प्रति और अधिक जागरूक करेगी। इससे आधुनिक लोकतंत्र के ‘सार्वभौमिक नागरिक बोध’ को नुकसान पहुंच सकता है। जातिगत जनगणना का डेटा राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए दुरुपयोग किया जा सकता है। क्षेत्रीय दल विशेष रूप से इसका उपयोग अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने के लिए कर सकते हैं।
*वर्तमान स्थिति और विश्लेषण*
2025 में केंद्र सरकार के जातिगत जनगणना को अगली राष्ट्रीय जनगणना में शामिल करने के फैसले ने इस मुद्दे को नया आयाम दिया है। यह निर्णय बिहार जैसे राज्यों में हुए सर्वेक्षणों और विपक्षी दलों की लगातार मांगों के दबाव में लिया गया है। बिहार के 2023 सर्वेक्षण ने दिखाया कि कैसे जाति आधारित डेटा नीति निर्माण में उपयोगी हो सकता है, लेकिन इसने केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराव को भी उजागर किया।
विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना एक दोधारी तलवार है। एक ओर, यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास को बढ़ावा देने का एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है। यह उन समुदायों को मुख्यधारा में लाने में मदद कर सकता है जो ऐतिहासिक रूप से वंचित रहे हैं। दूसरी ओर, इसके गलत उपयोग से सामाजिक तनाव, राजनीतिक अस्थिरता और जातिगत पहचान को और मजबूत करने का खतरा है।
जातिगत जनगणना भारत जैसे विविध और जटिल समाज में एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसका इतिहास औपनिवेशिक काल से शुरू होकर आज के आधुनिक भारत तक फैला हुआ है, जहां यह सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करता है। इसके लाभ, जैसे कि नीति निर्माण, संसाधन आवंटन और सामाजिक समानता, इसे एक आवश्यक उपकरण बनाते हैं। हालांकि, इसके नुकसान, जैसे कि सामाजिक विभाजन, डेटा दुरुपयोग और प्रशासनिक चुनौतियां, इसे विवादास्पद बनाते हैं।
इसलिए, जातिगत जनगणना को लागू करने से पहले कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए। पहला, डेटा संग्रह की प्रक्रिया को पारदर्शी और गोपनीय बनाया जाना चाहिए ताकि व्यक्तिगत गोपनीयता का उल्लंघन न हो। दूसरा, आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने के लिए सख्त कानूनी ढांचा तैयार किया जाना चाहिए। तीसरा, जनगणना के परिणामों को केवल सामाजिक कल्याण और नीति निर्माण के लिए उपयोग किया जाना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ के लिए। *(विनायक फीचर्स)*
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