नये भारत’ में बंधुआ मज़दूर की त्रासदी…
राजकुमार अग्रवाल /अटल हिन्द ब्यूरो
21वीं सदी के ‘नए भारत’ में करोड़ों बंधुआ मजदूर हैं. भारत सरकार ने खुद 2016 में 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मजदूरों की मुक्ति और पुनर्वास का लक्ष्य रखा था.
हालांकि, बंधुआ मजदूरी को खत्म करने का भारत सरकार का ‘संकल्प’ नया नहीं है. 1976 में सरकार ने बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम पारित कर इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया था. लेकिन आज भी यह भारतीय समाज में व्याप्त है.
कुछ और उदाहरण
सोनीपत का ईंट भट्टा: पिछले साल दस हजार रुपये एडवांस के एवज में यूपी के बागपत जिले के एक परिवार के आठ सदस्यों को सोनीपत के ईंट भट्टे पर 5 माह 15 दिन तक बंधुआ मजदूर बनाकर रखा गया. इन आठ में से चार नाबालिग थे, एक बच्ची की उम्र तो महज एक वर्ष थी.
मजदूरों और नाबालिगों से जबरन काम लिया गया. काम के बदले वेतन नहीं दिया गया. खाना भी सिर्फ इतना दिया जाता कि वह जिंदा रह सके. एक रोज भूख से बेहाल एक सदस्य वहां से भाग निकला. दूसरे दिन परिवार के अन्य सदस्य भी अपना सामान आदि छोड़ वहां से भाग निकले. त्रासदी देखिये, जैसे-तैसे यह परिवार लंबा रास्ता तय कर अपने शहर पहुंचा, लेकिन रास्ते में ही परिवार की एक महिला सदस्य की तबियत बिगड़ने लगी और अपने घार आते ही मौत हो गई.
मुजफ्फरनगर की गुड़ फैक्ट्री: सड़क दुर्घटना में घायल नाबालिग बेटे के इलाज के लिए एक बाप ने अपने इलाके के एक गुड़ फैक्ट्री मालिक से दस हजार रुपये का कर्ज लिया. यह साल 2021 की बात है. 2023 तक जब कर्ज नहीं चुकाया तो फैक्ट्री मालिक ने कर्जदार, उसकी पत्नी और पांच बच्चों को फैक्ट्री में रहने और काम करने को कहा. इसके बदले 45 हजार रुपये प्रतिमाह देने का भी वादा किया.
पति-पत्नी के अलावा दो बड़े बच्चों ने भी 16 अगस्त, 2023 से 31 मई, 2024 तक काम किया. सीजन खत्म होने पर पैसा मांगने गए तो मालिक ने कहा दिया कि उन्हें खिलाने पिलाने में ही सब खत्म हो गए- अब उनके सिर्फ 45,000 रुपये बचे हैं जो बाद में मिलेंगे. इसके बाद परिवार ने घर जाने की इच्छा जताई तो उनके सामान को बंधक बना लिया गया. कुछ महीने बाद मालिक उन्हें दोबारा जबरन फैक्ट्री में ले आया और अप्रैल 2025 तक न सिर्फ अपने यहां बल्कि दूसरों के यहां भी काम कराया, भूखा रखा, मारपीट की और कर्जदार की पत्नी के साथ बदसलूकी भी की. इन सब के बाद उन्हें बिना वेतन दिए भगा दिया.
और भी उदाहरण गिनाए जा सकते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों की पास ऐसे मामलों की फाइल्स का अंबार लगा है. उपरोक्त तीनों मामलों में अब तक न तो पीड़ितों का बयान दर्ज किया गया है, न उन्हें रिलीज सर्टिफिकेट दिया गया है, न उनका वेतन उन्हें मिला और न ही आरोपियों के खिलाफ जांच और कार्रवाई हुई है.
जबकि केंद्र सरकार का विजन डॉक्यूमेंट कहता है कि ‘सज़ा दिलवाने की प्रक्रिया मजबूत करनी है ताकि नए बंधन बनने से रोका जा सके और 100% दोषियों को सज़ा हो.’
बयान न दर्ज करना और पीड़ितों की पहचान बंधुआ मजदूर के रूप में कर उन्हें रिलीज सर्टिफिकेट न देना एक बड़ी समस्या है, जिससे पीड़ितों को पुनर्वास सहायता प्राप्त करने में कठिनाई होती है.
बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास(Rehabilitation of bonded labourers) के लिए केंद्र सरकार की योजना है, जिसके तहत बचाए गए बंधुआ मजदूर को तत्काल 30,000 रुपये की सहायता देने का प्रावधान है. पुनर्वास के लिए 1 लाख रुपये, 2 लाख रुपये और 3 लाख रुपये तक की सहायता दी जाती है, जो मजदूर की श्रेणी और उसके शोषण की गंभीरता के आधार पर दी जाती है, बशर्ते बंधुआ मजदूरी प्रमाणित हो.
लेकिन यह तभी संभव है, जब डीएम या एसडीएम बंधुआ मजदूर की पहचान कर रिलीज सर्टिफिकेट दें. बंधुआ मजदूरों की पहचान, बचाव और पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय स्तर काम करने वाली संस्था ‘नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर इरैडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर’ के संयोजक निर्मल गोराना ने बताया कि बंधुआ मजदूरों की पहचान करना सरकारों की प्राथमिकता नहीं होती, और जिला प्रशासन अकसर रिहाई प्रमाण पत्र जारी ही नहीं करता.
संसद में प्रस्तुत किए गए ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2023-24 में 500 बंधुआ मजदूरों का भी पुनर्वास नहीं कराया जा सका है, जबकि केंद्र सरकार ने 2016 में 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मजदूरों की पहचान, मुक्ति और पुनर्वास का लक्ष्य रखा था. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार को हर साल औसतन करीब 13.14 लाख बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास करना होगा.
5 अगस्त, 2024 को लोकसभा में पूछे गए सवालों के जवाब में श्रम और रोजगार मंत्रालय ने जो आंकड़े दिए, उससे पता चलता है कि पुनर्वास किए गए बंधुआ मजदूरों(Bonded labourS) की संख्या की संख्या साल दर साल घटती जा रही है.
टेबल देखें:

अगस्त 2024 में आरटीआई के हवाले से प्रकाशित आउटलुक की रिपोर्ट कहती है कि पिछले तीन वर्षों में बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास की दर में लगभग 80% की गिरावट आई है, और औसतन प्रति वर्ष केवल 900 मजदूरों का पुनर्वास हो रहा है.
उपरोक्त चार्ट के आंकड़े कहते हैं कि 2023-24 में तो केवल 468 मजदूरों का ही पुनर्वास हुआ.
केंद्र सरकार ने 2016 के विजन डॉक्यूमेंट में आने वाले सात वर्षों में बंधुआ मजदूरों की संख्या को 50% तक घटाने का लक्ष्य रखा था. रफ्तार बताती है कि लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है. पिछले साल प्रकाशित इंडियास्पेंड की रिपोर्ट कहती हैं कि जिस गति से सरकार इस दिशा में काम कर रही है, उससे 2030 तक लक्ष्य का केवल दो प्रतिशत ही प्राप्त हो पाएगा.
जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकती है केंद्र सरकार?
लक्ष्य से चूकने के बावजूद केंद्र सरकार इसकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकती है क्योंकि बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 की धारा 13 के अनुसार, राज्य सरकार को ही प्रत्येक ज़िले और उसके अधीन उप-मंडलों में सतर्कता समिति का गठन करना होता है (जैसा वह उचित समझे). यह समिति जिलाधिकारी या उनके द्वारा अधिकृत अधिकारी को इस अधिनियम के सही क्रियान्वयन में सलाह देती है.
यही समिति मुक्त किए गए बंधुआ मजदूरों को आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास दिलाने की जिम्मेदारी भी होती है.
केंद्र सरकार केवल श्रम और रोजगार मंत्रालय के माध्यम से पुनर्वास की योजना चलाती है, जो रिहा किए गए बंधुआ श्रमिकों के पुनर्वास में राज्य सरकारों की सहायता करती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह योजना मांग पर आधारित है. ऐसे में लक्ष्य से चूकने पर केंद्र सरकार इसकी जिम्मेदारी राज्यों पर डाल सकती है.
कौन बनता है बंधुआ मजदूर?
ग्लोबल कमीशन ऑन मॉडर्न स्लेवरी एंड ह्यूमन ट्रैफिकिंग की एक रिपोर्ट बताती है कि ये अपराध ज्यादातर उन व्यक्तियों और समूहों को प्रभावित करता है जो पहले से ही वंचित, हाशिए पर और भेदभाव का शिकार होते हैं.
साल 2018 में प्रकाशित जावेद आलम खान का शोध अध्ययन (Assessing Budgetary Priorities for the Rehabilitation of Bonded Labour) बताता है कि ‘भारत की कुल श्रमशक्ति में से लगभग 10 प्रतिशत श्रमिक बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में आते हैं. अब तक जितने बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास हुआ है, उनमें से 83 प्रतिशत अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय से आते हैं.’
अपने अनुभवों को याद करते हुए निर्मल गोराना कहते हैं, ‘सबसे अधिक बंधुआ मजदूर दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग ही बनाए जाते हैं. मुझे कोई सवर्ण समाज का बंधुआ मजदूर अब तक नहीं मिला.’
गोराना इसका बड़ा कारण दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में शिक्षा का अभाव और संसाधन की कमी को मानते हैं.
इसमें कोई मतभिन्नता नहीं है कि बंधुआ मजदूरी केवल आर्थिक शोषण की नहीं, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था की गवाही है, जहां गरीबी, जाति और असमानता आज भी शोषण के लिए खाद का काम करती हैं.
Add A Comment