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JNU ELECTION-जेएनयू  में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी)की करारी हार

जेएनयू  में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी)की करारी हार

यह जीत इस बात की तरफ इशारा करती है कि भारत को सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों से बचाने के लिए युवाओं का संघर्ष संभव है, और प्रगतिशील ताक़तों की एकता एक महत्वपूर्ण ज़रूरत है।
JNU- अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सभी उम्मीदवारों को निर्णायक रूप से हरा दिया है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध एक दक्षिणपंथी छात्र संगठन है,
PHOTO——वाम गठबंधन के उम्मीदवारों ने जेएनयूएसयू चुनाव में जीत हासिल की। (फोटो साभार: एसएफआई दिल्ली ऑन एक्स)
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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) (JNU)के छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव पद पर वामपंथी गठबंधन (leftist alliance)पैनल के उम्मीदवारों ने जीत हासिल कर ली है, वाम गठबंधन ने इस मुक़ाबले में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) (Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad (ABVP)’)के सभी उम्मीदवारों को निर्णायक रूप से हरा दिया है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध एक दक्षिणपंथी छात्र संगठन है, यह स्पष्ट रूप से जेएनयू की राजनीति के भीतर समाहित लचीलेपन को साबित करती है। विशेष रूप से यह जीत तब और महत्वपूर्ण हो जाती है, जब यह मालूम है कि केंद्र में बैठी सत्ता इसे पहले से ही बदनाम करने की कोशिश करती रही है और अंततः असहमति और विचारों के साथ टकराव के चलते इसमें निहित लोकाचार को ध्वस्त करने के लिए जेएनयू पर चौतरफा हमला करती रही है।

बहुलता की जीत

जिस तरह से दलित वर्गों सहित विभिन्न धर्मों और जाति समूहों से संबंधित वामपंथी गठबंधन के उम्मीदवारों ने चुनाव जीता है, वह जेएनयू के उस विचार की गवाह है जो विविधता और बहुलता को तरजीह देता है, जो ‘भारत के विचार’ का अभिन्न अंग है। उदाहरण के लिए, वामपंथी गठबंधन (आइसा) से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार, दलित समुदाय से आने वाले धनंजय हैं जिन्हें 2,598 वोट मिले हैं, जबकि उनके निकटतम एबीवीपी प्रतिद्वंद्वी, उमेश अजमीरा को केवल 1,676 वोट मिले हैं और वे 922 मतों से हार गए हैं। एसएफआई की तरफ से उपाध्यक्ष पद के वामपंथी उम्मीदवार अविजीत घोष थे जिन्हें 2,409 वोट मिले और एबीवीपी की अपनी प्रतिद्वंद्वी दीपिका शर्मा को हराया, जिन्हें 1,482 वोट मिले हैं और 927 वोटों से हार गईं हैं। वाम समर्थित उम्मीदवार बापसा की प्रियांशी आर्य ने 2,887 वोट पाकर महासचिव पद पर जीत दर्ज की, जो उनके एबीवीपी उम्मीदवार अर्जुन आनंद से 926 अधिक है, जिन्हें केवल 1961 वोट मिले थे। वाम गठबंधन के उम्मीदवार मोहम्मद साजिद (एआईएसएफ) एबीवीपी के गोविंद दांगी को 508 वोटों से हराकर संयुक्त सचिव चुने गए हैं। साजिद को जहां 2,574 वोट मिले वहीं गोविंद को 2,066 वोट मिले।
सोशल मीडिया में बताया गया है कि सेंट्रल पैनल के लिए चुने गए चार वामपंथी उम्मीदवारों में से धनंजय और प्रियांशी आर्य दलित समुदाय से हैं। विजयी उम्मीदवारों की सूची में मोहम्मद साजिद का नाम भी जुड़ गया है जो अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं। इनमें से कोई भी छात्र अपनी जातियों या धर्मों से बनी अपनी तात्कालिक पहचान पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहा है, बल्कि वे जिस विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह ‘भारत के विचार’ से उनकी संबद्ध की पुष्टि है, जिसका हिस्सा जेएनयू रहा है। उनकी जीत, वास्तव में, विविधता और बहुलवाद की जीत है जो अक्सर भारत की संवैधानिक विजन को नुकसान पहुंचाने वाली दक्षिणपंथी ताकतों के विभाजनकारी बहुसंख्यकवाद के बिल्कुल विपरीत है।
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जेएनयू का विचार

‘जेएनयू का विचार’ ‘भारत के विचार’ से निकलता है, जो उदार, धर्मनिरपेक्ष, सभ्यतागत, सार्वभौमिक और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित है। यह वास्तव में उस शब्द के हर अर्थ का प्रतिनिधित्व करता है जिसे जवाहरलाल नेहरू ने 1948 में “विचारों के साहसिक कार्य और सत्य की खोज” के रूप में एक विश्वविद्यालय के दृष्टिकोण के रूप में बहुत ही स्पष्टता से व्यक्त किया था।
जेएनयू उच्च शिक्षा संस्थान का एक ऐसा रोल मॉडल है, और इसकी प्रगतिशील खासियतों को हमारे देश के हर दूसरे विश्वविद्यालय में भी दोहराया जाना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे उस सरकार द्वारा निशाना बनाया जाता है जिसका नेतृत्व ऐसे लोगों द्वारा किया जाता है जो यह समझने में असमर्थ हैं कि शिक्षा का अर्थ क्या है और विचारों का टकराव, दिमागी कसरत और राष्ट्र के विकास और उन्नति के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है।

धनंजय का विजयी भाषण

जेएनयूएसयू के अध्यक्ष चुने जाने पर धनंजय ने कहा कि वामपंथी गठबंधन के छात्रों की जीत किसानों के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती है, जिनमें से कई ने अपनी फसलों के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की लड़ाई और मांग के लिए अपना जीवन गंवा दिया है। उन्होंने रोहित वेमुला का भी जिक्र किया, जिन्होंने कार्ल सागन की तरह अंतरिक्ष वैज्ञानिक बनने की चुनौतीपूर्ण उम्मीद पाली हुई थी और उन्हें हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा, जहां उन्हें अपनी दलित पहचान के कारण बड़े पैमाने पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। उन्होंने बेहद मार्मिक ढंग से कहा कि जेएनयूएसयू के शीर्ष चार पदों के लिए सभी उम्मीदवारों की जीत अंबेडकर के शब्दों में “मानव व्यक्तित्व को पुनः हासिल करने के लिए” वेमुला के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती है।
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अपने विजयी भाषण में, धनंजय ने जेएनयू के लचीलेपन की तरफ इशारा किया। ऐसा करते समय उन्होंने जो कहा उसका सार अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने जोरदार ढंग से कहा कि चाहे ‘ताकतवर’ सत्ता उनके खिलाफ कितनी भी दंडात्मक कार्रवाई करें, बेरहमी से लाठियां बरसाएं और जेएनयू को ‘तथाकथित शहरी नक्सली पैदा करने की नर्सरी’ करार देने का जहरीला प्रचार करें, फिर भी छात्र यह साबित करेंगे कि झूठे और दुर्भावनापूर्ण प्रचार के खिलाफ भारत के संवैधानिक दृष्टिकोण को बरकरार रखना कितना जरूरी है।
नवनिर्वाचित जेएनयूएसयू अध्यक्ष ने यह भी उल्लेख किया कि ‘उत्पीड़ितों की आंखों में आंसू की एक बूंद’ लोगों के अधिकारों को कुचलने की ताकत रखने वालों के लिए खतरा है। फिर उन्होंने कहा कि उस आंसू वाली आँख उस महासागर का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें अत्याचारी अंततः डूब जाएगा।
उन्होंने यह भी कहा कि जिस निज़ाम ने शिक्षा, छात्रों के लिए पुस्तकालय सुविधाओं और उनकी छात्रवृत्ति के लिए धन में कटौती करके “उत्पीड़न किया” वह उस आंसुओं के उस महासागर में डूब जाएगा। किसी विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी को उसकी ‘आत्मा’ बताते हुए उन्होंने नरेंद्र मोदी शासन पर जेएनयू की ‘आत्मा’ को खतरे में डालने का आरोप लगाया, जो अब छात्रों के दिमागी तरक्की के लिए धन से वंचित है।
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धनंजय के प्रभावशाली भाषण ने इस बात को भी रेखांकित किया कि 2024 के आम चुनावों ने उस निज़ाम को बदलने का मौका दिया है जिसने “शिक्षा को काफी नुकसान पहुंचाया है और पूरे भारत को नुकसान पहुंचाया है।”
युवाओं का संघर्ष जीत में प्रतिनिधित्व करता है
जेएनयूएसयू में लेफ्ट यूनिटी पैनल की जीत यह संकेत देती है कि भारत को सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों से बचाने के लिए युवाओं का संघर्ष संभव है और प्रगतिशील ताकतों की एकता एक अहम जरूरत है। राज्य मशीनरी को नियंत्रित करने वाली सांप्रदायिक और विभाजनकारी ताकतों को हराने की हमारी पोषित आशाओं को फलीभूत करने के लिए जेएनयू ने एक मार्च शुरू किया है। भले ही यह एक छोटा कदम है, लेकिन उस दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है।
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लेखक ने 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत में जेएनयू में अध्ययन किया और भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी रहे, जो 1978-1979 के दौरान जेएनयू के कुलपति थे। व्यक्त विचार निजी हैं।
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