मासिक धर्म को अपराध ठहराने का पाप: कब बदलेगी हमारी सोच?
जब एक स्कूल, जो नन्हे मन के सपनों को पंख देने और उनके भविष्य को गढ़ने का पवित्र मंदिर माना जाता है, वही उनकी मासूमियत को कुचलने और आत्मसम्मान को तार-तार करने का अखाड़ा बन जाए, तो क्या हमारा समाज वास्तव में सभ्य कहलाने का हक रखता है? महाराष्ट्र के ठाणे जिले के शाहपुर में एक निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में हुई 08 जुलाई की घटना महज एक वाकया नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक संवेदनाओं और शैक्षिक व्यवस्था पर एक जोरदार तमाचा है। मासिक धर्म, जो प्रकृति की अनमोल देन और नारीत्व का गौरव है, उसे शर्मिंदगी का हथियार बनाकर कक्षा 5 से 10 तक की मासूम छात्राओं की गरिमा को बेरहमी से रौंदा गया। यह कहानी उन कोमल हृदयों की है, जिनके सुनहरे सपनों को अपमान की काली स्याही से दागदार कर दिया गया। यह घटना हमारी अंतरात्मा से एक चीखता सवाल पूछती है—क्या हम अपने बच्चों को वह सम्मान, सुरक्षा और संवेदना दे पा रहे हैं, जिसके वे सच्चे हकदार हैं? यह सिर्फ एक स्कूल की कहानी नहीं, बल्कि हमारे समाज के नैतिक पतन का आईना है, जो हमें झकझोरकर आत्ममंथन के लिए मजबूर करता है।
जब सूरज की सुनहरी किरणें धरती को नहला रही थीं, ठाणे के शाहपुर तहसील में एक निजी स्कूल (private schools)का सभागार एक दिल दहलाने वाले मंजर का साक्षी बन रहा था। इस स्कूल में, जहां नर्सरी से दसवीं तक की करीब 600 छात्राएं अपने भविष्य के सुनहरे सपने संजोती हैं, उस दिन कक्षा 5 से 10 तक की मासूम लड़कियों को ऐसी यातना सहनी पड़ी, जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक है। स्कूल की प्रिंसिपल और एक महिला कर्मचारी ने शौचालय की दीवारों पर खून के धब्बे देखकर ऐसा क्रूर और अमानवीय कदम उठाया, जिसने शिक्षा के पवित्र मंदिर को तार-तार कर दिया। कक्षा 5 से 10 तक की इन नन्हीं बच्चियों को सभागार में बुलाया गया, जहां प्रोजेक्टर पर शौचालय की दीवारों और फर्श पर खून के धब्बों की तस्वीरें प्रदर्शित की गईं। इसके बाद शुरू हुआ एक अपमानजनक और हृदयविदारक पूछताछ का दौर—“क्या तुम्हें मासिक धर्म हुआ है? यह खून किसका है?” मानो ये मासूम बच्चियां अपराधी हों, जिनसे बेरहमी से सवाल-जवाब किया जा रहा हो। जिन लड़कियों ने मासिक धर्म से गुजरने की बात कबूल की, उनके अंगूठे के निशान लिए गए, मानो वे किसी जघन्य अपराध की सजा पाने वाली कैदी हों। जिन्होंने मासिक धर्म न होने की बात कही, उन्हें एक महिला अटेंडेंट के साथ शौचालय ले जाकर उनकी अंडरगारमेंट्स तक की तलाशी ली गई—एक ऐसा घिनौना कृत्य, जो न केवल उनकी निजता को तार-तार करता है, बल्कि किसी भी बच्चे के कोमल मन को आजीवन आघात पहुंचाने की क्रूरता रखता है।
कई अभिभावकों ने बताया कि उनकी बेटियों को, सैनिटरी पैड्स का उपयोग करने के बावजूद, झूठ बोलने का इल्ज़ाम झेलना पड़ा। इस अपमान ने इन नन्हीं आत्माओं को मानसिक रूप से कुचलकर रख दिया। कई लड़कियां सदमे की शिकार हैं, कुछ ने स्कूल के दरवाजे की ओर मुंह मोड़ लिया, और कुछ इस दर्द को शब्दों में बयां करने की हिम्मत तक खो चुकी हैं। 2019 के यूनिसेफ के सर्वे के अनुसार, देश में हर साल 2.3 करोड़ लड़कियां मासिक धर्म शुरू होने पर स्कूल छोड़ देती हैं, और इस उम्र में करीब 54 प्रतिशत लड़कियां एनीमिक होती हैं, जिनमें छोटे शहरों और गांवों की लड़कियां अधिक हैं। ऐसी घटनाएं मासिक धर्म से जुड़े सामाजिक कलंक को और गहरा करती हैं, जिसके चलते लाखों लड़कियां शिक्षा से वंचित हो जाती हैं। एक मां की शिकायत पर पुलिस ने प्रिंसिपल, एक अटेंडेंट, चार शिक्षकों और दो ट्रस्टियों के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा के तहत मामला दर्ज किया। क्या यह कानूनी कार्रवाई उन गहरे, रिसते घावों को भर पाएगी, जो इन मासूम बच्चियों के मन पर हमेशा के लिए नासूर बन चुके हैं?
मासिक धर्म(Menstruation)—प्रकृति का वह अनमोल उपहार, जो नारी को जीवन रचने की दिव्य शक्ति देता है। फिर क्यों इसे शर्मिंदगी का लबादा ओढ़ाया जाता है? क्या शौचालय में खून के धब्बों का कारण जानने के लिए इतना क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक रास्ता चुनना जरूरी था? क्या स्कूल प्रशासन ने एक पल के लिए भी सोचा कि 10 से 15 साल की इन मासूम बच्चियों के कोमल मन पर इस बर्बर कार्रवाई का क्या असर पड़ेगा? यह घटना केवल एक स्कूल की विफलता नहीं, बल्कि हमारी उस रूढ़िगत, संकुचित सोच का काला सच है, जो मासिक धर्म को आज भी पाप और लज्जा का पर्याय मानती है। पिछले साल, मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन के तहत डिपार्टमेंट ऑफ स्कूल एजुकेशन एंड लिटरेसी ने बोर्ड परीक्षाओं के दौरान स्कूलों के लिए एक एडवाइजरी जारी की थी, जिसमें कहा गया कि 10वीं और 12वीं की छात्राओं को मासिक धर्म के दौरान मुफ्त सैनिटरी नैपकिन, जरूरत पड़ने पर ब्रेक, और परीक्षा केंद्रों पर रेस्टरूम की सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए। इसके बावजूद, इस स्कूल ने इन दिशानिर्देशों की अवहेलना की और नन्हीं आत्माओं को अपराधी की तरह कठघरे में खड़ा कर दिया। यह घिनौना कृत्य न केवल इन छात्राओं की निजता को तार-तार करता है, बल्कि उनके आत्मविश्वास और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा, कभी न भरने वाला आघात पहुंचाता है। मनोवैज्ञानिक चेतावनी देते हैं कि ऐसी घटनाएं बच्चों में आजीवन डर, शर्मिंदगी और आत्मसम्मान की कमी का जहर बो सकती हैं।
इस दिल दहलाने वाली घटना से निपटने और भविष्य में ऐसी त्रासदियों को रोकने के लिए तुरंत और अटल कदम उठाने होंगे। स्कूलों को मासिक धर्म को एक स्वाभाविक, सम्मानजनक और गौरवपूर्ण विषय के रूप में पढ़ाने की जिम्मेदारी लेनी होगी। छात्राओं के लिए सैनिटरी पैड्स की निर्बाध उपलब्धता और उनके सुरक्षित निपटान की व्यवस्था अनिवार्य होनी चाहिए। शिक्षकों और स्कूल कर्मचारियों को बच्चों की निजता और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए नियमित, गहन प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। प्रत्येक स्कूल में सखी सावित्री कमेटी और आंतरिक शिकायत समिति जैसी संस्थाओं का गठन न केवल अनिवार्य हो, बल्कि उनकी सक्रियता और प्रभावशीलता भी सुनिश्चित हो। ऐसी घटनाओं के दोषियों के खिलाफ त्वरित, कठोर और चेतावनी देने वाली कानूनी कार्रवाई हो, ताकि कोई भी स्कूल प्रशासन भविष्य में ऐसी घृणित हिम्मत न जुटा सके। सबसे जरूरी, प्रभावित छात्राओं के लिए तत्काल मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग की व्यवस्था हो, ताकि वे इस गहरे मानसिक आघात से उबरकर अपने आत्मविश्वास और सम्मान को पुनः प्राप्त कर सकें।
यह घटना हमें एक संवेदनशील, जागरूक और मानवीय समाज की ओर प्रेरित करती है। शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं; स्कूलों को बच्चों की गरिमा, निजता और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा का पवित्र दायित्व निभाना होगा। मासिक धर्म को शर्म का परदा ओढ़ाने के बजाय, इसे नारीत्व के गौरव और प्रकृति की देन के रूप में अपनाना होगा। यह त्रासदी हमसे पूछती है—क्या हम अपने बच्चों को वह सम्मान, सुरक्षा और आत्मविश्वास दे पा रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं? इस घटना को सबक मानकर एक ऐसे समाज की नींव रखें, जहां हर बच्चा भयमुक्त और आत्मविश्वास से भरा हो। स्कूल अपमान का अड्डा नहीं, बल्कि सपनों का वह मंदिर बनें, जहां हर नन्हा मन अपने भविष्य की उड़ान भर सके। हम इन मासूम आत्माओं को यह अटूट भरोसा दिलाएं कि उनका सम्मान हमारी प्राथमिकता है, और उनकी मुस्कान हमारा अनमोल भविष्य। यह समय शब्दों का नहीं, ठोस संकल्प और क्रांतिकारी बदलाव का है, जो बच्चों को सुरक्षित, सम्मानजनक और प्रेरणादायी भविष्य दे।
प्रो. आरके जैन