मंदिर बनने की ख़ुशी है, लेकिन प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को लेकर क्या सोचते हैं आम लोग?
BY-दीपक गोस्वामी
13/01/2024
2023 में राम नवमी के अवसर पर अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर का एक हिस्सा. (फोटो साभार: फेसबुक/@champatraiji)
22 जनवरी, 2024 को उत्तर प्रदेश के अयोध्या में बहुप्रतीक्षित राम मंदिर में रामलला की प्रतिमा का प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों संपन्न होना है. इस आयोजन में देश-दुनिया की हजारों नामी-गिरामी हस्तियों को निमंत्रण भेजा गया है, जिनमें नेता, अभिनेता, उद्योगपति आदि शामिल हैं. महीनों पहले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल आदि आम जनों के घर-घर जाकर उन्हें बड़ी संख्या में राम मंदिर पधारने का न्योता लगा रहे हैं.
दूसरी तरफ, इस ‘ऐतिहासिक’ पल का गवाह बनने की चाह रखने वाले जिन लोगों ने अयोध्या और इसके इर्द-गिर्द होटल बुक करा रखे थे, वे सभी बुकिंग प्रशासन के इशारे पर रद्द कर दी गई हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों से अपील की है कि वह प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल होने के लिए अयोध्या न आएं, अपने ही घर पर दीपक जलाएं.
हालांकि, विवादों की बुनियाद पर खड़ा राम मंदिर इस समय भी विवादों से अछूता नहीं हैं. हिंदू/सनातन धर्म के चार स्तंभ माने वाले चारों मठों के शंकराचार्य ने इसमें शामिल होने के निमंत्रण को ठुकरा दिया है.
गोवर्धन पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने प्रधानमंत्री द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा पर नाराज़गी जताते हुए कहा कि ‘जब मोदी जी लोकार्पण करेंगे, मूर्ति का स्पर्श करेंगे, फिर मैं वहां क्या ताली बजाऊंगा… अगर प्रधानमंत्री ही सब कुछ कर रहे हैं तो अयोध्या में ‘धर्माचार्य’ के लिए क्या रह गया है.’
वहीं, ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने कहा कि आंशिक रूप से निर्मित मंदिर का उद्घाटन केवल राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है. राजनेता को धार्मिक नेता बनाया जा रहा है. यह परंपराओं के खिलाफ है और राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है.
उनका कहना है कि किसी भी मंदिर में निर्माण कार्य पूरा होने से पहले प्रवेश या अभिषेक नहीं हो सकता. ऐसी स्थिति में प्राण-प्रतिष्ठा हिंदू धर्म में परंपराओं के अनुरूप नहीं है.
प्रमुख मुस्लिम संस्था ‘जमात-ए-इस्लामी हिंद’ ने भी उद्घाटन समारोह को ‘राजनीतिक प्रचार’ और ‘चुनावी लाभ प्राप्त करने का साधन’ बनने पर चिंता व्यक्त की है.
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने समारोह को भाजपा-संघ की राजनीतिक परियोजना बताकर इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया है और शंकराचार्यों के सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि एक अर्द्धनिर्मित मंदिर का उद्घाटन केवल चुनावी लाभ उठाने के लिए ही किया जा रहा है.
इससे पहले, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और तृणमूल कांग्रस (टीएमसी) भी धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए करने का आरोप लगाकर समारोह का बहिष्कार कर चुके हैं. अब भाकपा ने भी इसे राजनीतिक कार्यक्रम बताकर शामिल न होने की बात कही है.
क्या सोचते हैं आम लोग?
इस बीच, द वायर ने देश के विभिन्न हिस्सों के हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले कुछ आम लोगों से बात की और जानना चाहा कि आखिर वे इस पूरे आयोजन को किस तरह देखते हैं.
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के एक विद्यार्थी रोशन प्रताप सिंह राम मंदिर बनाए जाने के पक्ष में तो हैं, लेकिन साथ ही कहते हैं कि राम के नाम पर हो रही राजनीति से बढ़ रहा कट्टरपंथ दीर्घकाल में भारत के लिए हानिकारक साबित होगा.
वे कहते हैं, ‘भगवान राम के प्रति बहुसंख्यक हिंदुओं में श्रद्धा होना अच्छी बात है. राम मंदिर का बनना भी अच्छी बात है. लेकिन मंदिर के नाम पर हो रही राजनीति से धीरे-धीरे कट्टरपंथ बढ़ रहा है, जो दीर्घकाल में भारत की वैज्ञानिक सोच और अर्थव्यवस्था को कहीं न कहीं नुकसान पहुंचाएगा. पाकिस्तान इसका ज्वलंत उदाहरण है. वहां कट्टरपंथ ज्यादा है, धर्म हावी है, इसलिए अर्थव्यवस्था और वैज्ञानिक सोच गायब है.’
मध्य प्रदेश में अध्यापन कार्य से जुड़े जयंत सिंह तोमर आयोजन को विशुद्ध राजनीतिक और भाजपा के एजेंडा को पूरा करने वाला बताते हैं.
उनका कहना है, ‘भाजपा के शुरुआत से ही तीन एजेंडा थे- अनुच्छेद 370, रामजन्मभूमि और समान नागरिक संहिता. लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार बताना चाहती है कि हमने दो विषय हल कर दिए, अब तीसरे (समान नागरिक संहिता) पर आने वाले हैं. इस तरह वो लोकसभा चुनाव जीतने का प्रयास करेंगे. इसलिए लक्ष्य में उत्तर प्रदेश निर्णायक राज्य है, इसलिए वहां माहौल बनाना सबसे महत्वपूर्ण है, जिसका पार्टी को लाभ मिलेगा. सब कुछ रणनीतिपूर्वक हो रहा है.’
वह आगे कहते हैं, ‘पूरी कवायद धार्मिक न होकर, राजनीतिक है. लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले मंदिर उद्घाटन की टाइमिंग इस पर मुहर लगाती है. बस इतना है कि बहुसंख्यक जनभावनाएं राम मंदिर से जुड़ी हैं. अगर वजह राजनीतिक न होती तो लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जिन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन छेड़ा था, उन्हें निमंत्रण से वंचित नहीं रखा जाता. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि पार्टी की जिनके पास बागडोर है वो नहीं चाहते कि पुराने नेता आकर माहौल लूट ले जाएं.’
बिहार के एक सरकारी शिक्षक नीलेश (परिवर्तित नाम) कहते हैं, ‘राम जी आ रहे हैं, इसमें कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन मोदी क्यों मंदिर का उद्घाटन करें, आप प्रधानमंत्री हो, प्राण-प्रतिष्ठा कराना है तो साधु-संत से कराओ. जब आप देख रहे हो कि दो महीने बाद लोकसभा चुनाव हैं तो संवैधानिक दृष्टि से आपको स्वयं ही अपना नाम आगे नहीं करना था. वह सीधा-सीधा वोटबैंक के लिए राम के नाम को भजा रहे हैं.’
विद्यार्थी रोशन प्रताप भी कहते हैं, ‘संविधान में निहित है कि सरकार धर्मनिरपेक्षता की बात करेगी. अगर मोदी अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम मंदिर का उद्घाटन कर रहे हैं तो उन्हें धन्नीपुर में बन रही मस्जिद का भी उद्घाटन करना चाहिए. उसका निर्माण भी ट्रस्ट बनाकर भव्य तरीके से किया जाना चाहिए. प्रधानमंत्री तो सभी धर्मों के होते हैं, लेकिन यदि वे केवल एक धर्म के लिए समर्पित हैं तो वह अपने दायित्व से दूर भाग रहे हैं. दरअसल, ये कार्य शंकराचार्यों का ही था. उन्हें बुलाकर उद्घाटन करा देना था, लेकिन ये विशुद्ध रूप से हिंदुत्व की राजनीति है.’
असम के एक खेल प्रशिक्षक मंदिर बनाए जाने से बेहद खुश हैं और इसे सनातन की जीत बताते हैं. इसका श्रेय वह मोदी सरकार को ही देते हैं, लेकिन साथ में आयोजन के राजनीतिक जुड़ाव को भी स्वीकारते हैं.
मीडिया से बातचीत में वह कहते हैं, ‘हां, इस आयोजन के पीछे राजनीति और लोकसभा चुनाव भी एक कारण है, लेकिन राजनेता है तो राजनीति करेंगे ही. अगर इनकी जगह कांग्रेस होती तो वह भी राजनीति करने से बाज नहीं आती. अब जो भी है, जैसे भी है, हमें इस बात की खुशी है कि मंदिर बन गया है.’
बता दें कि इस भव्य आयोजन में देश-विदेश के 11,000 से अधिक वीवीआईपी शामिल होने की बात कही जा रही है. आपत्तियां इस पर भी हैं.
यूपी के कुशीनगर जिले के एक पीएचडी छात्र गौरव कहते हैं, ‘शंकराचार्यों का विरोध एकदम जायज है कि अधूरे निर्मित मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है. थोड़े दिन बाद चुनाव होने के चलते ही ऐसा किया जा रहा है और मोदी मुख्य यजमान बन गए हैं. वहीं, धार्मिक अनुष्ठान में पति-पत्नी का साथ बैठना भी आवश्यक होता है. सबसे ज्यादा दुखद तो यह है कि जिन लोगों ने मंदिर निर्माण में अपनी आहुतियां-बलिदान दिए उनको न बुलाकर, लोकप्रियता में शीर्ष पर काबिज लोगों को बुला रहे हैं जिनका राम मंदिर से कोई ताल्लुक नहीं है, जैसे कि बॉलीवुड वाले, उद्योगपति एवं अन्य वीवीआईपी. आडवाणी-जोशी जैसे लोगों को नहीं बुलाया क्योंकि मोदी आत्ममुग्ध व्यक्ति हैं, इन लोगों के आने से उनके फोटो की चमक फीकी पड़ जाती.’
वह सवाल करते हैं, ‘जिन लोगों को निमंत्रण भेजे हैं क्या उनके अंदर राम का एक भी गुण है? आप उनको बुलाइए जिनके परिजनों ने 90 के दौर में बलिदान दिया. लेकिन बात ये है कि मसलन बॉलीवुड वालों को बुलाएंगे, फिर वो अपने सोशल मीडिया एकाउंट से फोटो डालेंगे, जिससे इनका (मोदी और भाजपा) प्रचार होगा. करोड़ों फॉलोवर्स वाले इन लोगों से अगर 5 लाख मतदाता भी प्रभावित हो गए तो इससे चुनाव में फायदा ही होगा. आत्ममुग्धता के शिकार मोदी जी को राम से कोई मतलब नहीं है.’
नीलेश कहते हैं, ‘जिन्होंने राम मंदिर की लड़ाई लड़ी और जिनकी राम में अपार आस्था है, उनसे कह रहे हैं कि घर बैठो. उद्योगपतियों को बुला रहे हैं क्योंकि चुनावी चंदा तो उनसे ही मिलेगा. वहीं, जब आप सनातन धर्म की बात कर रहे हो तो ऐसे लोगों का बॉयकॉट क्यों नहीं कर पा रहे हो जो बीफ खाते हैं?’
उनका इशारा अभिनेता रणबीर कपूर और अभिनेत्री आलिया भट्ट को दिए गए निमंत्रण से है. गौरतलब है कि कपूर के दिवंगत पिता अभिनेता ऋषि कपूर ने सार्वजनिक तौर पर बीफ खाने की बात कही थी. वहीं, कुछ समय पहले आलिया भट्ट के पिता और फिल्मकार महेश भट्ट के खिलाफ विहिप ने हिंदू भावनाएं आहत करने का आरोप लगाकर मोर्चा खोल दिया था. दोनों ही मौकों पर संघ के अनुषांगिक संगठनों भारी विरोध किया था.
रोशन प्रताप कहते हैं, ‘अगर कांग्रेस की सरकार होती तो इस मुद्दे को खूब हाइलाइट किया जाता कि बीफ खाने वाले ऋषि कपूर के बेटे को राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा में बुला रहे हैं.’
वे इसके लिए भाजपा सरकार द्वारा मैनेज मीडिया को भी आड़े हाथों लेते हैं और कहते हैं कि भाजपा से असहमति रखने वाली आवाजों को दबाकर सामने नहीं आने दिया जाता. अन्य पार्टी की सरकार होने पर ऐसे मुद्दे और शंकराचार्य की नाराजगी रात-दिन मीडिया की सुर्खियों में रहते.
बहरहाल, भाजपा सार्वजनिक तौर पर आयोजन को धार्मिक बताती रही है और इसको राजनीतिक बताए जाने का विरोध करते आई है. हालांकि, मध्य प्रदेश में पार्टी के ही एक वरिष्ठ कार्यकर्ता द वायर से बातचीत में आयोजन के राजनीतिक अर्थों को स्वीकारते हैं.
वह कहते हैं, ‘सभी विपक्षी दल पछता रहे होंगे कि उन्होंने ऐसे वक्त में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन (इंडिया) का अपना आखिरी दांव चला, क्योंकि राम मंदिर के आगे अब यह विफल हो जाएगा. कांग्रेस जातिगत जनगणना का दांव भी चल रही थी, अब राम के नाम पर सारा हिंदू एकजुट है. ‘
हालांकि, वह मोदी की समालोचना में यह भी कहते हैं, ‘प्राण-प्रतिष्ठा के कार्य में शंकराचार्य को शामिल न करना गलत है. अगर मोदी अपने साथ चारों शंकराचार्यों को भी बैठा लेते तो इससे क्या बिगड़ जाता? वे भी खुश हो जाते, और यह उनका अधिकार भी है. ‘
छत्तीसगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता धीरेंद्र साहू कहते हैं, ‘घर-घर जाकर ये लोग मंदिर का न्योता लगा रहे हैं, जो वास्तव में चुनावी जनसंपर्क अभियान नजर आता है. भाजपा-संघ वाले तो घूमें तो घूमें लेकिन स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों को तो इस सबसे दूर रखें, लेकिन उन्हें भी शामिल कर लिया है. स्कूलों में रामधुन गाने के आदेश जारी कर रहे हैं. वहीं, पहले तो आप लोगों के घर-घर जाकर अयोध्या चलने का कह रहे हैं, और फिर वहां जिनकी होटल बुकिंग है, उन्हें खाली करा रहे हैं. राम तो सबके हैं, वो भी चाहते हैं कि इस पल के गवाह बनें.’
वह आगे कहते हैं, ‘राम मंदिर के नाम से कब तक वोट लेंगे, ये 2024 में बन गया. उसके बाद क्या करेंगे. इसलिए प्राथमिकता लोगों की समस्यों का समाधान करने की होनी चाहिए. पूजा-पाठ तो लोग अपने शहर, अपने घर में भी कर सकते हैं. ‘
नीलेश भी सरकार से राम मंदिर से पहले बेरोजगारी की समस्या के समाधान का आह्वान करते हैं. उनकी हाल ही में शिक्षक के तौर पर नियुक्ति हुई है. इससे पहले वह वर्षों तक रोजगार की चाह में राज्य दर राज्य भटककर बेरोजगारी का दंश झेल चुके हैं.
वह कहते हैं, ‘बेरोजगारी और स्वास्थ्य सबसे बड़े मुद्दे होने चाहिए. देश में कहीं भी सरकारी अस्पताल इस लायक नहीं हैं कि हम इलाज करा सकें. बिहार के शिक्षा मंत्री ने भी पूछा है कि बीमार पड़ोगे तो अस्पताल जाओगे या मंदिर? पहले आप मूलभूत सुविधाएं दो, मंदिर में हम भीख मांगने नहीं जाएंगे. रोजगार की बात आने पर तो पकौड़ा बेचने का सुझाव देकर पीछे हट जाते हैं.’
मध्य प्रदेश के किसान सतीश राय कहते हैं, ‘ये विशुद्ध राजनीतिक आयोजन है जो एक पार्टी विशेष का है, जो राम को भुना रही है. राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हड़बड़ी में किया जा रहा यह आयोजन धार्मिक तो कहीं से भी नजर नहीं आता. वैसे ये मुद्दा तैयार ही इसलिए किया गया था कि इसका राजनीतिक लाभ लिया जाए. आज ये फलित होते दिख रहा है. मंदिर बन रहा है, इसकी खुशी है. लेकिन भगवान राम अगर स्वयं होते तो वे इस तरह का आयोजन नहीं चाहते. ‘
हड़बड़ी से सतीश का आशय शंकराचार्यों के उस विरोध से है जहां उन्होंने शास्त्रों का हवाला देते हुए राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को पौष माह की अशुभ घड़ी और अधूरे निर्मित भवन में किए जाने को अनुचित बताया है और कहा है कि इस कार्य के लिए सबसे उचित वक्त भगवान राम का जन्मदिवस ‘राम नवमी’ का दिन होता.
बता दें कि 2024 में राम नवमी 17 अप्रैल को है और तब तक लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लग चुकी होगी, इसलिए तब आयोजन होने की स्थिति में मोदी स्वयं को आगे करके इसका राजनीतिक लाभ उठाने में सक्षम नहीं होते. इसलिए, शंकराचार्यों ने भी इस पूरे आयोजन को राजनीतिक करार देकर इसमें शामिल होने से किनारा कर लिया है.
वहीं, भाजपा चाहे इस आयोजन को कितना भी धार्मिक बताए लेकिन उसके सोशल मीडिया हैंडल्स पर चल रहा 22 जनवरी का काउंटडाउन और हो रहे लगातार ढेरों पोस्ट उसकी राजनीतिक संभावनाओं के लिए इस आयोजन के महत्व को उजागर कर देते हैं.
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