नफ़रत का कारोबारी घृणा बांटता लाल किले की बुर्जी से
हिंदू समाज में घृणा पहले भी थी लेकिन 2014 में हमने सारे संकोच को तोड़ दिया जब नरेंद्र मोदी(Narendra Modi) को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया गया. भारत घृणा और हिंसा की राह पर चल निकला. स्वाधीनता दिवस के दिन इस घृणा का मुख्य प्रवक्ता अपना पुराना, आज़माया हुआ रिकॉर्ड बजा रहा था. क्या उसे सुनकर हमें वितृष्णा होती है?
लेखक अपूर्वानंद/अटल हिन्द
नरेंद्र मोदी के भाषण को सुनना एक इम्तिहान है. आखिरकार कोई ऐसा उबाऊ भाषण लगभग 2 घंटे तक कैसे सुन सकता है जिसमें झूठ ही झूठ हो? जिसमें डींगबाज और शेखी ही शेखी हो? और इसके अलावा जिसमें नफरत का जहर भरा हो?
अगर 11 सालों से वह शख़्स ऐसे भाषण आत्मविश्वास के साथ दिए जा रहा है तो इसके लिए भाषण देने वाले से अधिक उसे सुनने वाले जिम्मेदार हैं. आख़िर ये भाषण हम अपनी वजह से सुन रहे हैं. हमने ही इस शख़्स को 11 सालों से अपने इस देश का प्रधानमंत्री बनाए रखा है. यह जानते हुए कि सिर्फ एक कारोबार में इसे महारत हासिल है और वह नफरत का कारोबार है. लेकिन शायद नरेंद्र मोदी की डींग, शेखी और झूठ को इसलिए बर्दाश्त किया जाता है कि उसके साथ एक ही सच्ची चीज़ है और वह है नफ़रत.
प्रधानमंत्री कार्यालय ने प्रधानमंत्री के भाषण के बारे में जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की है उसके मुताबिक भारत की रक्षा के लिए विस्तारित सुरक्षा कवच तैयार किया जाएगा. रणनीतिक क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाएगा. तकनीक और उद्योग में आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को दोहराया गया. युवकों, व्यवसायियों को स्वदेशी अपनाने का आह्वान किया गया. रोजगार के मामले में उन नौजवानों को 15 हज़ार रुपये दिए जाएंगे जो निजी क्षेत्र में काम हासिल कर लेंगे. यानी सरकार ने काम देने की ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा लिया है.
ऑपरेशन सिंदूर इस भाषण का मुख्य आकर्षण था. प्रधानमंत्री ने दोहराया कि इसके जरिए भारत ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में ‘न्यू नार्मल’ स्थापित कर दिया है. एक हिंदूवादी आरएसएस का स्वयंसेवक न्यू नॉर्मल के लिए एक स्वदेशी शब्द नहीं खोज पा रहा. शायद वह ‘न्यू नार्मल’ जैसा स्मार्ट न दीखे.
किसी विश्लेषक ने भाषण के बाद यह नहीं लिखा कि ऑपरेशन सिंदूर एक व्यर्थ की मूर्खता थी और उसने दुनिया में हमें अकेला कर दिया है. रक्षा विशेषज्ञों ने मोदी के ‘न्यू नॉर्मल’ के सिद्धांत को खतरनाक बतलाया है.
इस भाषण के बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी प्रेस विज्ञप्ति कहती है: ‘उच्च -स्तरीय जनसांख्यिकी मिशन, राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा: प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की जनसांख्यिकीय अखंडता की रक्षा के महत्व का भी उल्लेख किया. उन्होंने अवैध घुसपैठ से उत्पन्न चुनौतियों के प्रति आगाह किया और सीमावर्ती क्षेत्रों तथा नागरिकों की आजीविका की रक्षा की आवश्यकता पर बल दिया. इन चिंताओं के समाधान के लिए, उन्होंने उच्च-स्तरीय जनसांख्यिकी मिशन की घोषणा की, जिसका उद्देश्य भारत की एकता, अखंडता और सुरक्षा सुनिश्चित करना तथा रणनीतिक और सामाजिक, दोनों चुनौतियों से निपटना है.
भविष्य के बारे में, प्रधानमंत्री मोदी(Narendra Modi) ने विकसित भारत 2047 के लिए अपने विजन को रेखांकित किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत की प्रगति आत्मनिर्भरता, नवाचार और नागरिक सशक्तिकरण पर आधारित है.
उन्होंने नागरिकों को याद दिलाया कि भारत की शक्ति उसके लोगों, नवाचार और आत्मनिर्भरता के प्रति कटिबद्धता में निहित है. उन्होंने प्रत्येक भारतीय से राष्ट्र निर्माण में योगदान देने का आग्रह किया, चाहे वह भारत में निर्मित उत्पाद खरीदकर हो या वैज्ञानिक, तकनीकी और उद्यमशीलता के उपक्रमों में भाग लेकर हो, ताकि देश की स्वतंत्रता की शताब्दी तक एक समृद्ध, शक्तिशाली और विकसित भारत सुनिश्चित हो सके.
सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी (Narendra Modi)को कभी ‘मौत का सौदागर’ कहा था. इसके लिए उनकी बहुत आलोचना की गई थी. लेकिन वह लक़ब इसलिए मुनासिब है कि नफरत का एक नतीजा मौत है.
2014 में घृणा के प्रचारक की पहली ताजपोशी (India’s first coronation of a hate preacher in 2014)के बाद पुणे में मोहसिन शेख़ के कातिलों ने उनकी हत्या करने के बाद शान से कहा था, पहला विकेट गिरा. उसके बाद से मौत और तबाही का जो सिलसिला शुरू हुआ वह थमने को नहीं आता. यह धारावाहिक हिंसा है. रोज़ाना की. इस नफरत का निशाना मुसलमान और ईसाई हैं. उस नफरत का नतीजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ता है. ज्यादातर हिंदुओं को इसका अहसास भी नहीं होता. जब मुसलमान या ईसाई एतराज करते हैं तो उन्हें लगता है कि वे कुछ अधिक संवेदनशील हैं, छुई मुई हैं और अति प्रतिक्रिया कर रहे हैं.
नरेंद्र मोदी समेत भारतीय जनता पार्टी के नेता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े बीसियों नेता घृणा और हिंसा का प्रचार करते हैं. फिर उनकी टुकड़ियां अलग-अलग जगह यह हिंसा करती हैं. अब उस हिंसा में भारतीय राज्य की पुलिस और प्रशासन भी सक्रिय रूप से शामिल हो गया है क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों को सुनकर विश्वास हो गया है कि अब यही राजकीय नीति है.
यह भी दुखद सच्चाई है कि पुलिस और प्रशासन में एक बड़ा हिस्सा ख़ुद इस घृणा के विचार को मानता है. अदालतें प्रायः इसके प्रति उदासीनता दिखलाती हैं मानो मुसलमानों और ईसाइयों पर हिंसा कोई ख़ास बात नहीं. मीडिया इस घृणा और हिंसा के प्रचार में और उसे जायज ठहराने में पेश पेश है.
जब जर्मनी ने 1945 में हिटलर से निजात पाने के बाद कहा, ‘अब और नहीं!’ तो वह सिर्फ उनके लिए न था. पूरी दुनिया को उसे सुनना था. भारत को इसका गुमान था कि हम तो तब भी हिटलर के झांसे में नहीं आए थे फिर आगे क्या बात! लेकिन एक संगठन था जिसने हिटलर और मुसोलिनी को अपना प्रेरणा स्रोत बतलाया था. उसका नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. उसके सदस्यों में एक का नाम है नरेंद्र मोदी.
2025 में उस आरएसएस की एक सदी पूरी हो रही है. आरएसएस स्वाधीनता के पहले और बाद में अनेक मौकों पर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काने में शामिल पाया गया है. उसके सदस्यों का कोई रिकॉर्ड नहीं, इसलिए वह हमेशा ही अपने सदस्यों के काम से ख़ुद को अलग कर लेता रहा है. फिर भी सबको मालूम है कि वह साम्प्रदायिक घृणा और हिंसा में शामिल रहा है.
अनेक पूर्व स्वयंसेवकों ने बतलाया है कि संघ किस प्रकार हिंसा की साजिश करता रहा है. आरएसएस एक ही संगठन का नाम नहीं है. विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठन उसी के अंग हैं. दशकों से भारत के अलग-अलग हिस्सों में हिंसा में इनके शामिल होने के सबूत सबके सामने रहे हैं.
प्रधानमंत्री के भाषण के असली हिस्से को भी उसने ख़ासा मुलायम कर दिया जिसमें घुसपैठियों से भारत को बचाने का ऐलान किया गया था.
मोदी ने कहा, ‘सोची‑समझी साजिश के तहत देश की डेमोग्राफी को बदला जा रहा है, एक नए संकट के बीज बोए जा रहे हैं. ये घुसपैठिए मेरे देश के नौजवानों की रोजी‑रोटी छीन रहे हैं, ये घुसपैठिए मेरे देश की बहन‑बेटियों को निशाना बना रहे हैं, ये बर्दाश्त नहीं होगा. ये घुसपैठिए भोले‑भाले आदिवासियों को भ्रमित करके उनकी जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं, ये देश सहन नहीं करेगा. इसलिए जब डेमोग्राफी परिवर्तन होता है सीमा के क्षेत्र में ये होता है तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संकट पैदा होता है, सामाजिक तनाव के बीच बो देता है, कोई देश अपना देश घुसपैठियों के हवाले नहीं कर सकता है, तो हम भारत को कैसे कर सकते हैं… इसलिए मैंने आज लाल किले की प्राचीर से कहना चाहता हूं कि हमने एक हाई पावर डेमोग्राफी कमीशन शुरू करने का निर्णय किया है, ये मिशन के द्वारा ये जो भीषण संकट नजर आ रहा है, उसको निपटाने के लिए तय समय में अपने कार्य को करेगा.’
मोदी ने यह बात कोई पहली बार नहीं कही है. 2013 से लगातार हिंदुओं के मन में घुसपैठियों का डर बैठाया जा रहा है. झारखंड के चुनाव में भी मोदी ने आदिवासियों की जमीन और उनकी बेटी-बहू पर घुसपैठियों की नजर की बात बार-बार कही थी. बिहार में भी मतदाता सूची के अचानक परीक्षण का कारण बतलाया गया था घुसपैठियों को मतदाता सूची से निकालना.
हर बांग्ला बोलने वाला मुसलमान आज घुसपैठिया है. उन्हें जबरन सीमा के पार धकेला जा रहा है. गिरफ्तार किया जा रहा है. उनके घर, मकान तोड़े जा रहे हैं. प्रधानमंत्री ने एक ऐसा बयान दिया है जो इस हिंसा को और तेज कर सकता है. यह मात्र अस्वस्तिकारी नहीं है जैसा एक संपादकीय ने लिखा है. यह खतरनाक है और इसके नतीजे मुसलमानों और ईसाइयों के लिए वास्तविक हैं.
प्रधानमंत्री ने इस भाषण में घुसपैठियों से ‘देश की बहू बेटियों’ को बचाने का संकल्प दोहराया है. यह लव जिहाद के डरौने को नई शक्ल में पेश करने के अलावा और कुछ नहीं.
कई लोगों ने लिखा है कि इस बार मोदी में थकान दिख रही थी. दुहराव था, खोखलापन था. लेकिन घृणा से थकते किसी को देखा है? कोई क्या घृणा के रास्ते से इसलिए हटता है कि उसे वह घिसी-पिटी जान पड़ती है?
एक व्यक्ति ज़रूर उससे विरत हो सकता है लेकिन उसकी जगह ढेर सारे लोगों के लिए वह नई और आकर्षक बनी रहती है. इसीलिए आरएसएस से लोग विरक्त होकर निकले हैं लेकिन आरएसएस की घृणा और अलगाव की राजनीति हमेशा नए लोगों को अपनी तरफ़ खींचती है.
भारत में यह घृणा हिंदू समाज में पहले भी थी लेकिन 2014 में हमने उसके प्रति सारे संकोच को तोड़ दिया जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया गया. भारत का हिंदू घृणा और हिंसा की राह पर चल निकला. यह कहना उससे बेहतर होगा कि उसने घृणा और हिंसा की दलदल में पांव रख दिए और अब वह उसमें धंसता जा रहा है.
स्वाधीनता दिवस के दिन इस घृणा का मुख्य प्रवक्ता अपना पुराना, आज़माया हुआ रिकॉर्ड बजा रहा था. क्या उसे सुनकर हमें वितृष्णा होती है या लगता है कि इसमें पर्याप्त दम नहीं है? क्या हम और प्रामाणिक घृणा की तलाश कर रहे हैं?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )