प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग दो घंटा बोले मगर ठीक वही बात नहीं बोले जो बोलनी थी।
राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है
BY–बादल सरोज
संविधान पर हुई बहस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग दो घंटा बोले मगर ठीक वही बात नहीं बोले जो बोलनी थी। लोकसभा में अपने कुल 110 मिनट के ‘प्रवचन’ में उन्होंने दसों दिशाओं में हाथ फैलाए, पाँव चलाये मगर उस असली 11वीं मध्य दिशा के पास तक नहीं फटके जो पूरी चर्चा का मध्य था।
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होता है, जब सच छुपाना होता है तो झूठ के साथ साथ बहुत कुछ ऐसा आंय बांय सांय भी बताना होता है जिसका कोई पता सिरा नहीं होता। खासतौर से तब जब बात उस उठाईगीरी और सेंधमारी की हो रही हो जो खुले खजाने और दिनदहाड़े की जा रही है। विडंबनाओं की स्थिति ही नहीं होती उसकी धजा और आडम्बर भी होते हैं, उसकी भाषा और व्यंजनायें भी होती हैं । यही थी जो पूरी निर्लज्जता के साथ भारतीय संसद के दोनों सदनों में कुल 4 दिन चली उस बहस के समाहार में दिए गए इधर मोदी के भाषण और उधर अमित शाह द्वारा की गयी उनकी खराब कार्बन कॉपी में नुमायाँ थे। जिसे संविधान के लागू किये जाने की 75वीं सालगिरह के मौके पर किया गया था।
ऐसा होना लाजिमी भी था – बहस संविधान के महत्त्व और इस देश को रहने योग्य बनाने में उसके योगदान पर हो रही थी और सत्ता ऐसे संगठन की राजनीतिक भुजा के बाहुपाश की जकड़न में है जो इस संविधान के ही खिलाफ है ; अब नादिरशाहों हिटलरों से मानवधिकार पर बोलने के लिए कहा जाएगा तो उसी तरह अनर्गल और असम्बद्ध प्रलाप किया जाएगा जिसे 110 मिनट तक लोकसभा ने झेला और गोदी मीडिया की किलकारी के रूप में इनके श्रोताओं ने भुगता है ।
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अधिक पुरानी बात नहीं है जब आरक्षण की समीक्षा और पुनरीक्षण के सरसंघचालक के बयान और उसके खिलाफ हुई जबरदस्त प्रतिक्रिया के बाद उसे वापस लेने की घटना घटी थी । इस दौरान इसी कुनबे के कुछ लोगों ने कहा था कि ‘बिना आरक्षण का कानूनी प्रावधान खत्म किये हुए ही हम आरक्षण को खत्म कर देंगे । बाद के दिनों में ठीक यही हुआ भी ; सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण कॉर्पोरेट करण करके, सरकारों और उसके नियमों से चलने वाले निगमों, मंडलों, विभागों, कामों को छिन्न भिन्न कर उनका ठेकेदारी करण करके और निजी क्षेत्र में आरक्षण दिए जाने की मांग को अनसुना करके अन्ततः ऐसी स्थिति ला ही दी गयी जब कानूनी प्रावधानों में तो आरक्षण बना हुआ है मगर वास्तविक व्यवहार में बिलकुल भी नहीं बचा है।
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ठीक यही उस्तादी भारत के संविधान के साथ आजमाई जा रही है, जो है मगर होते हुए भी न रहे इस बात के भरपूर प्रयास किये जा रहे हैं, जिसे बिना बदले ही उसमे लिखे बताये को पूरी तरह बदल दिया जा रहा है । सत्ता के सारे अंग प्रत्यंग उपांग संविधान को अप्रासंगिक बनाने के धतकरम में सांगोपांग झोंक दिए गए हैं । ऊपर से लेकर नीचे तक ऑक्टोपस की सारी भुजाएं भारत को भारत बनाने और तीन चौथाई सदी तक उसे एकजुट भारत बनाए रखने वाली इस मूल्यवान किताब को भभोड़ने, इसकी धाराओं, अनुच्छेदों को चींथने के काम में भिड़ी हुई हैं।
लोकतन्त्र को रूप और सार, सिद्धान्त और बर्ताव दोनों ही तरीको से चोटिल किया जा रहा है। संसदीय लोकतंत्र में होने वाले चुनाव शेक्सपीयर की दुखान्तिकाओं – ट्रेजेडीज – को पीछे छोड़ चुके हैं तो उनके जरिये चुने जाने वाले निकाय संसद और विधानसभाओं को मुम्बईया फिल्म वेलकम जैसी त्रासद कामेडी में बदला जा चुका है। इनमे जिसके लिए वे चुनी जातीं हैं को छोड़कर बाकी सब किया जा रहा, जो बोला जाना चाहिए उसे छोड़कर बाकी सब गरल, तरल और अनर्गल बोला और कहा जा रहा है। असहमति जताने, संगठित होने, विरोध करने और मांग उठाने के लिए जलूस, सभा, प्रदर्शन करने के संविधान में लिखे मूलभूत अधिकार लिखा पढ़ी में अभी भी है मगर बस लिखापढ़ी में ही हैं। थानेदार और तहसीलदार जैसे अदने अफसर तक उन्हें खूँटी पर टांग कर अंग्रेजी राज की मनमानी को भी पीछे छोड़ रहे हैं, उन्हें बेमानी और निरर्थक बना रहे हैं ।
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धर्मनिरपेक्षता, जो धर्म को राज करने या राजनीति का आधार न बनाने की सदियों पुरानी परम्परा का आधुनिक सूत्रीकरण है, आजाद भारत का तानाबाना है, की तो जैसे खाट खड़ी करके वाट ही लगाई जा रही है । धीमी तीव्रता के साथ आगे बढ़ने के रास्ते को छोड़कर अब यह कुनबा सीधे सप्तमसुर में रौद्र रस के समूहगान तक आ गया है । किसी भी धर्म, पूजा परम्परा को मानने या न मानने का मूलभूत अधिकार देने वाले संविधान की शपथ लेकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने मोहन यादव ने एलान कर दिया है कि अब वे “छाती पर पाँव रखकर राम और कृष्ण की बात सुनायेंगे और उन्हें सुननी पड़ेंगी” तक आ गए हैं। सारे सरकारी दफ्तरों, थानों और चौकियों में मूर्तियाँ पधराने के बाद कुछ करोड़ रुपये खर्च करके अपनी राजधानी के राजभवन में विशाल मन्दिर का निर्माण कर संवैधानिक समझ का तर्पण करने पर आमादा हैं।
लोकसभा में प्रधानमंत्री, राज्यसभा में गृह मंत्री सारी संवैधानिक और संसदीय मर्यादा को ताक पर रखकर सीधे सीधे मुस्लिम विरोधी नफरत भड़काने वाले भाषण दे रहे हैं ।
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अब तो न्यायपालिका को भी इसी संविधान विरोधी मुहिम के विनाश रथ में जोत दिया गया है। चन्द्रचूड़ी गोलमाल की अंगुली पकड़ कर छुटकी अदालतों द्वारा अपनी न्यायिक सीमाओं से बाहर जाकर ‘मस्जिद के नीचे क्या है, दरगाह के पीछे क्या है’ का खतरनाक खेल जैसे काफी नहीं था – इसलिए अब हाईकोर्ट जज भी खो खो खेलने उतार दिए गए हैं। जज शेखर कुमार के विश्व हिन्दू परिषद की सभा में जाकर दिए ‘कठमुल्ला’ और ‘अब तो बहुसंख्यकों के हिसाब से देश चलेगा’ जैसे घोर संविधान विरोधी और आपराधिक बयान से पल्ला झाड़ने की दिखावे की औपचारिकता भी नहीं की जा रही ; खुद योगी आदित्यनाथ उनकी सराहना करते घूम रहे हैं और इस जज की आलोचना को ‘सत्य बोलने वाले को धमकाया जाना’ करार दे रहे हैं।
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कारपोरेट नियंत्रित गोदी मीडिया पहले ही विषाणुओं के सतत प्रवाह का जरिया बनाया जा चुका था अब कार्यपालिका, विधायिका का साम्प्रदायिकरण और असंवैधानिक करण किया जा रहा है ।
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संविधान की एक और खूबी, बहुभाषी, बहुविध भारत की एकता को अक्षुण्ण बनाये रखने वाली खूबी उसका राज्यों का एक संघ होना, घोषित रूप से संघीय गणराज्य होना है । मोदी राज में राज्यों के अधिकारों को कम से और कमतर करते करते अब ‘एक देश एक चुनाव’ के नाम पर संघीय गणराज्य की पूरी समझदारी को उलट दिया जा रहा है ।
संविधान पर होने वाली बहस में इन सब पर चर्चा होनी चाहिए थी। इस बात का गम्भीर आत्मावलोकन होना चाहिये था कि 75 वर्ष पहले लागू किये गए भारत के संविधान ने आगामी वर्षों में देश को जिस दिशा में ले जाने का रास्ता दिखाया गया था उस पर कितना चला गया, यदि नहीं चला गया तो अब उस दिशा में बढ़ने की क्या योजना बननी चाहिए। यह खुलासा होना चाहिए था कि संविधान की आत्मा कहे जाने वाले हिस्से भाग 3 और 4 का क्या हुआ ? संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में लिखे संपत्ति के केन्द्रीकरण को उलटने, अधिकतम और न्यूनतम आमदनी में 10 और 1 से अधिक का अंतर न होने देने, देश की आमदनी का वितरण ऊपर की बजाय नीचे की आबादी में करने और देश को समाजवाद की राह पर ले जाने के मंसूबे कहाँ तक पहुंचे आदि इत्यादि !!
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बहस इस बात पर होनी चाहिए थी कि सबको शिक्षा सबको काम, समान काम के लिए समान वेतन और जमीन के बंटवारे, समाज की चेतना को वैज्ञानिक रुझान वाला बनाने के काम कहाँ तक पहुंचे । मगर ठीक इन्हीं सबको तो छुपाना था इसलिए खाली पीली गाल बजाये गए, झूठी उपलब्धियों के ढोल सुनाये गए। कुल जमा 110 मिनट के भाषण में जो 11 संकल्प – जो उन्होंने खुद नहीं लिए जनता और राजनीतिक पार्टियों के लिए गिनाये हैं – उनमें भी बेरोजगारी, महँगाई, खेती किसानी की बदहाली और मजदूरों की जिन्दगी की मुहाली, असमानता की चौड़ी से भयावह गहरी होती खाई जैसी देश और उसकी जनता की की प्रमुख समस्याओं का जिक्र तक नहीं है। संविधान का उल्लेख भी 7वें नम्बर के संकल्प में है सो भी “संविधान का सम्मान हो और राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसे हथियार न बनाया जाए” जैसे द्विअर्थी सूत्रीकरण में है । असली अर्थ इन शब्दों के बीच है और वह यह है कि संविधान की रक्षा करने जैसी बातें करना इसे राजनीति स्वार्थ के लिए हथियार बनाना माना जाएगा ।
मोदी और शाह दोनों के भाषणों की खास बात यह थी कि इन दोनों ही ने मनुस्मृति से असंबद्धता जाहिर करना तो दूर उसका नाम नहीं लिया जबकि बहस में इसे साफ़ साफ़ तरीके से रखा गया था और विपक्ष का आरोप था कि मौजूदा सत्ता समूह संविधान की जगह इसे लाना चाहता है। उसका जिक्र न करना छूट जाने या चुनिदा स्मृति विलोप – सेलेक्टिव एमनीसिया – का मामला नहीं था । यह जानबूझकर भेड़ की ओढ़ी खाल को सरकने फिसलने से रोकने की कोशिश थी। यह संविधान के प्रति दुर्भाव और मौक़ा मिलते ही उसके खात्मे के इरादे को छुपाने के लिए की जा रही इधर उधर की बात थी।
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यह ‘साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं’ का अंदाज है क्योंकि वे जिस कुनबे के हैं उस कुनबे का संविधान का साथ द्वेष आज का नहीं है । दोहराने की जरूरत नहीं कि आरएसएस को यह संविधान कभी नहीं भाया। इसने संविधान सभा के गठन का ही विरोध किया था और खुलेआम यह मांग की थी कि स्वतन्त्रता के बाद के भारत को “भारत के हजारों साल पुराने संविधान – मनुस्मृति- के मुताबिक़ चलाया जाना चाहिए।” संघ के विचारक और गुरु जी माने जाने वाले गोलवलकर ने बार बार भारत के संविधान को पश्चिमी देशों की नक़ल बताया। इसमें दिए गए सार्वत्रिक बालिग़ मताधिकार को मुण्ड-गणना कह कर धिक्कारा। संविधान में दिए लोकतंत्र को कुत्तों बिल्लियों को अधिकार देना बताया, हर तरह का जनतंत्र खराब बताया, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद का विरोध किया। उनके बाद बने हर सरसंघचालक ने संविधान को बदलने की बात बार बार दोहराई। अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1 फरवरी 2020 को संविधान समीक्षा के लिए बाकायदा आयोग का ही गठन कर दिया गया। हालांकि इन सबके बावजूद संविधान बना रहा – लेकिन ख़ास संघी अदा के अनुरूप धीरे धीरे उसके खिलाफ वातावरण बनाया जाता रहा। इसी संविधान की 75वीं वर्षगाँठ पर उसी संघ के स्वयंसेवक बोल रहे थे जिसने आज तक अपनी इन धारणाओं से किनारा नहीं किया है ।
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इस प्रसंग में 25 वर्ष पहले भारत के संविधान की 50वीं वर्षगांठ पर सेन्ट्रल हॉल में बोलते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन की कही बात याद आयी । उन्होंने वाजपेयी सरकार द्वारा संविधान की ‘समीक्षा’ के लिए बनाए गए आयोग की पृष्ठभूमि के कहा था कि “हमें इस बात पर विचार करना होगा कि क्या यह संविधान है जिसने हमें विफल किया है या यह हम हैं जिन्होंने संविधान को विफल किया है।” ध्यान रहे ये वे ही के आर नारायणन हैं जिन्होंने जब शहनाई वादक बिमिल्ल खान को भारत रत्न दिए जाने की सिफारिश की थी, तब उसे मंजूर करते हुए वाजपेयी ने रिटर्न गिफ्ट के रूप में सावरकर को भारत रत्न देने की अनुशंसा भेज दी थी मगर राष्ट्रपति ने उसे नहीं माना था। आज खतरा ज्यादा बड़ा है क्योंकि अब राष्ट्रपति भवन में उनके जैसे लोग नहीं है ।
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संविधान निर्माताओं को इस स्थिति में पहुँच जाने की आशंका शुरू से थी। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में डॉ अम्बेडकर ने इसकी पूर्व चेतावनी देते हुए कहा था कि‘’हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया – मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फ्रेटर्निटी)’”उन्होंने चेताया था कि “यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’” सिर्फ इतना ही नहीं, बाबा साहब ने यह भी कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति – भले वह कितना ही महान क्यों न हो – के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे। संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है।” इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि ‘’राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’ पिछली दस वर्षों से यह देश जिस भक्त-काल और एकल पद पादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है उसे देखते हुए इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। यह बर्बर तानाशाही का रास्ता है – संविधान तो अलग रहा मनुष्यता के निषेध का रास्ता है। ठीक यही इरादा है जिसे छुपाया जा रहा था और कहीं पे निगाहें रखते हुए कहीं पे निशाना लगाया जा रहा था ।
भारत का संविधान दुनिया के संविधानों से इस मायने में अलग है कि इसे हम भारत के लोगों ने भारत और उसके लोगों को समर्पित किया है ; यह यदि खतरे में पड़ता है या असुरक्षित होता लगता है तो उसे बचाने के लिए भी हम भारत के लोगों को ही मैदान में उतरना होगा।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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