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सिस्टम को नहीं पता उनका एनकाउंटर कैसे करे और किस जेल में डाल दे

सिस्टम को नहीं पता उनका एनकाउंटर कैसे करे और किस जेल में डाल दे

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में मरने वालों की संख्या-चादरें छिपाते तंत्र की प्रतिबद्धता
======BY निधीश त्यागी====
मुर्दे इतने अधिक हो गए कि लाशों को ठिकाने लगाने का सिस्टम बैठ गया. अब वे हिसाब मांगेगी. मृत्यु का, आंसू का, असहाय और अकेले पड़ने का, लुटने का, अस्पताल से लेकर अंतिम यात्राओं तक अपना आत्म सम्मान खोने का. जितना ढंकेंगे, चुप कराएंगे, झूठ बोलेंगे, सच उतना ही साफ होकर सामने आता जाएगा.
सिस्टम शब्द जानबूझकर इस लेख में नहीं लिखा गया है. वह एक सुंदर शब्द है. इस देश का सिस्टम बहुत सारे लोगों ने बहुत जतन और प्यार से संजोया है. न किया होता तो न इतने अस्पताल होते, न इतने डॉक्टर, न इतनी सारी मनुष्यता. पर सिस्टम हमेशा की तरह राजधर्म से फिर भटकता रहा और प्रजा को मूल विषय से भटकाता रहा.

अपना देश भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा वैक्सीन बनाने वाला देश है. अपना देश भारत दुनिया में वैक्सीन के लिए सबसे ज़्यादा तरस रहा देश भी है. ये दो वाक्य नरेंद्र मोदी और उनके सिस्टम की क़ाबिलियत, शिक्षा, दीक्षा, कुशलता के सबसे विश्वसनीय प्रमाणपत्र हैं. और अपने देश भारत की बदनसीबी के भी.

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पर यही सिस्टम चाहता है कि आप यानी प्रजा उनकी वाहवाही करना न छोड़ें. जय-जयकार जारी रखें. नैरेटिव पर क़ब्ज़ा रहेगा तो देश पर भी रहेगा. दुलत्ती मार के दौड़ जाने वाला नैरेटिव सिस्टम के हाथ से निकलता जा रहा है, पर सिस्टम उसके पीछे उसे क़ाबू करने की मंशा से दौड़ा जा रहा है.

सिस्टम को यक़ीन है कि वह नैरेटिव नाम के गधे की काठी पर सवार हो ही जाएगा. जैसे बचपन की सांस्कारिक चंदा मामा पत्रिका की कहानियों में राक्षस की जान किसी तोते में हुआ करती थी, सिस्टम नामक राक्षस की जान नैरेटिव नाम के तोते में बसती है.

सिस्टम के लिए देश, देश में रहने वाले, देश के बुजुर्ग, बीमार, डॉक्टर, समाजसेवी कितने महत्वपूर्ण हैं और उनको लेकर तथाकथित अवधारणा कैसी है, कोरोना ने बहुत ही निर्णायक तरीक़े से इस सच को उधेड़ कर रख दिया है.

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सिस्टम की प्राथमिकता, संवेदना, कर्तव्यपरायणता, निष्ठा किस तरफ है, ये साफ होता जा रहा है.

मरना किसी का भी हो, दुखद होता है. समाज, समुदाय कोशिश करते हैं कि जाने वाले को जितना हो सके, गरिमा और आदर के साथ विदाई दी जाए. फांसी की सज़ा दिए जाने वालों के साथ भी एक प्रोटोकॉल का पालन किया जाता है. पर जब ख़ुद को वैश्विक शक्ति, दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र और एक आजाद मुल्क बताए जाने वाले भारत में मरने वालों की पहचान, संख्या और चादरें छुपाई और चुराई जा रही हों, तो समझ सकते हैं कि तंत्र प्रजा के लिए कितना प्रतिबद्ध है और अपनी जान बचाने के लिए कितना.

कौन भूल सकता है इसी सिस्टम ने लद्दाख में चीनी फौजियों की घुसपैठ और संघर्ष को मानने से ही इनकार कर दिया था. और वह ठहाका भी, जो नोटबंदी के बाद ये कहने के बाद लगाया गया था, ‘घर में शादी है..’. और ये भी कि जब प्रजा ऑक्सीजन के कमी से दम तोड़ रही थी, शिश्टम आवारा शोहदों की तरह चुनावी रैलियों में ‘दीदी ओ दीदी’ कर रहा था.

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सिस्टम ने मृतकों के परिवारों से संवेदना भी नहीं दिखलाई. सिस्टम लोगों पर, उनके दुखों, तकलीफों, बेबसियों पर झींकता रहा.

सिस्टम और सत्तारूढ़ पार्टी को बैक सीट से ड्राइव करने वाले बुजुर्ग ने भी कुनमुनाते हुए ये तो कह ही दिया कि ‘जरा गफलत’ हो गई है. बहुत नर्मी के साथ उन्होंने ठीकरा शिश्टम के साथ-साथ जनता और व्यवस्था पर भी फोड़कर सच को भोथरा करने में कमी नहीं छोड़ी, और हर बार की तरह इशारों में बात समझ लेने की ज़िम्मेदारी प्रजा पर छोड़ दी.

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इशारों और वक्रोक्तियों में कहने की विधा को शास्त्रीय बनाने का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व के पास पहले से है. राग दरबारी उपन्यास के चरित्र वैद जी की तरह ब्रह्मवाक्यों में बात कहना, जिससे न तो कोई असहमत हो, न कोई सीधा मतलब निकले. सब बस संकेतों में पढ़ लें, जो मंशा है.

पर सिस्टम के कई लोग, कई मंत्री, कई नेता ऐसे हैं, जो अभी भी ख़ुद को और शिश्टम को तुरूप का इक्का बता हांके जा रहे हैं. शिश्टम ने शुरू में एक मार्गदर्शक मंडल रखा था. फिर सब भूल गए.
मैनिपुलेटेड मीडिया और मीडिया मैनिपुलेटेड
शिश्टम ने इलाहाबाद को प्रयागराज बनाया और फिर रेत में गड़े हुए शवों को ढकने वाली वो केसरिया चादरें हटवा दीं, जो न्यूयार्क टाइम्स, स्काई न्यूज़, सीएनएन, बीबीसी में दिखलाई जा चुकी थी.

तब तक कुत्ते उन रेत में पटी लाशों को खखोड़ने लगे थे. पूरी दुनिया में भारत को लेकर ऐसी तस्वीरें और रिपोर्ताज छपने लगे, जो किसी भी ऐसे मुल्क के लिए शर्मनाक हैं, जो ख़ुद को विश्वगुरु और सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था बता कर फेंके और हांके जा रहा था.

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चूंकि उसका कोई सीधा जवाब नहीं था, इसलिए आनन-फानन में डेली गार्डियन और दूसरे नामों की नक़ली मीडिया साइट बनाकर शिश्टम की छवि पर चाशनी उड़ेली जाने लगी.

सिस्टम चाह रहा है कि लोग जान न लें. जब ज़्यादातर चैनल अपनी दुम टांगों के बीच दबाए बैठे थे, कुछ अख़बारों ने अपने रिपोर्टरों को अपने बाड़ों के बाहर भेजा और ढंग की रिपोर्टिंग देखने को मिली.

सिस्टम को ये नागवार गुजरा और वे इश्तहार रोक लिए गए, जिनमें बताया जाने वाला था कि मोदी जी देश, जनता, विकास के लिए कितना धांसू काम किए जा रहे हैं. शिश्टम चाह रहा है कि विज्ञापनों में वाहवाही हो और खबरों में जयकारा.

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सिस्टम को लगता है कि न रहेंगे सबूत, न हुई होगी वारदात, न होंगी गिनतियां, न मरे होंगे लोग, न रहेगी बांसुरी, न हुए होंगे बांस. शिश्टम उल्टा काम करता है. जबकि उसने वोट मांगा था और उसे मिला भी था, सीधा काम करने के लिए.

सिस्टम ने सात साल में सब कुछ सीधा और ठीक करने के नाम पर ये सब किया.
लोगों को जब सिस्टम से मदद नहीं मिली तो उन्होंने ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया में मदद के लिए पुकार लगाई. सिस्टम ने कुछ मदद मांगने वालों की तशरीफों पर डंडे लगवाए, मदद करने वालों पर छापे पड़वाए और ट्विटर के दफ्तर पर दिल्ली पुलिस के कारिंदों को उनकी नई जैकेटों में एक कैमरा क्रू के साथ भिजवा दिया.

इस बीच ट्विटर ने भी बता दिया कि पार्टी के कई नेता और शिश्टम के कई मंत्री ‘मैनिपुलेटड मीडिया’ (ऐसे दस्तावेज़, वीडियो, ग्राफिक जिसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ या तोड़-मरोड़ की गई हो) इस्तेमाल कर रहे हैं.

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सिस्टम ने ट्विटर और फेसबुक पर लगाम कसने के लिए नोटिस भिजवाए. जिन प्लेटफार्मों के ज़रिये उन्होंने अपनी इतनी झांकी सजाई थी, वहीं अब अपनी मिट्टी पलीद होते देखना उन्हें अच्छा नहीं लग रहा.

सिस्टम ने उन लोगों के ख़िलाफ आपराधिक मामले दर्ज कर लिए, जिन्होंने दिल्ली की कई दीवारों पर काले पोस्टर लगा कर नादान सवाल पूछा था- ‘मोदी जी हमारे बच्चों को मिलने वाली वैक्सीन को आपने विदेश क्यों भेज दिया?’ मामला दर्ज होते ही हज़ारों लोगों ने यही पोस्टर अपनी टाइम लाइन पर चस्पां कर दिए . एक बार फिर नैरेटिव खूंटा तुड़ाकर भाग खड़ा हुआ.

सिस्टम ने मीडिया समूह के मालिकों और संपादकों को कहलवाया कि आप तो भाई साहब मुद्दे से लोगों को भटकाते चलो, अपनी तोपें यहां-वहां की बातों और राहुल गांधी जैसों पर ताने रखो. रोज़ शाम की नूराकुश्ती जारी रखो. संकट के समय में देश को सच से भटकाए रखने की सुपारी शिश्टम ने जिनको दी है, वह तमाशा देश रोज़ देखता है.

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क्या ये आपने भी ये नोटिस किया है कि प्राइम टाइम के दौरान कुत्ते सड़क पर कम भौंकते हैं. शिश्टम ने बहुत पहले कहा था कि उसे बहुत अफसोस होता है, जब एक कुत्ते का पिल्ला भी गाड़ी के नीचे आ जाए. यहां तो इंसानों की बात है. सिस्टम अगर अपना काम थोड़ा ठीक से कर लेता तो बहुत सारे लोगों को मरना नहीं पड़ता.
सिस्टम का टोटका
जब पानी सिर से ज़्यादा चढ़ गया तो प्राइम टाइम के मजमे सजाने वालों से शिश्टम ने कहा गया कि शिश्टम को दोष दे दो, पर शिश्टम चलाने वाले को इससे बाहर रखो. शिश्टम सड़ चुका है. शिश्टम दोषी है. सिस्टम बेकार है. और उसका मेरे देश के प्रधान सेवक से कोई मतलब नहीं है.

सिस्टम किसका है, ये मत पूछो. मत पूछो कि सिस्टम कौन चला रहा है. सिस्टम ठीक करने और उसे चलाने का वोट मांगने कौन आया था और किसने दिया था. शिश्टम क्या कहकर आया था, क्या कर रहा है, मत पूछो.

मत पूछो कि वैक्सीन कम कैसे पड़ गईं. कि चेतावनियों के बाद भी हम यहां बनी वैक्सीन दुनिया भर में कैसे बांट आए. सिस्टम के डैशबोर्ड पर किसी और का हाथ है. हाथ से निकलते नैरेटिव की पूंछ पकड़े रहने की आख़िरी कोशिशों में से ये एक है.

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थोड़ी-सी भी शर्म और फिक्र होती (देश की नहीं, भक्तों की नहीं, तो परम पूज्य का लिहाज़ सही) तो शायद इतना रायता फैलते देख शिश्टम हरकत में आता दिखलाई देता. अपनी ज़िम्मेदारी मानता.

और शिश्टम हरकत में आया तो, पर ज़मीनी हक़ीक़तों से दो चार होने के लिए नहीं. वह प्रजा और दुनिया को वह रायता देखे जाने से रोकना चाहता है, जो ख़ुद उसने फैलाया है.

ये कार्रवाई रायता फैलने के ख़िलाफ नहीं है. ये हरकत फैलते रायते के बारे में हमें और आपको जानने से रोकने के बारे में है.
और ये दिलचस्प है कि दुनिया में सबसे ज़्यादा वैक्सीन बनाने वाला देश एक मौक़ा-ए-वारदात में बदल चुका और बदल रहा है, और सिस्टम वहां से सबूत पोंछने, मिटाने, बिगाड़ने और दूसरों पर दोष मढ़ने में लगा है.

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लोग मर रहे हैं, वह नहीं चाहता कि आपको उनकी सही संख्या पता चले. लोग बीमार पड़ रहे हैं, आप उनके टेस्ट ही नहीं कर रहे और दुनिया को बताना चाह रहे हो कि सब चंगा सी.

आप ऑक्सीजन के बारे में भ्रामक जानकारियां फैलाकर देश और अदालतों का टाइम ख़राब कर रहे हो, जबकि पूरे देश की सांस बिना ऑक्सीजन के अटकी हुई है.

जब बहुत हुआ तो सिस्टम चलाने वाले ने भी आधा अटका आंसू दिखलाकर पूरा मुशायरा लूटने की फिर से कोशिश की. हालांकि बहुत से लोग इसका अंदाज़ा लगा चुके थे.

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मुझे नहीं पता इस बात पर सट्टा खेला गया या नहीं. पर इस बीच देश के बहुत से मतदाता, नागरिकों, रहवासियों ने खून के बहुत सारे आंसू पिए. प्राइम टाइम और टीआरपी के बाहर बहुत सारी बेबस उदास चुप्पियों में.
नीम हकीम के नुस्ख़े
शिश्टम फिर इस तरह की बैसिर-पैर की और ऊटपटांग बातें करने वालों को शह देता रहा है, जो कभी कोरोना से लड़ते और जान को दांव पर लगाते डाक्टरों को बेवकूफ करार दे रहे हैं या फिर देश के स्वास्थ्य मंत्री से अपनी दवाई बिकवाने की तिकड़म कर रहे हैं.

सिस्टम हरियाणा में नीम हकीम रामदेव की दुकान से उस पुड़िया के करोड़ों में ऑर्डर दे रहा है. शिश्टम से जुड़े लोगों पर जमाखोरी, कालाबाजारी, मुनाफाख़ोरी के आरोप लग रहे हैं. शिश्टम उन पर न लगाम कस पा रहा है, न कोई समाधान ढूंढ पा रहा है.

शिश्टम ने पीएम केयर के ज़रिये पहले तो बहुत सारा चंदा चूस लिया और फिर अपने विश्वविख्यात मॉडल प्रदेश गुजरात से ऐसे वेंटिलेटर ख़रीदे, जिन्होंने ठीक से काम तक न किया.

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एक जगह तो पूरे आईसीयू में ही आग लग गई. एक साध्वी सांसद लोगों पर बजाय वैक्सीन लगवाने, मास्क पहनने के गोमूत्र पीने की सलाह दिए जा रही हैं, जिसे नाथूराम गोडसे बेइंतहा पसंद हैं और जिसे हमारे सिस्टम के प्रधान सेवक मन से माफ नहीं करने की बात कह रहे थे.

इनका बस चले तो गोबर कीड़े को राष्ट्रीय अमानत बना लें. अज्ञानी लोगों की दुकान नादान लोगों के भरोसे चलती है. अगर सिस्टम ठीक होता और सिस्टम चलाने वाले ईमानदार तो जांच, कार्रवाई और सज़ा इन लोगों को दी जा रही होती.

कोई तमीजदार देश होता तो इनमें से कितने लोगों पर महामारी के समय मानवता के ख़िलाफ अपराध करने के मामले दर्ज हो रहे होते.
सिस्टम के प्रेम  पत्र
यहां सिस्टम के स्वास्थ्य मंत्री की दो चिट्ठियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए. एक जो उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखी. उसका तंज और बेअदबी देखिए. दूसरी जो बहुत सत्कार, आदर, विनम्रता के साथ नीम हकीम रामदेव को भेजी गई.

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शिश्टम को बहुत दिक़्क़त है उन लोगों से जो थोड़ा पढ़े-लिखे हैं और थोड़ा-बहुत जानते हैं. शिश्टम को उनसे चिढ़ है. शिश्टम उनके आगे ख़ुद को कमतर पाता है. सिस्टम सवालों का सामना नहीं कर सकता. शिश्टम प्रेस कॉन्फ्रेस से डरता है. शिश्टम पारदर्शिता और जवाबदेही से भागता है.

सिस्टम रौशनी के सामने ख़रगोश की तरह सन्न हो जाता है, जब उसके पास स्क्रिप्ट नहीं होती. सिस्टम स्क्रिप्ट से चलता है. सिस्टम को पहले से पता होना चाहिए कि सवाल क्या होंगे और कौन-सी अदा उसके बाद बिखेरी जाएगी. बिना रिहर्सल के सिस्टम कुछ नहीं कर सकता. ये बात अब छिपी नहीं है.

जो लोग जानते हैं और परवाह करते हैं, सिस्टम उनसे चुप रहने को कह रहा है. चाहे वे जनस्वास्थ्य के विशेषज्ञ हों, समाजविज्ञानी हों या अर्थशास्त्री या फिर सिविल सोसाइटी के लोग.

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उनमें से कई जेल में हैं, जिनकी ज़मानत याचिकाएं टलती जाती हैं. पर बलात्कार और हत्या के आरोपियों बाबा राम रहीम और बाबू बजरंगी को ये छूट मिल जाती है.

नीम हकीम कह रहा है किसी का बाप भी उसे गिरफ्तार नहीं कर सकता. पर कितने सारे लोग अपने सामाजिक सरोकारों के कारण गिरफ्तार हैं, जिनके ख़िलाफ चार्जशीट भी दाखिल नहीं की गई है, न सबूत जुटाए गए हैं.
सिस्टम को विपक्षी दलों की बात सुनना मंज़ूर नहीं. सिस्टम मुख्यमंत्रियों की बात सुनना नहीं चाहता. शिश्टम उन्हें बाईपास करके सीधे कलेक्टरों से बात कर रहा है.

कलेक्टर सड़क पर निकलकर मोबाइल सड़क पर पटकता है और नौजवान पर थप्पड़ रसीद कर सस्पेंड हो जाता है. एक कलक्टरनी कहीं और हाथ चलाती है. शिश्टम बहुत ग़ुस्से में रहता है. शिश्टम मौक़े का फायदा उठाते हुए कोरोनाबाद में मोदी महल पर काम तेज़ कर देता है.

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सिस्टम की चौकीदारी जिनको करनी थी, वे चुप हैं. चाहे वह अदालतें हों या कैग या चुनाव आयोग. शिश्टम के आगे सब मजबूर और बिछे हुए हैं. शिश्टम केंद्र से राज्य के विधायकों के लिए सुरक्षा दस्ते भेज रहा है.

सिस्टम को राज्य सरकारों पर भरोसा नहीं है. राज्य सरकारें कोई सवाल शिश्टम से कर दें, तो सिस्टम संघीय बनावट पर ख़तरा बताने लगता है.

शिश्टम ने अपनी पार्टी के नालायक नेताओं को गवर्नर बनाकर भेजा और चुनाव हारने के बाद भी जनादेश को मन से स्वीकार नहीं किया. बंगाल और केरल तो ठीक अंक राज्य हैं, शिश्टम ने लक्षद्वीप जैसे छोटे से राज्य में चरस बोने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

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आएगा तो सिस्टम ही
कई बार लगता है कि ये कोई ख़राब सपना है. पर ये जाने का नाम नहीं लेता. किसी और देश किन्हीं और लोगों में ये हो रहा होता तो हम कितना हंसते. मतलब इन दिनों बांग्लादेशी लोग- जिन्हें हमारा शिश्टम दीमक कह रहा था, क्या बोलते होंगे जब उनकी प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) हमसे आगे जा चुकी है.

कैसे हंसते होंगे जब सिस्टम ऐन चुनावों के बीच मतुआ वोटों को रिझाने बांग्लादेश चला गया था. ठीक वैसे ही जैसे ऐन बिहार चुनावों के बीच नेपाल के जनकपुर. शिश्टम भीड़ को देखकर जिस भाव से हाथ हिलाकर गदगद हो रहा था, उसे उत्फुल्लित कहते हैं.

क्या आपके वॉट्सऐप में उन लोगों के वीडियो अभी तक नहीं आए, जिन्हें वक़्त पर दवा, अस्पताल में दाख़िला, दाख़िला मिलने पर ऑक्सीजन, और आईसीयू नहीं मिल सका और जिन्होंने दम तोड़ने से पहले कहा – आएगा तो मोदी ही. फिर दम तोड़ दिया. मेरे पास भी नहीं आया, पर कभी भी आ सकता है. और मुझे आश्चर्य नहीं होगा.

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बहुत सारे लोग इसी अर्थात् के संदेश भेज रहे हैं. मोदी जी सबसे अच्छे हैं. उनसे अच्छा देश के लिए कोई नहीं है. चाहे जो भी हो जाए, कितने भी लोग मर जाएं, कितने भी दुख हो, कितनी भी बेरोज़गारी हो, कितनी भी ख़राब अर्थव्यवस्था हो जाए, आएंगे तो वही.

इधर कुछेक मुर्दे बोलने लगे हैं. वे संगठित होते दिख रहे हैं. वे ख़ुद ही पोस्टर बनके मेरे आपके वॉट्सऐप से लेकर वाशिंगटन के अख़बारों में सिस्टम का जयकारा लगा रहे हैं.

सिस्टम को नहीं पता उनका एनकाउंटर कैसे करे और किस जेल में डाल दे. या उन्हें कैसे अपनी पार्टी में शामिल कर ले. किस सीबीआई और ईडी या स्पेशल सेल के पुलिस वालों को उन्हें ठिकाने लगाने को भेजे.

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मुर्दे इतने अधिक हो गए कि लाशों को ठिकाने लगाने का सिस्टम बैठ गया. अब वे हिसाब मांगेगी. मांगना बनता है. मृत्यु का, आंसू का, असहाय और अकेले पड़ने का, दुख का, लुटने का, पिटने का, अस्पताल से लेकर अंतिम यात्राओं तक अपना आत्म सम्मान खोने का.

जितना ढंकेंगे, चुप कराएंगे, झूठ बोलेंगे, विषयांतर करने की चतुराई दिखाएंगे सच उतना ही साफ सामने आता जाएगा. ख़ास तौर पर इसलिए कि इस बार वह सामाजिक, धार्मिक, सांप्रदायिक, राजनीतिक नहीं है. इस बार वह व्यक्तिगत है. जिन्हें पढ़ने के लिए न सिस्टम के पास नज़र थी, न उससे बात करने के लिए ढंग के स्पीच राइटर. उसके लिए थोड़ी इंसानियत चाहिए होती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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