अहिल्याबाई: सिंहासन की नहीं, सेवा की रानी
[पुण्यश्लोक अहिल्याबाई: जिन्होंने खोया सब कुछ, पर दे दिया सबको बहुत कुछ]
जब समय की धूल भरे पन्नों को पलटते हैं, तब एक नाम ऐसा उभरता है जो न केवल इतिहास को रोशन करता है, बल्कि हर हृदय में साहस, करुणा और समर्पण की लौ जगा देता है — अहिल्याबाई होलकर(Ahilyabai Holkar) 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी गाँव में जन्मी यह साधारण बालिका नियति की कठिन अग्निपरीक्षाओं से गुजरकर मराठा साम्राज्य की ऐसी युग-प्रवर्तक रानी बनी, जिसने शासन को सेवा, समर्पण और न्याय का पर्याय बना दिया। ‘पुण्यश्लोक’ अहिल्याबाई होलकर की गाथा केवल इतिहास की कहानी नहीं, बल्कि एक जीवंत दर्शन है, जिसने अपनी सूझबूझ, अटूट दृढ़ता और असीम करुणा से एक युग को नई दिशा दी। वे नारी शक्ति की वह अडिग मूर्ति थीं, जिन्होंने इंदौर को समृद्धि के शिखर पर पहुँचाया और भारतीय संस्कृति को उदारता, धर्म और न्याय के रंगों से सजाया। उनकी जयंती पर उनकी गौरवमयी गाथा को स्मरण करना केवल अतीत को दोहराना नहीं, बल्कि उस अमर चेतना को पुनर्जनन करना है, जो हमें सिखाती है कि सच्चा नेतृत्व सिंहासन की भव्यता में नहीं, बल्कि जन-जन के हृदय में बसने वाली निस्वार्थ सेवा और अटल विश्वास में निहित है।Ahilyabai: Who lost everything, but gave a lot to everyone
अहिल्याबाई (Ahilyabai Holkar)का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता मनकोजी शिंदे ने उन्हें शिक्षा और संस्कारों का ऐसा आलोक दिया, जो उनकी असाधारण प्रतिभा को उजागर करता गया। उनकी बुद्धिमत्ता और संवेदनशीलता ने मराठा सरदार मल्हारराव होलकर का ध्यान खींचा, जिन्होंने उन्हें अपने पुत्र खंडेराव की वधू बनाया। परंतु जीवन ने उनके लिए कांटों भरा रास्ता चुना। 1754 में खंडेराव की युद्ध में मृत्यु, 1766 में ससुर मल्हारराव का निधन और फिर पुत्र मालेराव की असमय मृत्यु — इन त्रासदियों ने उनके जीवन को झकझोर दिया। लेकिन अहिल्याबाई वह अग्निकणिका थीं जो आंधियों में और प्रज्वलित होती हैं। उन्होंने दुखों को अपनी शक्ति बनाया और इंदौर की बागडोर संभालकर एक ऐसे युग का सूत्रपात किया, जो आज भी सुशासन की मिसाल है।
उनका शासनकाल (1767-1795) मराठा इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। अहिल्याबाई ने शासन को केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि प्रजा के कल्याण का पवित्र कर्तव्य माना। वे प्रातःकाल दरबार में बैठतीं, हर छोटे-बड़े की फरियाद सुनतीं और त्वरित, निष्पक्ष न्याय देतीं। उनकी नीतियों में किसानों को कर में राहत, व्यापारियों को सुगम व्यापारिक मार्ग और प्रजा को आधारभूत सुविधाएँ देने का भाव झलकता था। उन्होंने नदियों पर घाट, कुएँ, बावड़ियाँ और तालाब बनवाए, जो आज भी उनकी दूरदर्शिता के साक्षी हैं। सड़कों का जाल बिछाकर उन्होंने व्यापार और संपर्क को नई गति दी। यात्रियों के लिए धर्मशालाएँ और विश्रामगृह बनवाए, जिससे इंदौर न केवल एक समृद्ध राज्य बना, बल्कि एक ऐसी मिसाल बन गया, जहाँ प्रजा का सुख सर्वोपरि था।
अहिल्याबाई की धार्मिक उदारता उनके व्यक्तित्व का एक और अनमोल रत्न थी। उन्होंने काशी विश्वनाथ, सोमनाथ, रामेश्वरम, द्वारका, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, हरिद्वार और उज्जैन जैसे पवित्र तीर्थस्थलों का जीर्णोद्धार कराकर उन्हें नवजीवन प्रदान किया, जिससे ये स्थान आध्यात्मिकता के केंद्र के रूप में और सशक्त हुए। पर उनकी भक्ति संकीर्ण नहीं थी। उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया, मस्जिदों और अन्य धार्मिक स्थलों की देखभाल की और हर समुदाय को समान अवसर दिए। उनके लिए धर्म केवल मंदिर-मस्जिद तक सीमित नहीं था, बल्कि वह जीवन का वह दर्शन था जो मानवता को एक सूत्र में बाँधता था। उनकी यह उदारता और समावेशी सोच आज के विभाजनकारी युग में भी एक प्रेरक मशाल है, जो हमें सौहार्द और सहअस्तित्व का मार्ग दिखाती है।
अहिल्याबाई का व्यक्तित्व एक अनुपम मिश्रण था—एक ओर वीरता से भरा योद्धा, जो युद्धभूमि में मराठा साम्राज्य की ढाल बनकर सेनाओं का नेतृत्व करता था, तो दूसरी ओर करुणामयी माता, जो प्रजा के दुख-दर्द को हृदय से महसूस कर उनकी सेवा में तत्पर रहती थीं। शाही वैभव और ठाठ-बाट से कोसों दूर, सादे वस्त्रों में, बिना आभूषणों के सजीं, उनकी सादगी ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी। वह सत्ता की ऊँचाइयों पर बैठकर भी जमीन से जुड़ी रहीं। उनके लिए शासन केवल आदेश देने की कला नहीं, बल्कि माता-पिता की तरह प्रजा की रक्षा और पालन करने का पवित्र कर्तव्य था। उनकी हर नीति, हर निर्णय में यह ममत्व और दायित्व झलकता था, जो उन्हें एक युग-प्रवर्तक शासक बनाता है। उनकी यह विरासत आज भी हमें सच्चे नेतृत्व का अर्थ सिखाती है।
13 अगस्त 1795 को, जब अहिल्याबाई ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा, उन्होंने पीछे छोड़ा एक ऐसा अमर विरासत, जो आज भी भारत के कण-कण में जीवंत है। वे सिर्फ इंदौर की रानी नहीं थीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और आत्मा की सच्ची रक्षिका और सेविका थीं। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची शक्ति सत्ता के ताज में नहीं, बल्कि प्रजा के प्रति निस्वार्थ सेवा, अटूट समर्पण और अडिग न्याय में बसती है। अहिल्याबाई नारी शक्ति की वह प्रखर दीपशिखा थीं, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि नारी केवल कोमलता की प्रतीक नहीं, बल्कि साहस, बुद्धि, नेतृत्व और करुणा की जीवंत मूर्ति भी हो सकती है।
आज अहिल्याबाई की जयंती पर हम केवल उनकी गौरवगाथा को नहीं दोहराते, बल्कि उस प्रचंड अग्नि को प्रज्वलित करते हैं, जो हमें सिखाती है कि चाहे चुनौतियाँ कितनी भी विशाल हों, साहस, करुणा और दृढ़ संकल्प से उन्हें पराजित किया जा सकता है। उनका जीवन एक ऐसा निर्मल दर्पण है, जो हमें हमारी जिम्मेदारियों का साक्षात्कार कराता है और सच्चे नेतृत्व का अर्थ समझाता है—वह नेतृत्व, जो प्रजा के हृदय में अमर हो, उनके सुख-दुख में सहभागी बने और उनके जीवन को सार्थक बनाए। अहिल्याबाई की गाथा केवल मराठा साम्राज्य तक सीमित नहीं, बल्कि यह समस्त भारत की आत्मा की पुकार है—एक ऐसी प्रेरणा, जो हमें अपने कर्तव्यों को निष्ठा, नम्रता और समर्पण के साथ निभाने का आह्वान करती है। उनकी विरासत हमें प्रेरित करती है कि हम समाज के लिए ऐसा कुछ रचें, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए गर्व का स्रोत बने। अहिल्याबाई होलकर का नाम मात्र एक इतिहास नहीं, बल्कि एक जीवंत चेतना है—वह शक्तिशाली संदेश, जो हमें पुकारता है: उठो, कर्म करो, और विश्व को उज्जवल बनाओ।