महर्षि दयानंद के विचारों का अनुसरण कर विश्वगुरु बन सकता है भारत
विश्वगुरु की पदवी वापिस पाने के लिए देश को फिर से अपनी जड़ों से जुड़ना होगा
प्राचीन काल में विश्व गुरु के नाम से विश्व विख्यात हमारा देश अपने अपने मूल से भटकता प्रतीत होता है। पूर्व में हमारा देश ज्ञान का भंडार होता था और यहीं से दुनिया के सबसे बड़े विद्वान निकल कर पूरे विश्व में देश की कीर्ति और ज्ञान की ध्वजा फहराने का कार्य करते थे लेकिन जैसे जैसे हमने अपनी मूल जड़ें छोड़कर पश्चिमी सभ्यता का रुख किया, तभी से हम बेहद पिछड़ते चले गए। 1850 तक देश में ’7 लाख 32 हजार’ गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय देश में गाँव थे ’7 लाख 50 हजार’, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल लेकिन जैसे जैसे पश्चिमी सभ्यता और शिक्षा का अनुसरण प्रारंभ किया वैसे वैसे सभी गुरुकुल काल के ग्रास में समा गए और उनके स्थान पर सिर्फ रह गए शिक्षा के नाम पर व्यापार करने वाले स्कूल और शिक्षा माफिया।
आज देश का वह युवा जो कि बेहद विद्वान है और उच्च शिक्षित है, वह विदेशों में पलायन कर रहा है और जिसका लाभ वे देश उठा रहे हैं और उनकी अर्थव्यवस्था मजबूत होती जा रही है और हमारी वही विकासशील की विकासशील। इसके अतिरिक्त देश में हर स्तर पर बढ़ता भ्रष्टाचार समेत अन्य भी बड़े कारण रहे।
अगर देश में महर्षि दयानंद सरस्वती की नीतियों का अनुसरण किया जाता तो निश्चित रूप से हमें फिर से अपना खोया सम्मान वापस पाने के लिए विदेशों की नीतियों का अनुसरण न करना पड़ता। स्वामी दयानंद सरस्वती के वैचारिक दर्शन के केंद्र में समाज का परिष्कार और परिशोधन है। समाज के धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में आई कुरीतियों का निराकरण स्वामी जी के चिन्तन का प्रमुख विषय रहा है। उन्होंने समाज को नई दशा और दिशा दिखाने का कार्य किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने सार्वभौमिक शिक्षा पर बल दिया जो कि गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ही संभव थी। गुरुकुल में शिक्षा के साथ-साथ, वेदों का पठन-पाठन में, संस्कृत का ज्ञान, व्यवहार परिवर्तन, शारीरिक शिक्षा का विशिष्ट ज्ञान समेत व्यवहारिक ज्ञान दिया जाता था, जो कि पूर्ण रूप से निशुल्क होता था। जिस कारण संसाधनों और धन के अभाव में कोई भी विशिष्ट प्रतिभा शिक्षा से वंचित नहीं रहती थी लेकिन आज शिक्षा व्यापार का रूप धारण कर चुकी है। उनका मत था कि शिक्षा के बिना मनुष्य केवल नाम का आदमी होता है। यह मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह शिक्षा प्राप्त करे, सदाचारी बने, द्वेष से मुक्त हो और देश, धर्म तथा समाज के लिए कार्य करे। स्वामी दयानंद जी के विचार में शिक्षा मनुष्य को ज्ञान, संस्कृति, धार्मिकता, आत्मनियंत्रण, नैतिक मूल्यों और धारणीय गुणों को प्राप्त करने में मदद करती है और मनुष्य में विद्यमान अज्ञानता, कुटिलता तथा बुरी आदतों को समाप्त करती है। हमारे देश की शिक्षा और संस्कृति का लोहा पूरे विश्व ने माना लेकिन समय के साथ हम अपनी संस्कृति और शिक्षा से पूरी तरह कटते चले गए।
महर्षि दयानंद सरस्वती का स्पष्ट मत था कि भारत के पास प्राचीन ज्ञान बेहद विशाल धरोहर है कि हमें विकास करने के लिए अन्य बाहरी स्त्रोत की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं उन्होंने संस्कृत पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों के बारे में भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। स्वामी दयानंद जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में शिक्षार्थी के न केवल चरित्र निर्माण पर विशेष बल दिया है बल्कि उसके जीवन के समग्र विकास को केंद्र में रखते हुए एक विशुद्ध पाठ्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की है जिससे यह स्पष्ट करता है कि स्वामी दयानंद का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थी को मनुष्य की पूर्णता का साक्षात्कार कराना है। शिक्षार्थी के व्यक्तित्व के समग्र विकास को ध्यान रखते हुए प्रस्तुत विस्तृत पाठ्यक्रम कठोर अनुशासन और संयमित जीवन-शैली की अपेक्षा करता है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोषों के निराकरण का मार्गदर्शन करने में समर्थ प्रतीत होता है। स्वामी दयानंद इस बात से भली-भांति परिचित थे कि अगर भारत जैसे बड़े देश को परिवर्तित करना है तो बचपन को प्रेरित तथा परिवर्तित करना होगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से बच्चों की नैतिक शिक्षा पर बल देते हुए उनकी शिक्षा के साधन निर्धारित किए। नैतिक शिक्षा में एक तरफ सद्गुणों का विकास तथा प्रोत्साहन और दूसरी ओर विकारों का निराकरण शामिल है। उनका स्पष्ट मत था कि माता-पिता और शिक्षकों को स्वयं उच्च आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। समाज में बढ़ती राजनैतिक और धार्मिक विषमताओं और इतिहास में रचित विसंगतियों ने भारत की उस महान संस्कृति को पिछले सालों में कुछ हद तक विश्व के मानसपटल से विस्मृत कर दिया था। समाज में बढ़ती राजनैतिक और धार्मिक विषमताओं और इतिहास में रचित विसंगतियों ने भारत की उस महान संस्कृति को पिछले सालों में कुछ हद तक विश्व के मानसपटल से विस्मृत कर दिया था। हमें स्वयं देश की अवस्थाएं और सिस्टम बदलने का संकल्प लेना होगा क्योंकि देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखे, की रीती और नीति को केंद्र में रखना होगा। देश को अगर फिर से विश्व पटल पर विश्व गुरु के पद पर आसीन करना है तो हमें अपनी जड़ों प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा, व्यवस्था से फिर से जुड़ना होगा और अपनी जड़ों से हम ऋषि दयानंद सरस्वती के विचारों को आत्मसात कर और उन्हें जमीनी स्तर पर लागू कर देश को फिर से विश्व गुरु की पदवी दिला सकते हैं। अगर महर्षि दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं और मार्गदर्शन प्राप्त कर युवा पीढ़ी आगे बढ़ेगी तो निश्चित रूप से देश फिर से विश्व गुरु बनने की राह पर अग्रसर होगा।
प्रदीप दलाल की कलम से
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