02 जून: अंतर्राष्ट्रीय सेक्स वर्कर दिवस]
हर ठुकराई हुई ज़िंदगी, एक ज़िम्मेदार समाज का आईना है
जब समाज की रोशनी केवल मंचों और महलों तक सीमित रह जाए, तब उसकी असली पहचान अंधेरे कोनों में पनपती है — वहीं जहां हाशिए पर खड़ी आत्माएं अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद कर रही होती हैं। (Prostitution)सेक्स वर्कर (यौनकर्मी) —जो रात की चुप्पियों में अपने हक़ और गरिमा के लिए लड़ते हैं — क्या हमने उन्हें इंसान की तरह देखा है, या बस एक कलंक की तरह? क्या हमने कभी उनकी ख़ामोश निगाहों में वो चीखें सुनी हैं, जो समाज की बेरुख़ी पर सवाल उठाती हैं? 2 जून — अंतर्राष्ट्रीय सेक्स वर्कर दिवस (International Sex Worker Day)— सिर्फ एक तारीख नहीं, यह एक दस्तक है हमारे ज़मीर पर। यह दिन हमें याद दिलाता है कि इंसानियत का असली इम्तिहान तब होता है, जब हम सबसे अदृश्य और सबसे उपेक्षित को भी उतनी ही इज़्ज़त देते हैं, जितनी खुद को। यह दिवस हमें उन कहानियों की ओर मोड़ता है जिन्हें सुनने की हमने कभी फुर्सत नहीं ली — पर जो हमारे समाज की असली नींव हैं।
1975 का वह दिन, जब फ्रांस के लियोन शहर में सेंट-निज़िएर चर्च की सीढ़ियों पर करीब सौ यौनकर्मियों ने पुलिसिया अत्याचार, हिंसा और सामाजिक तिरस्कार के खिलाफ आवाज बुलंद की, इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। वह सिर्फ एक धरना नहीं था; वह एक क्रांति की शुरुआत थी। वह उन औरतों, पुरुषों और ट्रांसजेंडरों (Women, men and transgenders))की चीख थी, जिन्हें समाज ने ‘पाप’ का ठप्पा लगाकर अदृश्य कर दिया। तब से 2 जून दुनियाभर में यौनकर्मियों के संघर्ष, उनकी गरिमा और उनके अधिकारों की प्रतीक बन गया। यह दिन हमें याद दिलाता है कि सेक्स वर्क, चाहे मजबूरी हो या पसंद, एक पेशा है। यह श्रम है, जीवटता है, और सबसे बढ़कर, यह इंसानियत की कहानी है।
भारत में यौनकर्मियों की जिंदगी किसी युद्ध से कम नहीं। एक अनुमान के मुताबिक, देश में 8-10 लाख यौनकर्मी हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और ट्रांसजेंडर हैं। इनमें से कई लोग गरीबी, मानव तस्करी या सामाजिक दबाव के कारण इस पेशे में धकेल दिए जाते हैं। 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में सेक्स वर्क को पेशा माना, सहमति से काम करने वालों को पुलिस उत्पीड़न से बचाने और सम्मान देने की बात कही। लेकिन हकीकत में, कानूनी अस्पष्टता और सामाजिक तिरस्कार के बीच यौनकर्मी आज भी फंसे हैं। इम्मोरल ट्रैफिक प्रिवेंशन एक्ट (आईटीपीए) 1956 जैसे कानून, जो वेश्यालय चलाने या सार्वजनिक स्थानों पर ग्राहक ढूंढने को अपराध मानते हैं, यौनकर्मियों को छिपकर काम करने को मजबूर करते हैं। इस छिपाव में उनकी सुरक्षा, सम्मान और स्वास्थ्य सब दांव पर लग जाता है।Sex work life
स्वास्थ्य सेवाओं की कमी यौनकर्मियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन(National AIDS Control Organization) (एनएसीओ) के 2020 के आंकड़ों के अनुसार, यौनकर्मियों में एचआईवी प्रसार दर 1.85% थी, जो सामान्य आबादी (0.22%) से कहीं ज्यादा है। फिर भी, मुफ्त स्वास्थ्य जांच, दवाइयां या परामर्श की सुविधा तक उनकी पहुंच सीमित है। इसके अलावा, उनके बच्चों को स्कूलों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एक अध्ययन के मुताबिक, 70% से ज्यादा यौनकर्मियों ने अपने पेशे के कारण हिंसा झेली है — चाहे वह पुलिस का डंडा हो, ग्राहकों का क्रूर व्यवहार हो, या समाज का ठंडा तिरस्कार। यह हिंसा सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी है।
यौनकर्मियों के लिए सिर्फ कानूनी मान्यता ही काफी नहीं। उन्हें चाहिए एक ऐसी व्यवस्था, जो उन्हें सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और पुनर्वास के अवसर दे। जो इस पेशे में रहना चाहते हैं, उन्हें गरिमा के साथ जीने का हक मिले। जो इससे बाहर निकलना चाहते हैं, उन्हें शिक्षा, रोजगार और सम्मानजनक जिंदगी का रास्ता दिखे। उनके बच्चों को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका मिले, बिना किसी भेदभाव के। भारत में संगठन जैसे दुरबार महिला समन्वय समिति और संवेदना इस दिशा में काम कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर एनएसडब्ल्यूपी जैसे संगठन यौनकर्मियों के अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे हैं। 2024 में अंतर्राष्ट्रीय सेक्स वर्कर दिवस पर कई ऑनलाइन और ऑफलाइन अभियान चले, जिन्होंने नीति निर्माताओं तक उनकी मांगों को पहुंचाने की कोशिश की।
लेकिन क्या सिर्फ कानून और संगठन बदलाव ला सकते हैं? सच्चा बदलाव तब आएगा, जब हमारी सोच बदलेगी। जब हम यह समझेंगे कि यौनकर्मी कोई ‘दूसरे’ लोग नहीं, बल्कि हमारे ही समाज का हिस्सा हैं। उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा है, उनके अधिकार हमारे अधिकार हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि सेक्स वर्क को ‘पाप’ या ‘शर्म’ का पर्याय बनाना, असल में हमारी संकुचित सोच का परिणाम है।
2 जून का यह दिन हमें एक दर्पण दिखाता है। यह पूछता है कि क्या हम वाकई एक ऐसे समाज के हकदार हैं, जो इंसानियत का दावा करता है? अगर हां, तो हमें चुप्पी तोड़नी होगी। हमें यौनकर्मियों के साथ खड़ा होना होगा — न केवल उनके अधिकारों के लिए, बल्कि उनकी गरिमा, उनके सपनों और उनकी इंसानियत के लिए। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हर इंसान की आवाज मायने रखती है, हर जिंदगी की कीमत है। इस 2 जून को एक वादा करें — एक ऐसा समाज बनाने का, जहां कोई अदृश्य न रहे, जहां हर दिल की धड़कन सुनी जाए, और जहां हर इंसान को उसका हक, उसका सम्मान, और उसकी जगह मिले। क्योंकि इंसानियत का असली रंग तभी उभरता है, जब हम अपने सबसे अनदेखे भाई-बहनों को गले लगाते हैं।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत”,