
दिनेश चंद्र वर्मा/अटल हिन्द /24 /06 /2025
आपातकाल के वे दिन, भारतीय इतिहास के सर्वाधिक कलुषित दिनों के रूप में याद किए जाएंगे। आपातकाल के नाम पर इस देश में जो तानाशाही एवं व्यक्ति पूजा थोपी गई थी, उस की सारी जिम्मेदारी श्रीमती इंदिरा गांधी की है। साथ ही इस तानाशाही एवं व्यक्तिपूजा के लिए कम्युनिस्ट नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।
आपातकाल के पहले के घटनाचक्र का बारीकी से अध्ययन करने के बाद यह बात साफ हो जाती है कि इस प्रकार की तानाशाही एवं व्यक्ति पूजा के वातावरण को तैयार करने के लिए श्रीमती गांधी वैसा ही अपना दिमाग बना सकीं,इसके लिए कई देशी और विदेशी कम्युनिस्ट नेता एक लंबे अरसे से अथक प्रयास कर रहे थे, इसीलिए आपातकाल के दिनों में श्रीमती गांधी के नाम पर सारे देश में जो व्यक्ति पूजा की हवा चलाई गई, वह उस व्यक्ति पूजा से ही मिलतीजुलती है जो एक जमाने में रूस में स्टालिन और ख्रुश्चेव की व्यक्ति पूजा के लिए चलाई गईं थी।
मार्क्सवाद का मायाजाल
जवाहरलाल नेहरू और खास तौर पर श्रीमती इंदिरा गांधी हमेशा ही मार्क्सवाद के मायाजाल के शिकार रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू जीवनभर एक दोराहे पर खड़े रहे और यह फैसला नहीं कर पाए कि मार्क्सवाद और गांधीवाद में कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। मार्क्सवाद के मायाजाल में फंस कर वह पंचशील का कागजी ताबीज बांध कर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ और ‘हिंदी-रूसी भाईभाई’ के नारे लगाते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वह शायद इस मायाजाल से मुक्त हुए, पर उन्हें अपनी भूल सुधारने का मौका नहीं मिल सका।
नेहरूवंश मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा से कितना प्रभावित था इसके एक उदाहरण श्रीमती इंदिरा गांधी के एक नजदीकी रिश्तेदार श्री ब्रजकुमार नेहरू थे। वह लंदन में भारतीय उच्चायुक्त और असम के राज्यपाल भी रहे । उन्होंने एक बार फरमाया था, “गांधी के बताए हुए रास्ते पर चल कर सरकार नहीं चलाई जा सकती. मैं माओ की इस बात को सही समझता हूं कि ताकत तोप के दहाने से ही निकलती है।” इस तरह सारा नेहरू परिवार ही कम्युनिज्म एवं मार्क्सवाद के मायाजाल में फंसा हुआ था।
किशोरावस्था से ही कम्युनिस्टों से प्रभावित
यह तो था घर का वातावरण जिसने श्रीमती गांधी को कम्युनिस्ट एवं मार्क्सवादी विचारधारा की ओर झुका दिया था। किशोरावस्था में उन पर कट्टर कम्युनिस्टों का कुटिल रंग चढ़ गया था। श्रीमती गांधी जब अपने अध्ययन के लिए कुछ वर्षों के लिए इंग्लैंड गईं तो उन दिनों श्री वी. के. कृष्ण मेनन वहां इंडिया लीग नामक एक संस्था चलाते थे। श्रीमती इंदिरा गांधी उन दिनों एक कच्चे दिमाग की किशोरी थीं और वह भी इंडिया लीग के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थीं। उन दिनों इंडिया लीग के जो सदस्य थे, उनमें से कई आगे चल कर प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता बने। इनमें से कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। भूपेश गुप्त, मोहनकुमार मंगलम, रजनी पटेल(अभिनेत्री अमिषा पटेल के दादा) एवं श्रीमती पार्वती कृष्णन।
मोहनकुमार मंगलम एवं रजनी पटेल बाद में अन्य अनेक कम्युनिस्ट नेताओं की तरह कांग्रेस में शामिल हो गए थे और श्रीमती गांधी के बहुत विश्वस्त साथी बन गए। श्री भूपेश गुप्त, श्री मोहनकुमार मंगलम एवं श्री रजनी पटेल के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि अपने अध्ययन काल में ये श्रीमती गांधी से विवाह के भी इच्छुक रहे।
वी. के. कृष्ण मेनन स्वयं एक कट्टर कम्युनिस्ट थे। वह पहले श्री जवाहर लाल नेहरू के और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक श्रीमती इंदिरा गांधी के बड़े विश्वसनीय सलाहकार रहे।
नेहरू के निधन के बाद श्रीमती गांधी स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनीं तो भी कम्युनिस्टों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। श्रीमती नंदिनी सत्पथी, श्री इंद्रकुमार गुजराल एवं क. र. गणेश उन दिनों उनके सलाहकार थे। ये तीनों ही किसी समय में एक साथ कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर रहे थे और कांग्रेस में कम्युनिस्ट लाबी मजबूत करने के लिए घुस आए थे।
सन 1966 में श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं,तबसे लेकर अपने पतन के अंतिम दिनों तक वह कम्युनिस्टों से ही घिरी रहीं। उनके प्रत्येक मंत्रिमंडल में कांग्रेस में घुसे कट्टर कम्युनिस्टों का बाहुल्य रहा। सर्वश्री मोहनकुमार मंगलम, दुर्गाप्रसाद घर, नंदिनी सत्पथी, चंद्रजीत यादव, सिद्धार्थ शंकर रे और देवकांत बरुआ उनके मंत्रिमंडल में रहे। ये सभी नेता पहले कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। स्टालिन की बेटी स्वेतलाना के देवर दिनेशसिंह भी श्रीमती गांधी के विश्वस्त सलाहकार और मंत्री रहे। श्री रजनी पटेल कांग्रेस संगठन में श्रीमती गांधी के अत्यधिक विश्वस्त साथी थे, ललितनारायण मिश्र भी दिनरात रूस की जय बोलते थे और तो और, प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) के सचिव रहे श्री परमेश्वरनारायण हक्सर भी एक जमाने में लंदन में कम्युनिस्ट पार्टी का काम करते थे।
सन 1969 में जब कांग्रेस का बंटवारा हुआ तो इन घुसपैठिए कम्युनिस्टों ने बड़ी ही निर्णायक भूमिका निभाई। कम्युनिस्टों से निकटता के लिए श्रीमती गांधी ने बैंकों का ताबड़तोड़ सरकारी करण कर डाला। श्रीमती गांधी के चारों ओर कम्युनिस्टों का घेरा इस तरह मजबूत था कि श्री अशोक मेहता सरीखे श्रीमती गांधी के शुभचिंतक ने यह कहते हुए संगठन कांग्रेस में रहना मंजूर किया,कि “यह औरत देश को रूस के हाथ बेच देगी।” कांग्रेस विभाजन के बाद तो कम्युनिस्ट खुलकर श्रीमती गांधी के साथ आ गए और इन्होंने सन् 1971 के लोकसभा चुनावों तथा सन् 1972 के विधानसभा चुनावों में श्रीमती गांधी का खुला समर्थन किया।
एक जमाने में संसद में पांडिचेरी लाइसेंस कांड में हुए भ्रष्टाचार कांड की बड़ी सरगर्मी रही और उस नाजुक मौके पर कम्युनिस्ट पार्टी ने श्रीमती गांधी का डट कर समर्थन किया। 19 अक्तूबर, 1974 को श्री देवकांत बरुआ कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन दिनों यह जानना जरा मुश्किल ही था कि वह कांग्रेसी हैं या कम्युनिस्ट। श्री बरुआ के कांग्रेस का अध्यक्ष बनते ही कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट पार्टी ने एक संयुक्त अपील जारी की। इसमें हर शहर और हर गांव में, हर खेत-खलियान और गली में फासिज्म यानी तानाशाही से लड़ने का आह्वान किया था। श्री बरुआ की सूझबूझ और प्रयत्नों से नई दिल्ली में संसद सदस्यों का एक फासिस्ट विरोधी सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें श्री बरुआ और कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी श्री राजे भरराव ने एक ही मंच से और एक ही स्तर में श्रीमती गांधी की प्रशंसा के पुल बांधते हुए फासिज्म के विरोध में युद्ध छेड़ने का ऐलान किया।
इसके बाद सारे देश में फासिज्म विरोधी सम्मेलन आयोजित किए गए। इन सम्मेलनों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों ही दलों के कार्यकर्ताओं ने बढ़चढ़ कर भाग लिया। इन सम्मेलनों में फासिस्ट ताकतों के मुकाबले के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथ मजबूत करने की अपीलें की गईं। साथ ही श्रीमती गांधी की व्यक्ति पूजा के लिए ताश का महल खड़ा किया गया।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध
कम्युनिस्ट शासन प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध। अपने कम्युनिस्ट मददगारों की सलाह पर श्रीमती गांधी ने विचारों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए अपने विरोधी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया। रातोंरात सेंसरशिप लगा दी तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में एक ऐसे व्यक्ति (विद्याचरण शुक्ल) की नियुक्ति कर दी जो श्रीमती गांधी की व्यक्तिपूजा के लिए मन, वचन और कर्म से समर्पित था।
श्री विद्याचरण शुक्ल ने रूसी संवाद समिति ‘तास’ के समान अपने देश में भी ‘समाचार’ नामक एक संवाद समिति बना दी। इसके पूर्व इस देश में चल रही चार बड़ी संवाद समितियों का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया। ‘समाचार’ का काम उसी ढर्रे पर चलने लगा, जिस ढर्रे पर रूस में ‘तास’ का तथा चीन में ‘नव चीन संवाद समिति’ का चलता है।
यही नहीं, समाचारपत्रों पर कठोर सेंसर तो लागू किया ही गया, संवाददाताओं एवं संपादकों की नियुक्ति, स्थानांतरण एवं निष्कासन के लिए भी कम्युनिस्ट देशों के समान ही सरकारी हस्तक्षेप किया जाने लगा। दर्जनों पत्रकार जेलों में ठूंस दिए गए तथा कई समाचार पत्र बंद कर दिए गए। समाचार पत्रों के मालिकों, संपादकों और संवाददाताओं को इतना अधिक आतंकित एवं भयभीत कर दिया गया कि वे भी श्रीमती गांधी के गुण गाने वाले भाट बन कर उनकी व्यक्ति पूजा के पुरजे बन गए।
अखबारी दुनिया पर आतंक, भय और नियंत्रण बना रहे, इसके लिए सूचना विभाग में कुछ पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति कर दी गई। उनका काम पत्रों और पत्रकारों की जासूसी करना था। देश के लगभग सभी पत्रकारों के जीवन का विवरण तैयार किया गया और सूचना विभाग का काम कुछ इस तरह चलने लगा जैसे वह रूसी जासूसी संस्था के. जी. बी. का कोई अंग हो। आकाशवाणी शुरू से ही सरकार के नियंत्रण में रही , मगर आपातकाल में वह ‘इंदिरावाणी’ के नाम से मशहूर हो गई।
व्यक्ति पूजा के इस काम में फिल्म डिवीजन एवं कुछ डाक्यूमेंटरी फिल्म निर्माताओं को भी घसीट लिया गया। इंदिरा गांधी के जीवन, कार्यक्रम, नीतियों और भाषणों पर धड़ाधड़ फिल्में बनाई गईं। समाचारों के स्रोतों पर, समाचार पत्रों पर कठोर नियंत्रण तथा आकाशवाणी, दूरदर्शन एवं फिल्म डिवीजन का व्यक्ति पूजा के लिए अधिकतम उपयोग, ये बातें भी कम्युनिस्ट शासन प्रणाली का ही अंग हैं।
इतना ही नहीं, कांग्रेस के युवा संगठन युवक कांग्रेस में भी कम्युनिस्टों ने घुसपैठ कर ली। क्यूबा के कम्युनिस्ट नेता फिदैल कास्त्रो की एक शिष्या श्रीमती अंबिका सोनी अखिल भारतीय युवक कांग्रेस की अध्यक्ष बनने में सफल हो गई। एक जमाने में पंजाब के मुख्य सचिव तथा बाद में गोआ के उपराज्यपाल श्री नकुल सेन की बेटी श्रीमती अंबिका सोनी आपातकाल के अंधेरे दिनों में एक ताकतवर और प्रभावशाली नेता मानी जाती थीं। वह श्रीमती इंदिरा गांधी एवं उनके पुत्र श्री संजय गांधी के काफी निकट थीं। भारतीय राजनीति में उनका उदय एक धूमकेतु की तरह हुआ था। पहले श्रीमती सोनी एक सीधीसादी भारतीय युवती थीं। उनकी शादी भारतीय विदेश सेवा के एक अधिकारी से हुई थी। उनके पति की नियुक्ति जब क्यूबा में हुई तो वह भी क्यूबा चली गईं। क्यूबा में वह वहां के प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता फिदैल कास्त्रो के संपर्क में आईं। वह क्यूबा में कास्त्रो और उसकी गतिविधियों से बहुत प्रभावित हुईं।
जब सन 1968 में भारत लौटीं तो वह कट्टर कम्युनिस्ट बन चुकी थीं। सन 1969 में कांग्रेस के विभाजन के समय वह कांग्रेस के एक पुराने कम्युनिस्ट नेता श्री चंद्रजीत यादव के साथ नत्थी हो गईं । श्री यादव ने उनके लिए युवक कांग्रेस के दरवाजे खुलवाने में पूरी-पूरी मदद दी। अंततः वह अखिल भारतीय युवक कांग्रेस की अध्यक्ष बना दी गईं। उनकी नियुक्ति के लिए श्री प्रियरंजनदास मुंशी को युवक कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाया गया। श्री प्रियरंजन दास मुंशी पश्चिम बंगाल में बड़ी दिलेरी के साथ कम्युनिस्टों एवं नक्सलपंथियों से लड़े थे।
श्रीमती अंबिका सोनी के युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बनते ही कम्युनिस्टों के संगठन यूथ फेडरेशन और स्टूडेंट फेडरेशन के कार्यकर्ता युवक कांग्रेस में बेधड़क घुस आए। उसके बाद आपातकाल में युवक कांग्रेस ने जो आतंक फैलाया और ऊधम मचाया, वह किसी से छिपा नहीं है।
यदि हम आपात काल से पहले के पिछले पंद्रह वर्षों का घटनाचक्र बारीकी से देखें तो हमें आपात काल के पीछे कम्युनिस्टों के पुराने हथकंडों का सहज ही आभास हो जाता है। कम्युनिस्टों की यह पुरानी चाल रही है कि उनके कुछ लोग सत्ताधारी दल में घुस जाते हैं और धीरे-धीरे सत्ता पर नियंत्रण कर लेते हैं। समय पाकर वे सत्ता पर संपूर्ण नियंत्रण हासिल कर के कम्युनिस्ट तानाशाही की स्थापना कर डालते हैं। चीन का इतिहास इसका खास उदाहरण है। माओ त्से तुंग पहले च्यांगकाई शेक के मंत्रिमंडल में मंत्री रहे, वह धीरे-धीरे सत्ता के विभिन्न केंद्रों पर अपना नियंत्रण करते रहे और अपने लिए समर्थन जुटाते रहे। एक समय ऐसा आया, जब चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हो गई और च्यांग काई शेक को सत्ता छोड़ कर भागना पड़ा।
भारत में वी. के. कृष्णमेनन की राजनीतिक मृत्यु और सन् 1962 में चीनी आक्रमण के कारण आम भारतीय जनता में कम्युनिस्टों के प्रति तीव्र रोष से यह स्पष्ट हो गया था कि भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भविष्य नहीं है। कम से कम कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से तो जनता नफरत ही करती रहेगी। इसके लिए कम्युनिस्टों ने एक दूसरा मार्ग चुना। उन्होंने कांग्रेस को ही कम्युनिस्ट पार्टी में बदल डालने का षड्यंत्र रच डाला।
लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो इस षड्यंत्र को क्रियान्वित करने का अवसर मिल गया। श्रीमती गांधी कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थीं ही, उनके चारों ओर कम्युनिस्टों ने एक मजबूत घेरा बना लिया। मोहनकुमार मंगलम और रजनी पटेल जैसे कम्युनिस्ट नेता इस घेरे को मजबूत बनाने के लिए कांग्रेस में आ गए।
श्रीमती गांधी उस रास्ते पर चलने लगीं जिसकी मंजिल थी, कम्युनिस्ट शासनप्रणाली। आपातकाल इसी रास्ते का एक पड़ाव था।
यदि यह देश आपातकाल की वीभत्स तानाशाही एवं बेहूदी व्यक्ति पूजा को स्वीकार कर लेता तो श्रीमती गांधी की गणना लेनिन, स्टालिन और माओ जैसे नेताओं में होने लगती।
यह बात दूसरी है कि बाद में कम्युनिस्ट पार्टी ने श्रीमती गांधी की आलोचना एवं भर्त्सना की मगर उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि उसने आपातकाल का इतना खुला समर्थन क्यों किया था। श्रीमती गांधी की प्रशंसा में वे उन दिनों कसीदे क्यों पढ़ रहे थे? वस्तुतः कम्युनिस्ट पार्टी आपातकाल की स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार थी।
उस समय यदि श्रीमती गांधी ने चुनाव कराने का निर्णय नहीं लिया होता तो शायद भारत आज अपने आपको एक कम्युनिस्ट देश घोषित कर चुका होता और लाल किले पर लाल झंडा लहरा रहा होता। यह सौभाग्य ही है कि हम उस षड्यंत्र से बच गए जिसकी नींव वी. के. कृष्णमेनन ने डाली थी और दर्जनों कम्युनिस्ट नेता उसमें अपनी भूमिका अदा करते रहे थे।
आपातकाल के उस अंधेरे और आतंक उगलने वाले अध्याय के लिए इतिहास श्रीमती गांधी और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों को ही क्षमा नहीं करेगा। हमें फिलहाल इसी बात पर संतोष कर लेना चाहिए कि हम उस कम्युनिस्ट शासन-व्यवस्था के शिकंजे में आने से बालबाल बच गए जो आपातकाल की तुलना में कहीं अधिक घृणित, वीभत्स और दुखदायी है। *(विनायक फीचर्स)*
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