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गुजरात का सियासी फेरबदल क्या भाजपा की चुनाव-पूर्व असुरक्षा का सूचक है

गुजरात का सियासी फेरबदल क्या भाजपा की चुनाव-पूर्व असुरक्षा का सूचक है
BY कृष्ण प्रताप सिंह
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक गुजरात के नये मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने न सिर्फ सत्ता संभाल ली है, बल्कि अपने मंत्रिमंडल का गठन भी कर लिया है, जिसमें उनकी खुद की कहें या उन्हें उपकृत करने वाले की इच्छा के अनुसार अथवा पार्टी में अंदर-अंदर सुलग रहे असंतोष पर काबू पाने का एकमात्र उपाय मानकर ‘नो रिपीट’ सिद्धांत के तहत पूर्ववर्ती विजय रूपाणी मंत्रिमंडल के एक भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया है.

यहां तक कि उपमुख्यमंत्री रहे नितिन पटेल को भी नहीं. फिर भी न विजय रूपाणी को अचानक हटाये जाने को लेकर सवाल चुकने को आ रहे हैं और न भूपेंद्र मंत्रिमंडल के गठन को लेकर. विपक्षी नेता यह तक कहने लगे हैं कि भाजपा के तथाकथित ‘नो रिपीट’ सिद्धांत का सिर्फ एक मतलब है कि उसे पता चल गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में राज्य की जनता उसकी सरकार को रिपीट नहीं करने वाली.

इस सिलसिले में भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसके लिए इन सवालों में से किसी को भी स्वीकारना और तार्किक परिणति तक पहुंचाना या सर्वथा नकारना संभव नहीं हो रहा. वह इनमें से जिस भी दिशा में चलती है, एक-दो कदम चलते ही तर्कहीनता के दल-दल में फंसने लग जाती है.
इसकी एक मिसाल यह सवाल भी है कि क्या रूपाणी को कोरोना की दूसरी लहर से ठीक से न निपट पाने के कारण हटाया गया? निस्संदेह, उक्त दूसरी लहर के दौरान गुजरात के सरकारी तंत्र की अक्षमताएं बार-बार सामने आईं, जिनके कारण राज्य के हाईकोर्ट तक ने रूपाणी सरकार के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां कीं. लेकिन बेबस भाजपा न इस सवाल का जवाब हां में दे पा रही है, न ही न में.

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कारण? हां कहे तो कठिन कोरोनाकाल में रूपाणी सरकार द्वारा राज्य के नागरिकों को उनके हाल पर छोड़ देने के विपक्षी दलों के आरोपों को स्वीकृति मिलने लगती है. साथ ही इस सवाल को हवा भी कि तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को क्यों नहीं हटाया जा रहा?

कोरोना कुप्रबंधन की तोहमतें तो इन दोनों के खिलाफ भी कुछ कम नहीं हैं. अगर भाजपा का नेतृत्व इन्हें इस कारण हटाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा कि ये कुछ ज्यादा ही ताकतवर हो गए हैं तो बेचारे विजय रूपाणी ने ही क्या बिगाड़ा था?

फिर कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ही सक्षम कहां सिद्ध हो पाए? सर्वोच्च न्यायालय ने उनके महामारी प्रबंधन, अस्पतालों को ऑक्सीजन की आपूर्ति, टीकाकरण और मुआवजा नीति आदि पर एक के बाद एक कई कड़वे सवाल उठाए, लेकिन प्रधानमंत्री ने खुद को इसकी सजा से ऊपर बनाए रखा और स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को बलि का बकरा बनाकर छुट्टी कर दी.

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ऐसे में यह क्या कि जो मुख्यमंत्री जड़ें जमा ले, उसकी सौ बदगुमानियां बर्दाश्त कर ली जाएं और जो ऐसा न कर सके, उसे एक झटके में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए, भले ही वह पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले देश के गृहमंत्री व पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह का करीबी ही क्यों न हो.

इसी से जुड़ा दूसरा और भाजपा के लिए उतना ही असुविधाजनक सवाल यह भी है कि अमित शाह अपने गृहराज्य में अपने करीबी मुख्यमंत्री की कुर्सी क्यों नहीं बचा पाए? अगर इसलिए कि प्रधानमंत्री उन्हें कोई सख्त संदेश देना चाहते थे, जिसके आगे वे असहाय होकर रह गए तो क्या इसे हल्के में लिया जा सकता है?

जानकार बताते हैं कि अगस्त, 2016 में अमित शाह ही थे, जिन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद 22 मई, 2014 को उनकी स्थानापन्न बनी आनंदी बेन पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटने को मजबूर कर अपने चहेते विजय रूपाणी का राज्याभिषेक कराया था.

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राज्य में आनंदी बेन और अमित शाह की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के किस्से इससे बहुत पहले से आम होते रहे हैं और अब यह भी कहा जा रहा है कि इसी क्रम में प्रधानमंत्री तक यह बात पहुंचाई गई कि रूपाणी की पत्नी अंजलि अधिकारियों के प्रशासनिक कार्यों में सीधे हस्तक्षेप कर रही हैं और इस स्थिति के रहते सवा साल बाद होने जा रहे अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का फिर जनादेश पाना कठिन होगा और कोरोना, बेरोजगारी और महंगाई वगैरह के साथ मिलकर रूपाणी सरकार की अकर्मण्यता उस पर भारी पड़ेगी.

फिर तो रूपाणी का पाटीदार न होना भी उनके खिलाफ गया और पार्टी के नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटिल से उनके रिश्तों में व्याप्त तनाव भी.

भाजपा कहे कुछ भी, उसको अपने इस गढ़ में चुनाव हारने का डर इस तथ्य से और बड़ा लगने लगा कि 2017 में रूपाणी के मुख्यमंत्रित्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव में भी वह बमुश्किल अपनी सत्ता बचा पाई थी. सो भी रूपाणी के नहीं, मोदी के करिश्मे से और अहमद पटेल जैसे ‘मुसलमान’ के मुख्यमंत्री बन जाने का डर दिखाकर.

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ऐसे में रूपाणी से इस्तीफा नहीं तो और क्या मांगा जाता? लेकिन यह न सिर्फ अमित शाह बल्कि समूची भाजपा की असहायता है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के लगातार तीन मुख्यमंत्री कालों के बाद के सवा सात वर्षों में ही उसे राज्य में तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े हैं और अपने द्वारा शासित अन्य राज्यों के साथ इस गढ़ में भी उसके स्थायित्व के नारे की हवा निकल गई है.

तिस पर अपनी हार के डर के मनोविज्ञान को वह रूपाणी के उत्तराधिकारी के चुनाव में भी छिपा नहीं पाई है. पार्टी की आतंरिक कलह को हवा न मिले, इसके लिए उसने उत्तराखंड के फार्मूले पर चलते हुए किसी वरिष्ठ के बजाय भूपेंद्र पटेल जैसे कनिष्ठ नेता को, जो पहली बार विधायक चुने गए हैं, मुख्यमंत्री बनाया और उसे प्रधानमंत्री के चौंकाने वाले अंदाज से जोड़ने की भी कोशिश की.

फिर भी यह संदेश चला ही गया कि आनंदी बेन की ही छोड़ी विधानसभा सीट से विधायक बने भूपेंद्र पटेल उनके बेहद करीबी हैं और रूपाणी की जगह उनका मुख्यमंत्री बनना अमित शाह के लिए धरती का पूरे तीन सौ साठ अंश घूम जाना है.
यूं, भूपेंद्र के प्रमोशन के पीछे एक यह कारण भी बताया जाता है कि भाजपा का हाईकमान, जिसका मतलब इस समय महज नरेंद्र मोदी है, नहीं चाहता कि जिस नेता को मुख्यमंत्री बनाया जाए, वह अपने राज्य में अपनी जड़ें इतनी गहराई तक जमा ले कि योगी और शिवराज की तरह ‘असाध्य’ हो जाए.

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हाईकमान का अंदाजा था कि गुजरात की राजनीति में भूपेंद्र की कनिष्ठता उसकी और उनकी सुविधा बन जाएगी और वरिष्ठ नेताओं में कोई उनसे ‘दुश्मनी’ पर नहीं उतरेगा. लेकिन इस मामले में भी वह गलत सिद्ध हुआ.

सबसे पहले रूपाणी सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे नितिन पटेल की, जो खुद को रूपाणी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानकर चल रहे थे, नाराजगी सामने आई, वे मीडिया के सामने आंखें नम कर बैठे और जब तक उन्हें मनाया जाता, भूपेंद्र के नो रिपीट के सिद्धांत के खिलाफ उंगलियां उठने लगीं.

अलबत्ता, अब डैमेज कंट्रोल का भरम रच लिया गया है और कहा जा रहा है कि नितिन पटेल समेत नो रिपीट के सारे विरोधियों ने पार्टी के फैसले को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया है, लेकिन खबरों पर यकीन करें तो पार्टी का एक हलका यह भी कह रहा है कि ‘अनुभवहीन’ भूपेंद्र राज्य के नितिन जैसे अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं को भी जल्दी ही नाराज होने के और मौके दे सकते हैं.

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कोढ़ में खाज यह कि पार्टी के नितिन गडकरी जैसे वरिष्ठ नेता भी, जो केंद्रीय मंत्री भी हैं, संकेत दे रहे हैं कि गुजरात ही नहीं, प्रायः सारे पार्टीशासित राज्यों में जो विधायक हैं, वे दुखी हैं कि मंत्री नहीं बन पा रहे. जो मंत्री बन गए हैं, वे दुखी हैं कि मुख्यमंत्री नहीं बन पा रहे और जो मुख्यमंत्री हैं, यह भरोसा न रह जाने से दुखी हैं कि कब तक पद पर रहने पाएंगे और कब हटा दिए जाएंगे.

इसके उलट कई भाजपा समर्थक प्रेक्षक कह रहे हैं कि उसने गत छह महीनों में एक के बाद एक अपने पांच मुख्यमंत्रियों को हटा दिया है और कहीं चूं तक नहीं हुई है. लेकिन सच्चाई यह है कि चूं से अछूते उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी नहीं हैं, जहां भाजपा हाईकमान चाहकर भी नेतृत्व नहीं बदल पाया है.

तिस पर इस धारणा को मान लिया जाए कि वह चुनाव हारने के डर से मुख्यमंत्री बदलने का अभियान चला रहा हैस तो भी गुजरात के मामले को उससे अलग करके देखना होगा.

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हां, इसकी पंजाब से भी तुलना नहीं की जा सकती, जहां बढ़ती अंतर्कलह के बीच कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस्तीफा दे दिया है. यहां पंजाब के मामले के विस्तार में जाने का अवकाश नहीं है इसलिए सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि भाजपा व कांग्रेस के एक जैसे वर्गीय चरित्र के बावजूद इन दिनों दोनों की समस्याएं अलग-अलग हैं.

पिछले दशकों में गुजरात ही भाजपा का सबसे सुरक्षित गढ़ रहा है और आज की तारीख में वह प्रधानमंत्री व गृहमंत्री दोनों का गृह प्रदेश है. अगर उसमें भी भाजपा को हार का डर सता रहा है तो जाहिर है कि उसने अपनी अजेयता का जो मिथक पिछले सालों में बड़े जतन से गढ़ा था, अब वह भी उसे ढाढ़स नहीं बंधा पा रहा.

वैसे भी मतदाता विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदलने वाले दलों को अपवादस्वरूप ही उपकृत करते हैं.

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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