विधानसभा चुनाव से एक साल पहले गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को क्यों छोड़ना पड़ा पद,वे पांच कारण, जिनकी वजह से विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा,गुजरात में 12 साल बाद अगस्त 2014 में हिंसा हुई. पाटीदार आंदोलन में 14 से अधिक लोगों की जान चली गई और लगभग 30 लोगों के अलावा 203 से अधिक पुलिसवालों को चोटें आईं.
BY दीपल त्रिवेदी
विजय रूपाणी भाग्यशाली हैं कि उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है, क्योंकि रिकॉर्ड को देखते हुए, वह इस पद पर बने रहने के लायक नहीं थे.
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हो सकता है कि भाजपा के मॉडल राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनका जाना आलाकमान के लिए भाजपा शासित राज्यों के कुछ अन्य शक्तिशाली मुख्यमंत्रियों के समक्ष उदाहरण बन जाए, जो यह बताना चाहता है कि भाजपा में व्यक्ति से अधिक मायने पार्टी रखती है.
बेशक, पार्टी इतनी ‘दयालु’ थी कि विजय रूपाणी को सत्ता में पांच साल पूरे करने पर सप्ताह भर के उनके जश्न को पूरा होने दिया, जिसमें उन्होंने लगभग चार सप्ताह पहले तक अपने नेतृत्व में किए गए विकास का प्रदर्शन किया.
आइए, आपको बताते हैं, वे पांच कारण, जिनकी वजह से विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा…
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1. गुजरात में भाजपा के मुख्यमंत्री से पाटीदारों की नाराजगी
2. कोविड कुप्रबंधन
3. प्रबंधन में विफलता की जनधारणा
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4. गुजरात भाजपा अध्यक्ष सीआर पाटिल के साथ बहुत सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रहे.
5. आलाकमान यह बताना चाहता है कि जब पार्टी के आदर्श राज्य गुजरात में मुख्यमंत्री को बदला जा सकता है; तो किसी अन्य मुख्यमंत्री का भी यही हश्र हो सकता है.
पाटीदारों का गुस्सा
गुजरात में पाटीदारों का गुस्सा तब से कम नहीं हुआ है, जब से पाटीदारों ने 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था.
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गुजरात में 12 साल बाद अगस्त 2014 में हिंसा हुई. पाटीदार आंदोलन में 14 से अधिक लोगों की जान चली गई और लगभग 30 लोगों के अलावा 203 से अधिक पुलिसवालों को चोटें आईं.
2002 के बाद गुजरात में यह पहली बड़ी हिंसा थी.
खूनी आंदोलन जंगल की आग की तरह फैल गया और अंतत: 2016 में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को बदल दिया गया. तब यह अनुमान लगाया गया था कि उनके सबसे वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री नितिन पटेल को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन तब भी आनंदीबेन की नहीं चली. अमित शाह ने अपने आदमी विजय रूपाणी को अप्रत्याशित रूप से सीएम बना दिया.
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विजय रूपाणी जैन हैं, न कि पटेल. इससे पटेल की भावनाओं को ठेस पहुंची. इस बात की चर्चा हुई कि आनंदीबेन की जगह उन्हें लाना गलत रहा. गुजरात में पटेल समुदाय के लिए विजय रूपाणी द्वारा कुछ खास नहीं किए जाने के बाद यह भावना और तेज हो गई.
अपने उप-मुख्यमंत्री के रूप में नितिन पटेल ने हालांकि कभी भी अपनी पार्टी से यह सवाल नहीं किया कि उन्हें 2016 में आखिरी मिनट में क्यों हटा दिया गया था? वह भी तब, जबकि घोषणा से पहले ही उन्होंने मिठाई तक बांट दी थी और जश्न की तैयारी में थे.
प्रधानमंत्री मोदी की जाति मोदी घांची (तेली) है, जिसे पहले वैश्य/बनिया जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और फिर 25 जुलाई, 1994 को ओबीसी सूची में शामिल कर लिया गया था.
कहना न होगा कि ऐसी खबरें और आरोप हैं कि मोदी ने खुद अपनी जाति को ओबीसी में शामिल कराया था, जो सही नहीं है. 1994 में कांग्रेस सरकार के दौरान जब छबीलदास मेहता मुख्यमंत्री थे, तभी मोदी का समाज ओबीसी श्रेणी में शामिल हो गया था.
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11 अगस्त, 2021 को लोकसभा ने संविधान (127वां संशोधन) विधेयक पारित किया. इससे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अपनी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सूची तैयार करने का मार्ग प्रशस्त हुआ.
इसके पारित होने के दौरान संसद के 385 सदस्यों ने इसके पक्ष में मतदान किया, जबकि किसी भी सदस्य ने इसका विरोध नहीं किया.
विधेयक को द्विदलीय समर्थन के साथ पारित किया गया था, लेकिन पारित होने से पहले चर्चा के दौरान दोनों पक्षों के सांसदों ने ओबीसी समुदायों के लिए कुछ खास नहीं करने के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहराया.
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देश भर में ओबीसी समुदायों के उत्थान के लिए इस ऐतिहासिक विधेयक के लिए पीएम मोदी को व्यापक रूप से श्रेय दिया जा रहा है.
अब, गुजरात में पाटीदार भी ओबीसी कैटेगरी में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. चौधरी पटेलों को आंजनिया के रूप में भी जाना जाता है, जिन्हें 90 के दशक की शुरुआत में ओबीसी श्रेणी में शामिल किया गया था, जिससे उन्हें सरकारी सेवाओं में अधिक प्रतिनिधित्व मिला.
इसने उन लोगों को नाराज कर दिया जो इस प्रक्रिया से बाहर हो गए थे, जो ज्यादातर सौराष्ट्र, मध्य और दक्षिण गुजरात के हैं.
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पटेलों के कई उपजातियां हैं, लेकिन लेउवा और कदवा सबसे प्रमुख हैं. 1931 में अंग्रेजों द्वारा पहली बार पटेलों के रूप में वर्गीकृत किए गए पाटीदारों का मानना है कि लेउवा और कदवा क्रमश: लव और कुश के वंशज हैं.
गुजरात के पटेलों ने इसलिए आंख बंद करके राम मंदिर आंदोलन का समर्थन किया और 1995 में गुजरात में पहली बार भाजपा की बहुमत वाली सरकार बनने का प्रमुख कारण बना. यही कारण था कि शंकरसिंह वाघेला के बजाय केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया था.
नए ओबीसी विधेयक के साथ गुजरात के पाटीदारों को विश्वास था कि वे जल्द ही ओबीसी श्रेणी में जगह पाएंगे, लेकिन जब विजय रूपाणी सरकार ने ऐसा कोई इरादा नहीं दिखाया तो चर्चा शुरू हो गई.
पाटीदार बहुत धनी समुदाय हैं. उनके आरक्षण की मांग का अक्सर उपहास उड़ाया जाता है, क्योंकि उनके आंदोलन में अक्सर ऑडी, मर्सिडीज और बीएमडब्ल्यू की भरमार होती है.
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पाटीदारों का दृढ़ विश्वास है कि हमारे पास पैसा है, लेकिन कोई शक्ति नहीं है और केवल आरक्षण ही हमें सरकारी नौकरियों के माध्यम से शक्ति प्रदान कर सकता है.
यही प्रमुख कारण है कि रूपाणी को इस्तीफा देना पड़ा है. पटेल नेता और अब कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल ने कहा, ‘अगर पीएम नरेंद्र मोदी उसी अहंकार को बरकरार रखते हैं, जिसमें उन्होंने 2016 में एक पटेल सीएम को हटाकर एक जैन को नियुक्त किया था; तो यह दिसंबर 2022 के चुनावों में भाजपा को महंगा पड़ेगा. मुख्य रूप से इसलिए कि आम आदमी पार्टी यानी आप ने गुजरात में एक मजबूत आधार बनाना शुरू कर दिया है और मुख्य रूप से पटेलों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘यदि नितिन पटेल या कोई अन्य पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री चुने जाते हैं, तो इसका मतलब है कि भाजपा पाटीदारों के खिलाफ अपनी लड़ाई हार गई है और एक नया युद्ध शुरू हो गया है.’
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कोविड कुप्रबंधन
डेटा की तमाम हेराफेरी, विभिन्न रूपों में मीडिया के बनाए खतरे और हाल ही में खामियों को कवर करने के लिए एक नई पीआर प्रणाली (वह एक बड़ी आपदा थी और उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए) के बावजूद विजय रूपाणी कोविड-19 से निपटने के लिए सही समय पर कार्रवाई में पूरी तरह विफल रहे.
इस अवधि के दौरान भाजपा ने अपने अधिकांश वफादार खो दिए. कई मूर्खतापूर्ण फैसले लिए गए. सबसे पहले 2020 में सीएम विजय रूपाणी ने आगे बढ़कर अपने राजकोट स्थित दोस्त के मशीनीकृत एंबुबैग को वेंटिलेटर के नवीनतम आविष्कार के रूप में बढ़ावा दिया. उसे धमन का नाम दिया गया और असलियत खुलने से पहले, उसे बहुत धूमधाम से लॉन्च किया गया था.
डोनाल्ड ट्रंप को तत्कालीन मोटेरा स्टेडियम में ‘अब की बार ट्रंप सरकार’ वाली चुनावी रैली के बाद उसे नरेंद्र मोदी स्टेडियम का नाम देते हुए वहां इंग्लैंड-भारत क्रिकेट मैच कराया गया.
जाहिर है, यह सब भाजपा आलाकमान के निर्देशों के तहत हुआ और विजय रूपाणी लगातार उन कार्यों में लिप्त रहे, जिसके कारण राज्य में बड़े पैमाने पर कोविड-19 फैल गया.
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ट्रंप की यात्रा के तुरंत बाद रूपाणी प्रवासी मुद्दे को लगातार नकारते रहे. इससे अराजक स्थिति पैदा हुई. उनका सबसे बुरा निर्णय, जिसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता था, अस्पतालों में सभी कोविड मरीजों के दाखिले के लिए एंबुलेंस 108 को अनिवार्य बनाना था.
इसके परिणामस्वरूप कई मौतें हुईं. दूसरे चरण में भी, नौकरशाही ने पहले चरण जैसा ही काम किया और इसके परिणामस्वरूप विभिन्न जनविरोधी निर्णय लिए गए. यकीनन डेटा में तमाम हेराफेरी करते हुए गुजरात को एक ऐसे राज्य के रूप में दिखाया गया, जो उत्कृष्ट कोविड प्रबंधन में आगे था. लेकिन, पब्लिक सब जानती थी.
प्रबंधन में विफलता की जनधारणा
दयनीय कोविड प्रबंधन के बावजूद भाजपा ने सूरत, अहमदाबाद और गोधरा में आम आदमी पार्टी (आप) की प्रभावशाली जीत को छोड़कर गुजरात में सभी स्वशासी निकायों को जीतने में कामयाबी हासिल की. लेकिन जीत के हीरो विजय रूपाणी नहीं थे.
गुजरात बीजेपी के अध्यक्ष सीआर पाटिल ने सारा श्रेय ले लिया. रूपाणी को उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र राजकोट में भी दरकिनार कर दिया गया था. इससे विजय रूपाणी की छवि में गिरावट शुरू हुई.
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हालात इतने दयनीय हो गए कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में सीआर पाटिल ने पार्टी मुख्यालय ‘कमलम’ में बैठकें बुलानी शुरू कर दीं, जहां वह मंत्री के नाम की घोषणा पहले से करते थे और लोगों से पार्टी कार्यालय में अपनी समस्याओं के साथ आने के लिए कहते थे.
पार्टी मुख्यालय में समानांतर सरकार चलने से रूपाणी की छवि और खराब हो गई.
सूत्र बताते हैं कि पहली लहर के बाद जनसंपर्क अधिकारी का चयन रूपाणी की सार्वजनिक धारणा के सिलसिले में आखिरी कील साबित हुई.
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वह न केवल अति आत्मविश्वासी हो गए, बल्कि जनता के बीच हकलाने भी लगे. इतना ही नहीं, अपनी शैली और तौर-तरीकों से मजाकिया व्यक्ति बन कर रह गए. मीम्स ने उनका मजाक उड़ाया. किसी नौकरशाह ने, यहां तक कि उनके करीबी लोगों ने भी उन्हें यह नहीं बताया कि मुख्यमंत्री वास्तव में जनसंपर्क आपदा की ओर बढ़ रहे हैं.
सीआर पाटिल के साथ खटास
ऐसा भी था, लेकिन कभी भी सीएम या सीआर द्वारा खुले तौर पर स्वीकार नहीं किया जाएगा. लेकिन यह भीतर की बात है कि दोनों के बीच तालमेल ठीक से नहीं चल रहा था.
भाजपा ऐसी पार्टी नहीं है, जो समानांतर सत्ता ढांचे को बर्दाश्त करेगी. प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पहले से ही गुजरात से हैं. इसे जानते हुए विजय रूपाणी ने हमेशा एक शांत आचरण बनाए रखा था और राज्य में जो कुछ भी अच्छा हुआ उसके लिए पीएम को श्रेय देने का मौका कभी नहीं गंवाया और जो अच्छा नहीं रहा उसका दोष खुद ले लेते थे, जो अच्छी तरह से काम नहीं करता था.
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पाटिल के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद यह समीकरण बदल गया. अपने पैसे, बाहुबल और जनशक्ति के साथ पाटिल मुख्यमंत्री की छाया में अपनी सशक्त छवि बनाने में सफल रहे. मुख्यमंत्री ने हमेशा सम्मान का खयाल रखा, लेकिन पाटिल अक्सर कठोर बने रहे और मुख्यमंत्री ने जो कहा, उसका खंडन किया.
कमलम में उन्होंने जो समानांतर रूप से सरकारी कामकाज शुरू किया, वह दोनों के रिश्ते में महत्वपूर्ण बिंदु बन गया.
पाटिल की इच्छाओं को दबाने में रूपाणी सफल जरूर रहे, लेकिन दोस्ताना या मनगढ़ंत फोटो सेशन और सभाओं के बाद भी खटास बनी रही. दरअसल ये दोनों ही पूरी तरह से परस्पर विरोधी व्यक्तित्व हैं.
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जहां रूपाणी को अमित शाह की नियुक्ति और उनके आदमी के रूप में जाना गया, वहीं पाटिल गुजरात में मोदी के आदमी बन गए. इसने रूपाणी की छवि को और खराब कर दिया, क्योंकि पाटिल ने यह छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया कि वह गुजरात में मोदी के मुंह और कान (करीबी) हैं.
और फिर भी गुजरात एक आदर्श राज्य है
भाजपा के सारे प्रयोग गुजरात की उर्वर आरएसएस समर्थित भूमि पर किए गए हैं. चाहे वह ब्राह्मणवादी आरएसएस में दलितों का एकीकरण हो या भारत में मुसलमानों के खिलाफ ओबीसी को मजबूत करना, क्लीनिकल ट्रायल हमेशा गुजरात में होते रहे.
हालांकि पीएम मोदी और भाजपा ने हाल ही में क्रमश: कर्नाटक और उत्तराखंड में दो मुख्यमंत्रियों को बदला है, हो सकता है कि वे उत्तर प्रदेश को एक संदेश देना चाहते हैं कि वे सतर्क रहें और पार्टी हाईकमान को हल्के में न लें. अगर गुजरात में सीएम बदला जा सकता है, तो यूपी में भी बदला जा सकता है, यह एक संदेश भी हो सकता है.
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(ये लेख मूल रूप से वाइब्स ऑफ इंडिया वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है.)
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