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एग्जिट पोल्स के निष्कर्ष महज़ -हवाई -फायर

एग्जिट पोल्स के निष्कर्ष महज़ -हवाई -फायर

BY कृष्ण प्रताप सिंह
गत मंगलवार को उत्तर प्रदेश के नौ जिलों की 54 साटों पर चल रहा मतदान का सातवां और आखिरी चरण खत्म हुआ नहीं कि न्यूज चैनलों पर विधानसभा चुनाव के एग्जिट पोल्स की बहार-सी आ गई!

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इन चैनलों की इस ‘तेजी’ पर बलि-बलि जाने का मन होता है कि शाम को वोट देने पहुंचे आखिरी चरण के वे मतदाता, जिनके बूथों पर लंबी लाइनें थीं, मतदान करके अपने बूथों से बाहर भी नहीं निकले कि उन्होंने उन्हें उनका फैसला बता दिया! एक वरिष्ठ पूर्व संपादक के इस सवाल की अनसुनी करते हुए कि उन्होंने अपने निष्कर्षों में इतने कम समय में अंतिम चरण के मतदाताओं के मत कैसे शामिल किए?

बहरहाल, अब इन एग्जिट पोल्स में भरोसा रखने वाले उनके निष्कर्षाें को लेकर अपनी दलीय सुविधाओं के लिहाज से खुश व नाखुश हो रहे हैं तो भरोसा न रखने वाले पिछले चुनावों की उन मिसालों के साथ सामने आकर आईना दिखा रहे हैं, जिनमें मतदाता खुद को इन पोल्स से ऊपर सिद्ध कर उन्हें औंधे मुंह गिरा चुके हैं!

ऐसे लोग ये पोल करने व कराने वालों को इस तल्ख सवाल के सामने भी खड़ा कर रहे हैं कि पिछली बार किस चुनाव में उनके निष्कर्ष सही साबित हुए थे?

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लेकिन सच पूछिए तो एग्जिट पोल्स के निष्कर्षों का सच उजागर करने के लिए अतीत में बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. उनके ताजा निष्कर्षों में ही इतनी गहरी फांकें हैं- कई मामलों में तो उनमें सौ सीटों तक का अंतर है- कि वे ही उनके अंतर्विरोधों को बखूबी उजागर कर देती हैं. इस तथ्य को भी कि वे और जिन भी कारकों पर आधारित हो, वस्तुनिष्ठता पर कतई आधारित नहीं हैं.

ऐसे में मतगणना के बाद उनकी तीन में से कोई एक नियति अवश्यंभावी है. पहली, जो उनमें से ज्यादातर का इंतजार कर रही है, यह है कि वे सिरे से गलत सिद्ध हो जाएं. दूसरी यह कि उनमें से कुछ आधे सच और आधे झूठ की गति को प्राप्त हो जाएं.

और तीसरी यह कि एक-दो के सच्चे निष्कर्ष उन्हें अपनी पीठ ठोंकने की सहूलियत उपलब्ध करा दें. इस भविष्यकथन का आधार यह कि ऐसी अटकलों की चौथी कोई परिणति होती ही नहीं है.

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तिस पर एग्जिट पोल्स के रूप में प्रचारित व प्रसारित की जा रही इन अटकलों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उनमें से कोई भी अपनी प्रविधि की वैज्ञानिकता व वस्तुनिष्ठता को लेकर इतना आश्वस्त नहीं करती कि उसे अटकलों से कुछ ज्यादा माना जा सके.
ओपीनियन पोल्स के बारे में तो कई जानकार यह भी कहते हैं कि अब उन्हें जनमत जानने के लिए उसे प्रभावित करने के लिए कराया जाता है. बतर्ज ‘गंदा है पर धंधा है.’

इसलिए ‘लग गया तो तीर, नहीं तो तुक्का’ की तर्ज पर कभी एग्जिट पोल्स में से कोई एक सही हो जाता है, कभी दूसरा और कभी तीसरा. लेकिन यह वैसे ही होता है जैसे यह सोचना कि किसी घड़ी को बंद करके रख दें, तब भी वह चौबीस घंटों में दो बार सही समय दिखा देती है.

हालांकि ऐसा वक्त के हेर-फेर से होता है और इसमें उसका अपना कोई योगदान नहीं होता. लेखक-कवि राकेश अचल की मानें तो जो चुनाव कभी जो लोकतंत्र का महोत्सव हुआ करते थे, इन एग्जिट पोल्स के चक्कर में जुए जैसे लगने लगे हैं.

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हमारे उतावलेपन को तुष्ट करने के लिए जबरिया थोप दी गई संभावनाओं, आकलनों और अटकलों ने हमसे चुनावों का मूल स्वरूप ही छीन लिया है. अब उनके नतीजों को लेकर सट्टेबाजी होती और दांव तो लगाए ही जाते हैं, शेयर बाजार से भी उन्हें सलामी दिलवाई जाती है.

इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि चुनावों के प्रचार से लेकर उनके विश्लेषण, पूर्वानुमान और निष्कर्ष तक बिग मनी द्वारा नियंत्रित बाजार व्यवस्था का अंग हो गए हैं और उनमें वास्तविकता के कम, प्रबंधन के तर्क ज्यादा चलते हैं.
यही कारण है कि कई चैनलों के एग्जिट पोल्स के निष्कर्षों को चुनाव से पहले संबंधित सरकार द्वारा उन्हें दिए गए विज्ञापनों का रिटर्न गिफ्ट बताया जा रहा है. यह गिफ्ट देने वाले आश्वस्त हैं कि औपचारिक नतीजे आने तक उनके नतीजों का बाजार गर्म रहेगा ही रहेगा ओर उनके बाद क्या होगा, पब्लिक मेमोरी इज शॉर्ट के पैरोकारों में कौन इसकी परवाह करता है?

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राकेश अचल इस सिलसिले में कई मौजूं सवाल पूछते हैं: एग्जिट पोल हों या ओपीनियन पोल, वे इस कदर अवैज्ञानिक क्यों हो चले हैं कि गोरखधंधे जैसे लगने लगें? इनसे हमारे लोकतंत्र का कितना भला हो रहा है? ये पोल करने, कराने और दिखाने वालों को इनके नतीजों के लिए जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए और वे गलत सिद्ध हों तो उनके खिलाफ लोगों को भ्रमित या उन्माद व अवसादग्रस्त करने के अभियोग क्यों नहीं चलाए जाने चाहिए? आखिर वे कौन-से मूल्यों और नैतिकताओं के लिए काम कर रहे हैं?

ये सवाल अपनी जगह सही या गलत हो सकते हैं. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल वह है, जो उत्तर प्रदेश के एग्जिट पोल नतीजों के सिलसिले में एक यूट्यूब चैनल पर बहस के दौरान अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हन्ना मोल्लाह ने, जो आठ बार लोकसभा के लिए चुने जा चुके हैं, पूछा: फासीवादी शक्तियां लोकतांत्रिकता के लबादे में सत्ता पर काबिज हो जाएं तो क्या उन्हें हराना इतना आसान होता है?

उत्तर प्रदेश के एग्जिट पोल्स के निष्कर्ष नतीजों में बदलते हैं तो यह सवाल इस कारण भी जवाब की मांग करेगा कि इस प्रदेश में मीडिया और चुनाव आयोग समेत शायद ही कोई लोकतांत्रिक संस्थान सत्ता प्रायोजित फासीवाद की चपेट में आने से बच पाया हो.

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Exit polls findings just a hoax

इसीलिए चुनाव अभियान के दौरान यह कहने वाले प्रेक्षकों की भी कमी नहीं थी कि सत्तापक्ष को तो केवल विपक्ष का मुकाबला करना है, जबकि विपक्ष को सत्तापक्ष के साथ चुनाव आयोग और मीडिया के सौतेलेपन का भी.

बात इतनी ही होती तो भी गनीमत होती. लेकिन नीतिगत विपक्ष की अनुपस्थिति ने यह तय करने का, कि कौन पक्ष उसके लिए कम नुकसानदेह है और लोकतंत्र के मन व मूल्यों को बचाना कैसे मुमकिन होगा, सारा तकिया जनता की सदाशयता पर ही रख दिया था, जबकि यह जनता पहले से ही नाना जातियों व वर्गों में विभाजन के साथ धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण झेलने और प्रजा व लाभार्थी आदि बनने को अभिशप्त थी.

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उसे यूं अभिशप्त होने के लिए छोड़े रखकर कोई उसके पास सिर्फ जनादेश मांगने पहुंचे तो उसे उसके न मिलने का रोना रोने का भला क्या हक है? खासकर जब जानकार पहले ही कह गए हैं कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों व दर्शनों पर शांतिकाल में ही प्रवचन दिया व सुना जा सकता है, लड़ाई के समय रणनीति की जरूरत होती है और उसके बगैर जनता भरोसे पर खरी नहीं भी उतर सकती है.
बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर ने कहा है कि कोई भी विचार अजर-अमर नहीं हुआ करता. उसे जिंदा रखने के लिए उसकी जड़ों में खाद डालना और सींचना पड़ता है. सवाल है कि क्या यह काम सिर्फ चुनाव के वक्त अपने विचारों को लेकर जनता के पास जाने या महज चुनाव से चुनाव की सोच से किया जा सकता है? वह भी जब फासीवादी ‘लोकतांत्रिक’ शक्तियां जनता को अपने पाले में लाने के लिए साम-दाम, दंड-भेद कुछ भी उठा न रख रही हों.

ये सवाल एग्जिट पोल्स के निष्कर्षों सही होने पर भी जवाब की मांग करेंगे और गलत होने पर भी, क्योंकि लोकतंत्र के शुभचिंतकों के लिए दोनों का एक ही अर्थ होगा: आगे और लड़ाई है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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