धर्म जब राजनीति से मिल जाता है तो यह अधर्म में बदल जाता है यानी खतरनाक हो जाता है।
–राजकुमार अग्रवाल /अटल हिन्द
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”मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाता है। धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं।”
जब हम किसी को अच्छा काम करते देखते हैं तो अक्सर कहते हैं कि आप धर्म-पुण्य का काम कर रहे हैं, अच्छा है। धर्म-पुण्य यानी मानवता का काम यानी दान, परोपकार, सदाचार, सद्भाव, शांति, सौहार्द, मानव कल्याण का काम। किसी गरीब की विवाह योग्य बेटी का विवाह कराना, भंडारा करना, भूखे को भोजन कराना, प्यासे को पानी देना, किसी जरूरतमंद की यथासंभव आर्थिक सहायता करना आम तौर पर ये सब धर्म के काम माने जाते हैं। धर्म के अंतर्गत यह सब आ जाता है जो करता है यह इशारा कि इंसान का इंसान से हो भाईचारा।
हमारे यहां सर्वधर्म समभाव की बात कही गई है यानी सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना। संविधान में तो देश को धर्मनिरपेक्ष कहा गया है यानी इस देश का कोई धर्म नहीं है सबको अपना धर्म मानने की आजादी है।
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लेकिन हकीकत क्या है? इस पर ग़ालिब का एक शेर याद आता है कि ‘हमें मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’
सारे दंगे-फसाद धर्म के नाम पर ही होते हैं।
इसलिए इक़बाल का ये शेर आज के संदर्भ मे झूठा सा लगता है कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।’
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धर्म के नाम पर होने वाले दंगों की लंबी फेहरिस्त बन सकती है पर प्रमुख रूप से 2002 का गुजरात दंगा, दिल्ली का 2020 का दंगा, हरियाणा के नूंह का दंगा, उत्तर प्रदेश का बहराईच और हाल ही में उत्तर प्रदेश का ही संभल के दंगे का उल्लेख किया जा सकता है।
धर्म जब राजनीति से मिल जाता है तो यह अधर्म में बदल जाता है यानी खतरनाक हो जाता है।
तब लोग कहने लगते हैं इस्लाम खतरे में है या हिंदू धर्म खतरे में है। वास्तव में, जो धर्म हमें अच्छा आचरण करना सिखाता है वह भला खतरे में कैसे हो सकता है।
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पर दोस्त, धर्म के बारे में कड़वी सच्चाई कुछ और ही है। हिंदू धर्म के बारे में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था – ”मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाता है।….धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं।…जो धर्म जन्म से एक को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बनाए रखे वह धर्म नहीं गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र है।”
दरअसल जो धर्म ऊंच-नीच में विश्वास करता हो, जात-पांत में विश्वास करता हो, भेदभाव में विश्वास करता हो, छुआछूत में विश्वास करता हो, उसे क्या धर्म कहा जा सकता है। भले ही आप धर्म के नाम पर गर्व करते रहें। पर कोई भी धर्म जो मानव-मानव में भेदभाव करता है, उस पर गर्व कैसे किया जा सकता है। धर्म तो परोपकार में विश्वास करता है। शांति, अमन-चैन में विश्वास करता है। हर मानव के कल्याण में विश्वास करता है।
फिर ये कौन सा धर्म है जो हिंसा और दंगे-फसाद करवाता है। अमानवीयता की सारी हदें पार कर जाता है। याद कीजिए गुजरात दंगे और बिलकिस बानो को, उसके और उसके परिवार तथा अनेक मुसलमानों के साथ हुई बर्बरता को। बहराइच में एक चौबीस साल के युवक की हत्या कर दी जाती है। हमारे यहां धर्म के नाम पर ही मॉब लिंचिंग जैसी मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं हो जाती हैं।
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धर्म से उपजी जात-पात के नाम पर दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। उनके घोड़ी पर चढ़ने, मूंछ रखने, किसी गैर जाति खास कर कथित उच्च जाति की लड़की से प्रेम करने पर सजा-ए-मौत दी जाती है। घड़े या लोटे या हैंड पंप से पानी पीने पर उनके साथ मारपीट की जाती है। उनको जाति सूचक गाली दी जाती है। उनको थूक कर चटवाया जाता है। उनके ऊपर पेशाब कर दिया जाता है या पेशाब पीने को मजबूर किया जाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, यौन हिंसा, उनकी हत्याएं जैसे जैसे अपराध आम हैं। यानी दलितों पर अत्याचार, उनकी महिलाओं से बलात्कार, उनकी निर्मम हत्याएं, ये सब अमानवीयता कथित धर्म के नाम पर होती है।
धर्म के नाम पर, आस्था के नाम पर, भावनाएं आहत होने के नाम पर आप अमानवीयता की सारी हदें पार कर जाते हैं। आखिर क्यों?
कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम ठीक ही कहा था।
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धर्म के नाम पर आपका बुद्धि विवेक बेसुध नींद में चला जाता है। आप अंधविश्वास में लिप्त हो जाते हैं। तर्क करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। यदि कोई ढोंगी तांत्रिक आपके भले के लिए किसी मानव की बलि देने को कहे तो आप उसकी बलि दे देते हैं। कितनी अमानवीयता और बर्बरता है यह! किसी महिला को डायन बता कर उसकी हत्या कर देते हैं। आप जरा भी अपने बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल नहीं करते।
नरेंद्र दाभोलकर और उनके जैसे अन्य लोग आपको अंधविश्वास के प्रति जागरूक करें तो आप उनकी ही हत्या कर देते हैं। कहां चला जाती है आपकी अपनी समझ। आपकी मानवीयता। आपकी बुद्धि विवेक।
आपकी इसी भावुकता, अंध आस्था और धार्मिक कट्टरता का लाभ उठाकर राजनीतिक लोग आपका इस्तेमाल करते हैं। आपको दूसरे धर्म के खिलाफ उकसा कर भड़काकर दंगा फसाद करवा कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते हैं। हिंदू धर्म अपनी ऊंच-नीच और नफरत के कारण बदनाम है। पर धर्म के ठेकेदार इस पर गर्व करते हैं। कहते हैं गर्व से कहो हम हिंदू हैं। पर संवेदनशील लोग मानवता में विश्वास करने वाले लोग शर्म भी महसूस करते हैं। कवि राजेश जोशी लिखते हैं – ‘जब-जब लिखा जाए कि मैं हिंदू था तो लिखा जाए साफ-साफ कि मैं शर्मिंदा था।’
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आप चाहे किसी भी धर्म के हों आपको अपना धर्म अपनाने की स्वतंत्रता देश का संविधान भी देता है। पर ध्यान यह रखें कि आप अपने धर्म को अपने निजी जीवन तक ही सीमित रखें। दूसरों के धर्म से नफरत न करें। धर्म के नाम पर किसी इंसान से नफरत न करें। अपने सामाजिक जीवन में स्वयं को सबसे पहले भारतीय समझें। और हर भारतीय नागरिक को समान समझें। हर जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र के नागरिक के मानव अधिकार समान हैं। इसका सम्मान करें।
हमारी गंगा-जमुनी तहजीब है। हमारे देश की उपमा आप ऐसे फूलों के हार से कर सकते हैं जिसमे विभिन्न रंगों के फूल एक डोर में गुंथे हुए हैं। हमारी सभ्यता-संस्कृति विविधता में एकता की है। जीओ और जीने दो की है। हिंसा दंगा-फसाद और युद्ध की नहीं बल्कि बुद्ध की है। इसलिए जरूरी है कि हम धर्म-मजहब से ऊपर उठकर इंसानियत का पालन करें। सांप्रदायिक सद्भाव सौहार्द की भावना रखें। समता, समानता, न्याय और बंधुत्व को अपनाएं। हमारे प्रसिद्ध कवि गोपाल दास नीरज को भी कहना पड़ा कि –
‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
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जहां इंसान को इंसान बनाया जाए।’
(राज वाल्मीकि लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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